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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अजब वक़्त आ गया है, पब्लिक अब दूसरों का तो लिहाज़ ही नहीं करती। रंग-ढ़ग तौर-तरीक़ा सभी कुछ बदल गये हैं। जब हम अपनी मज़दूरी माँगते है तो जवाब मिलता है कि तुम्हारी अमलदारी है, खुली सड़क पर लूट लो! अपने जानवरों को सेठजी हलुआ-जलेबी खिलायेंगे, मगर हमारी गर्दन मारेंगे। कोई दिन थे, कि हमको किराये के अलावा मालपूए भी मिलते थे।

अब भी इस गिरे ज़माने में भी कभी-कभी शरीफ़ रईस नज़र आ ही जाते हैं। एक बार का जिक्र सुनिए, मेरे ताँगे में सवारियाँ बैठीं। कश्मीरी होटल से निकलकर कुछ थोड़ी-सी चढ़ी थी। कीटगंज पहुँचकर सामनेवाले ने चौरास्ता आने से पहले ही चौदह आने दिये और उतर गये। फिर पिछली एक सवारी ने उतरकर चौदह आने दिए। अब तीसरी उतरती नहीं। मैंने कहा कि हज़रत चौराहा आ गया। जवाब नदारद। मैंने कहा कि बाबू इन्हें भी उतार लो। बाबू ने देखा-भाला मगर वह नशे में चूर हैं उतरे कौन! बाबू बोले अब क्या करें। मैंने कहा– क्या करोगे। मामला तो बिल्कुल साफ़ है। थाने ले जाइए और अगर दस मिनट में कोई वारिस ने पैदा न हो तो माल आपका।

बस हुजूर, इस पेशे में भी नित नये तमाशे देखने में आते हैं। इन आँखों सब कुछ देखा है हुजूर। पर्दे पड़ते थे, जाजिमें बाँधी जाती थीं, घटाटोप लगाये जाते थे, तब जनानी सवारियाँ बैठती थीं। अब हुजूर अजब हालत है, पर्दा गया हवा के बहाने से। इक्का कुछ सुखों थोड़ा ही छोड़ा है। जिसको देखो यही कहता था कि इक्का नहीं तांगा लाओ, आराम को न देखा। अब जान को नहीं देखते और मोटर-मोटर, टैक्सी-टैक्सी पुकारते हैं। हुजूर हमें क्या हम तो दो दिन के मेहमान है, खुदा जो दिखायेगा, देख लेंगे।

–  ‘ज़माना’सितम्बर, १९२६
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