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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


बैरा– हुजूर तो अंधेर करते है। सलाम हमको करना चाहिए और आप पहले ही हाथ उठा देते हैं।

गुल– अजी इन बातों में क्या रक्खा है। खुदा की निगाह में सब इन्सान बराबर हैं।

बैरा– हुजूर को अल्लाह सलामत रक्खें, क्या बात कही है। हक तो यह है पर आदमी अपने को कितना भूल जाता है! यहाँ तो छोटे-छोटे अमले भी इंतजार करते रहते है कि यह हाथ उठावें। साहब को इत्तला कर दूँ?

गुल– आराम में हो तो रहने दो, अभी ऐसी कोई जल्दी नहीं।

बैरा– जी नहीं हुजूर हाजिरी पर से तो कभी के उठ चुके, काग़ज़-वागज़ पढ़ते होगें।

गुल– अब इसका तुम्हे अख्तियार है, जैसा मौका हो वैसा करो। मौका-महल पहचानना तुम्हीं लोगों का काम है। क्या हुआ, तुम्हारी लड़की तो खैरियत से है न?

बैरा– हाँ हुजूर, अब बहुत मज़े में है। जब से हुजूर ने उसके घरवालों को बुलाकर डांट दिया है, तब से किसी ने चूँ भी नहीं किया। लड़की हुजूर की जान-माल को दुआ देती है।

बैरे ने साहब को ख़ाँ साहब की इत्तला की, और एक क्षण में ख़ां साहब जूते उतार कर साहब के सामने जा खड़े हुए और सलाम करके फर्श पर बैठ गए। साहब का नाम काटन था।

काटन– ओ! ओ! यह आप क्या करता है, कुर्सी पर बैठिए, कुर्सी पर बैठिए।

खाँ– बहुत मज़े में बैठा हूँ हुजूर। आपके बराबर भला बैठ सकता हूँ। आप बादशाह, मैं रैयत।

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