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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मेरा सारा जिस्म नासूर हो रहा था लेकिन दिल के फफोले उससे कहीं ज़्यादा जान लेवा थे। सारा दिल फफोलों से भर उठा था। अच्छी भावनाओं के लिए भी जगह बाक़ी न रही थी। उस वक़्त मैं किसी अंधे को कुएँ में गिरते देखती तो मुझे हंसी आती, किसी यतीम का दर्दनाक रोना सुनती तो उसको मुँह चिढ़ाती। दिल की हालत में एक ज़बर्दस्त इन्क़लाब हो गया था। मुझे गुस्सा न था, गम न था, मौत की आरजू न थी, यहाँ तक कि बदला लेने की भावना न थी। उस इन्तहाई ज़िल्लत ने बदला लेने की इच्छा को भी ख़त्म कर दिया था। हालांकि मैं चाहती तो क़ानूनन सईद को शिकंजे में ला सकती थी, उसे दाने-दाने के लिए तरसा सकती थी लेकिन यह बेइज्ज़ती, यह बेआबरुई, यह पामाली बदले के ख़याल के दायरे से बाहर थी। बस, सिर्फ़ एक चेतना बाकी थी और वह अपमान की चेतना थी। मैं हमेशा के लिए ज़लील हो गयी। क्या यह दाग़ किसी तरह मिट सकता था? हरगिज नहीं। हाँ, वह छिपाया जा सकता था और उसकी एक ही सूरत थी कि जिल्लत के काले गड्डे में गिर पड़ूँ ताकि सारे कपड़ों की सियाही इस सियाह दाग को छिपा दे। क्या इस घर से बियाबान अच्छा नहीं, जिसकी दीवारें टूटकर ढेर हो गयी हों? इस किश्ती से क्या पानी की सतह अच्छी नहीं जिसके पेंदे में एक बड़ा छेद हो गया हो? इस हालत में यही दलील मुझ पर छा गयी। मैंने अपनी तबाही को और भी मुकम्मल, अपनी ज़िल्लत को और भी गहरा, अपने काले चेहरे को और भी काला करने का पक्का इरादा कर लिया। रात-भर मैं वहीं पड़ी कभी दर्द से कराहती और कभी इन्हीं खयालात में उलझती रही। यह घातक इरादा हर क्षण मज़बूत से और भी मज़बूत होता जाता था। घर में किसी ने मेरी ख़बर न ली। पौ फटते ही मैं बाग़ीचे से बाहर निकल आयी, मालूम नहीं मेरी लाज-शर्म कहाँ गायब हो गयी थी। जो शख्स समुन्दर में ग़ोते खा चुका हो उसे ताल-तलैयों का क्या डर? मैं जो दरोदीवार से शर्माती थी, इस वक़्त शहर की गलियों में बेधड़क चली जा रही थी– और कहाँ, वहीं जहाँ ज़िल्लत की कद्र है, जहाँ किसी पर कोई हंसने वाला नहीं, जहाँ बदनामी का बाज़ार सजा हुआ है, जहाँ हया बिकती है और शर्म लुटती है!

इसके तीसरे दिन रूप की मंडी के एक अच्छे हिस्से में एक ऊंचे कोठे पर बैठी हुई मैं उस मण्डी की सैर कर रही थी। शाम का वक़्त था, नीचे सड़क पर आदमियों की ऐसी भीड़ थी कि कंधे से कंधा छिलता था। आज सावन का मेला था, लोग साफ़-सुथरे कपड़े पहने क़तार की क़तार दरिया की तरफ़ जा रहे थे। हमारे बाज़ार की बेशक़ीमती जिन्स भी आज नदी के किनारे सजी हुई थी। कहीं हसीनों के झूले थे, कहीं सावन की गीत, लेकिन मुझे इस बाज़ार की सैर दरिया के किनारे से ज़्यादा पुरलुत्फ मालूम होती थी, ऐसा मालूम होता है कि शहर की और सब सड़कें बन्द हो गयी हैं, सिर्फ़ यही तंग गली खुली हुई है और सब की निगाहें कोठों ही की तरफ़ लगी थीं, गोया वह ज़मीन पर नहीं चल रहें हैं, हवा में उड़ना चाहते हैं। हाँ, पढ़े-लिखे लोगों को मैंने इतना बेधड़क नहीं पाया। वह भी घूरते थे मगर कनखियों से। अधेड़ उम्र के लोग सबसे ज़्यादा बेधड़क मालूम होते थे। शायद उनकी मंशा जवानी के जोश को ज़ाहिर करना था। बाज़ार क्या था एक लम्बा-चौड़ा थियेटर था, लोग हंसी-दिल्लगी करते थे, लुत्फ उठाने के लिए नहीं, हसीनों को सुनाने के लिए। मुँह दूसरी तरफ़ था, निगाह किसी दूसरी तरफ़। बस, भाँड़ों और नक्कालों की मजलिस थी।

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