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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


यह सुनते ही कृष्णा की आँखों से चंचल ज्वाला-सी निकली और उसके ओठों पर व्यंग्यपूर्ण हास्य की झलक दिखाई दी। बोली– महाशय, आप तो आज एक विचित्र अभिनय करने लगे, कृपा करके पैरों पर से उठिए और जो कुछ कहना चाहते हो, जल्द कह डालिए और जितने आँसू गिराने हों एक सेकेण्ड में गिरा दीजिए, मैं रुक-रुककर और घिघिया-घिघियाकर बातें करने वालों को पसन्द नहीं करती। हाँ, और जरा बातें और रोना साथ-साथ न हों। कहिए क्या कहना चाहते हैं…आप न कहेंगे? लीजिए समय बीत गया, मैं जाती हूँ।

कृष्णा वहाँ से चल दी। माया भी उसके साथ ही चली गई। पशुपति एक क्षण तक वहाँ खड़ा रहा फिर वह भी उनके पीछे-पीछे चला। मानो वह सुई है जो चुम्बक के आकर्षण से आप ही आप खिंचा चला जाता है।

सहसा कृष्णा रुक गई और बोली– सुनिए पशुपति बाबू, आज सन्ध्या समय प्रभा की बातों से मालूम हो गया कि उन्हें आपका और मेरा मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं भाता…

पशुपति– प्रभा की तो आप चर्चा ही छोड़ दीजिए।

कृष्णा– क्यों छोड़ दूँ? क्या वह आपकी स्त्री नहीं है? आप इस समय उसे घर में अकेली छोड़कर मुझसे क्या कहने के लिए आये हैं? यही कि उसकी चर्चा न करूँ?

पशुपति– जी नहीं, यह कहने के लिए कि अब वह विरहाग्नि नहीं सही जाती।

कृष्णा ने ठठ्टा मारकर कहा– आप तो इस कला में बहुत निपुण जान पड़ते हैं। प्रेम! समर्पण! विरहाग्नि! यह शब्द आपने कहाँ सीखे?

पशुपति– कृष्णा, मुझे तुमसे इतना प्रेम है कि मैं पागल हो गया हूँ।

कृष्णा– तुम्हें प्रभा से क्यों प्रेम नहीं है?

पशुपति– मैं तो तुम्हारा उपासक हूँ।

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