लोगों की राय

कहानी संग्रह >> गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

317 पाठक हैं

प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


चन्द नामी शायरों ने महाराज की शान में इसी मौक़े के लिए क़सीदे कहे थे। मगर उपस्थित लोगों के चेहरों से उनके दिलों में जोश खाता हुआ संगीतप्रेम देखकर महाराज ने गाना शुरू करने का हुक्म दिया। तबले पर थाप पड़ी, साजिन्दों ने सुर मिलाया, नींद से झपकती हुई आँखें खुल गयीं और गाना शुरू हो गया।

उस शाही महफ़िल में रात भर मीठे-मीठे गानों की बौछार होती रही। पीलू और पिरच, देस और बिहाग के मदभरे झोंके चलते रहे। सुन्दरी नर्तकियों ने बारी-बारी से अपना कमाल दिखाया। किसी की नाज-भरी अदाएँ दिलों में खुब गयीं, किसी का थिरकना क़त्लेआम कर गया, किसी की रसीली तानों पर वाह-वाह मच गयी। ऐसी तबीयतें बहुत कम थीं जिन्होंने सच्चाई के साथ गाने का पवित्र आनन्द उठाया हो।

चार बजे होंगे जब श्यामा की बारी आयी तो उपस्थित लोग सम्हल बैठे। चाव के मारे लोग आगे खिसकने लगे। खुमारी से भरी हुई आँखें चौंक पड़ीं। वृन्दा महफ़िल में आयी और सर झुकाकर खड़ी हो गयी। उसे देखकर लोग हैरत में आ गये। उसके शरीर पर न आबदार गहने थे, न खुशरंग, भड़कीली पेशवाज़। वह सिर्फ़ एक गेरुए रंग की साड़ी पहने हुए थी। जिस तरह गुलाब की पंखुरी पर डूबते सूरज की सुनहरी किरन चमकती है, उसी तरह उसके गुलाबी होंठों पर मुस्कराहट झलकती थी। उसका आडम्बर से मुक्त सौंदर्य अपने प्राकृतिक वैभव की शान दिखा रहा था। असली सौन्दर्य बनाव-सिंगार का मोहताज नहीं होता। प्रकृति के दर्शन से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है वह सजे हुए बगीचों की सैर से मुमकिन नहीं। वृन्दा ने गाया—
सब दिन नाहीं बराबर जात।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book