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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


धर्मवीर रिवाल्वर फेंककर माँ के पास गया और घबराकर बोला– अम्माँ, क्या हुआ? फिर यकायक इस शोकभरी घटना की प्रतीति उसके अन्दर चमक उठी– वह अपनी प्यारी माँ का क़ातिल है। उसके स्वभाव की सारी कठोरता और तेज़ी और गर्मी बुझ गयी। आँसुओं की बढ़ती हुई थरथरी को अनुभव करता हुआ वह नीचे झुका, और माँ के चेहरे की तरफ़ आंसुओं में लिपटी हुई शर्मिंन्दगी से देखकर बोला-यह क्या हो गया अम्माँ! हाय, तुम कुछ बोलतीं क्यों नहीं! यह कैसे हो गया। अंधेरे में कुछ नज़र भी तो नहीं आता। कहाँ गोली लगी, कुछ तो बताओ। आह! इस बदनसीब के हाथों तुम्हारी मौत लिखी थी। जिसको तुमने गोद में पाला उसी ने तुम्हारा ख़ून किया। किसको बुलाऊँ, कोई नज़र भी तो नहीं आता!

माँ ने डूबती हुई आवाज़ में कहा-मेरा जन्म सफल हो गया बेटा। तुम्हारे हाथों मेरी मिट्टी उठेगी। तुम्हारी गोद में मर रही हूँ। छाती में घाव लगा है। ज्यों तुमने गोली चलायी, मैं तुम्हारे सामने खड़ी हो गयी। अब नहीं बोला जाता, परमात्मा तुम्हें खुश रखे। मेरी यही दुआ है। मैं और क्या करती बेटा। माँ की आबरू तुम्हारे हाथ में है। मैं तो चली।

क्षण-भर बाद उस अंधेरे सन्नाटे में धर्मवीर अपनी प्यारी माँ के नीमज़ान शरीर को गोद में लिये घर चला तो उसके ठंडे तलुओं से अपनी ऑंसू-भरी आँखें रगड़कर आत्मिक आह्लाद से भरी हुई दर्द की टीस अनुभव कर रहा था।

–  ‘आख़िरी तोहफ़ा’ से
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