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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


साल भर और गुज़रा। जब रबी की दूसरी फसल आयी तो सुनहरी बालों को खेतों में लहराते देखकर किसानों के दिल लहराने लगते थे। साल भर की परती ज़मीन ने सोना उगल दिया था औरतें खुश थीं कि अब के नये-नये गहने बनवायेंगे, मर्द खुश थे कि अच्छे-अच्छे बैल मोल लेंगे और दारोग़ा जी की खुशी का तो अन्त ही न था। ठाकुर साहब ने यह खुशखबरी सुनी तो देहात की सैर को चले। वही शानशौकत, वही लठैतों का रिसाला, वही गुंडों की फ़ौज! गाँववालों ने उनके आदर सत्कार की तैयारियाँ करनी शुरू कीं। मोटे-ताजे बकरों का एक पूरा गल्ला चौपाल के दरवाज़े पर बाँधा लकड़ी के अम्बार लगा दिये, दूध के हौज भर दिये। ठाकुर साहब गाँव की मेड़ पर पहुँचे तो पूरे एक सौ आदमी उनकी अगवानी के लिए हाथ बाँधे खड़े थे। लेकिन पहली चीज़ जिसकी फरमाइश हुई वह लेमनेड और बर्फ़ था। असामियों के हाथों के तोते उड़ गये। यह पानी की बोतल इस वक़्त वहाँ अम़ृत के दामों बिक सकती थी। मगर बेचारे देहाती अमीरों के चोंचले क्या जानें। मुजरिमों की तरह सिर झुकाये भौंचक खड़े थे। चेहरे पर झेंप और शर्म थी। दिलों में धड़कन और भय। ईश्वर! बात बिगड़ गई है, अब तुम्हीं सम्हालो।

बर्फ़ की ठण्डक न मिली तो ठाकुर साहब की प्यास की आग और भी तेज हुई, गुस्सा भड़क उठा, कड़ककर बोले—मैं शैतान नहीं हूँ कि बकरों के ख़ून से प्यास बुझाऊँ, मुझे ठंडा बर्फ चाहिए और यह प्यास तुम्हारे और तुम्हारी औरतों के आँसुओं से ही बुझेगी। एहसानफ़रामोश, नीच मैंने तुम्हें जमीन दी, मकान दिये और हैसियत दी और इसके बदले में तुम ये दे रहे हो कि मैं खड़ा पानी को तरसता हूँ! तुम इस काबिल नहीं हो कि तुम्हारे साथ कोई रियायत की जाय। कल शाम तक मैं तुममें से किसी आदमी की सूरत इस गाँव में न देखूँ वर्ना प्रलय हो जायेगा। तुम जानते हो कि मुझे अपना हुक्म दुहराने की आदत नहीं है। रात तुम्हारी है, जो कुछ ले जा सको, ले जाओ। लेकिन शाम को मैं किसी की मनहूस सूरत न देखूँ। यह रोना और चीख़ना फिजूल है, मेरा दिल पत्थर का है और कलेजा लोहे का, आँसुओं से नहीं पसीजता।

और ऐसा ही हुआ। दूसरी रात को सारे गाँव में कोई दिया जलानेवाला तक न रहा। फूलता-फलता गाँव भूत का डेरा बन गया।

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