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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


वीरमदेव को इससे प्रसन्नता नहीं हुई। हंत! यह बात किसी सजातीय के मुख से निकलती! यह बधाई किसी राजपूत की ओर से होती, तो कैसा आनंद होता! विचार आया, मैंने क्या किया! वीरता से विजय प्राप्त की, परंतु दूसरे के लिए। युद्ध में विजयी, परंतु सिर झुकाने के लिए। इस विचार से मन में ग्लानि उत्पन्न हुई। परंतु आँख ऊँची की तो दरबारी उनकी ओर ईर्ष्या से देख रहे थे और आदर-पुरस्कार पाँवों में बिछ रहा था। वीरमदेव ने सिर झुकाकर उत्तर दिया–‘हुजूर का अनुग्रह है, मैं तो एक निर्बल व्यक्ति हूँ।’

बादशाह ने कहा–‘नहीं, तुमने वास्तव में वीरता का काम किया है। हम तुम्हें जागीर देना चाहते हैं।’

वीरमदेव ने कहा–‘मेरी एक प्रार्थना है।’

‘कहो।’

‘कैदियों में एक नवयुवक राजपूत जीतसिंह है, जो पठानों की ओर से हमारे साथ लड़ा था। वह है तो शत्रु, परंतु अत्यंत वीर है। मैं उसे अपने पास रखना चाहता हूँ।’

अलाउद्दीन ने मुस्कराकर उत्तर दिया–‘मामूली बात है, वह कैदी हमने तुम्हें बख्शा।’

 दो वर्ष पश्चात् वीरमदेव कलानौर को वापस लौटे, तो मन उमंगों से भरा हुआ था। राजवती की भेंट के हर्ष में पिछले दुःख सब भूल गये। तेज चलने वाले पक्षी की नाई उमंगों के आकाश में उड़े चले जाते थे। मातृभूमि के पुनर्दर्शन होंगे। जिस मिट्टी से शरीर बना है, वह फिर आँखों के सम्मुख होगी। मित्र-बन्धु स्वागत करेंगे, बधाइयाँ देंगे। उनके शब्द जिह्वा से नहीं, हृदय से निकलेंगे। पिता प्रसन्न होंगे, स्त्री द्वार पर खड़ी होगी।

ज्यों-ज्यों कलानौर निकट आ रहा था, हृदय की आग भड़क रही थी। स्वदेश का प्रेम हृदय पर जादू का प्रभाव डाल रहा था मानो पाँवों को मिट्टी की जंजीर खींच रही थी। एक पड़ाव शेष था कि वीरमदेव ने जीतसिंह से हँसकर कहा–‘आज हमारी स्त्री बहुत व्याकुल हो रही होगी।’

जीतसिंह ने सुना, तो चौंक पड़ा और आश्चर्य से बोला–‘आप विवाहित हैं क्या?’

वीरमदेव ने बेपरवाही से उत्तर दिया–‘हाँ मेरे विवाह को पाँच वर्ष हो गये।’ जीतसिंह का चेहरा लाल हो गया। कुछ क्षणों तक वह चुप रहा, परन्तु फिर न सह सका, क्रोध से चिल्लाकर बोला–‘बड़े हृदय शून्य हो, तुम्हें ऐसा न समझता था।’

वीरमदेव कल्पना के जगत् में सुख के महल बना रहे थे। यह सुनकर उनका स्वप्न टूट गया। घबराकर बोले–‘जीतसिंह, यह क्या कहते हो।

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