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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


चौधरी ने दौड़कर शाहिद को संभाला और ज़ोर से बोला– ठाकुर, इधर आओ– लालटेन!…लालटेन! आह, यह तो मेरा शाहिद है!

ठाकुर के हाथ-पाँव फूल गये। लालटेन लेकर बाहर निकले। शाहिद हुसैन ही थे। उनका सिर फट गया था और रक्त उछलता हुआ निकल रहा था।

चौधरी ने सिर पीटते हुए कहा– ठाकुर, तूने तो मेरा चिराग ही गुल कर दिया।

ठाकुर ने थरथर काँपते हुए कहा– मालिक, भगवान् जानते हैं मैंने पहचाना नहीं।

चौधरी– नहीं, मैं तुम्हारे ऊपर इलजाम नहीं रखता। भगवान् के मंदिर में किसी को घुसने का अख्तियार नहीं है। अफसोस यही है कि खानदान का निशान मिट गया, और तुम्हारे हाथों! तुमने मेरे लिए हमेशा अपनी जान हथैली पर रक्खी, और खुदा ने तुम्हारे ही हाथों मेरा सत्यानाश करा दिया।

चौधरी साहब रोते जाते थे और ये बातें कहते जाते थे। ठाकुर ग्लानि और पश्चात्ताप से गड़ा जाता था। अगर उसका अपना लड़का मारा गया होता, तो उसे इतना दुःख न होता। आह! मेरे हाथों मेरे मालिक का सर्वनाश हुआ! जिसके पसीने की जगह वह ख़ून बहाने को तैयार रहता था, जो उसका स्वामी ही नहीं, इष्ट था, जिसके ज़रा-से इशारे पर वह आग में कूद सकता था, उसी के वंश की उसने जड़ काट दी! वह उसकी आस्तीन का साँप निकला! रुंधे हुए कंठ से बोला– सरकार, मुझसे बढ़कर अभागा और कौन होगा। मेरे मुँह में कालिख लग गयी।

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