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गुप्त धन-1 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :447
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8461
आईएसबीएन :978-1-61301-158

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


शाम के वक़्त सेठ मक्खनलाल के सुंदर बगीचे में सूरज की पीली किरणें मुरझाये हुए फूलों से गले मिलकर विदा हो रही थीं। बाग के बीच में एक पक्का कुआँ था और एक मौलसिरी का पेड़। कुएँ के मुँह पर अँधेरे की नीली-सी नकाब थी, पेड़ के सिर पर रोशनी की सुनहरी चादर। इसी पेड़ के नीचे एक बुढ़िया मालिन बैठी हुई फूलों के हार और गजरे गूँध रही थी। इतने में एक नौजवान थका-माँदा कुएँ पर आया और लोटे से पानी भरकर पीने के बाद जगत पर बैठ गया। मालिन ने पूछा—कहाँ जाओगे? मगनदास ने जवाब दिया कि जाना तो था बहुत दूर, मगर यहीं रात हो गई। यहाँ कहीं ठहरने का ठिकाना मिल जाएगा?

मालिन—चले जाओ सेठ जी के धर्मशाले में, बड़े आराम की जगह है।

मगनदास—धर्मशाले में तो मुझे ठहरने का कभी संयोग नहीं हुआ। कोई हर्ज न हो तो यहीं पड़ रहूँ। यहाँ कोई रात को रहता है?

मालिन—भाई, मैं यहाँ ठहरने को न कहूँगी। यह मिली हुई बाई जी की बैठक है। झरोखे में बैठकर सैर किया करती हैं। कहीं देख-भाल लें तो मेरे सिर में एक बाल भी न रहे।

मगनदास—बाई जी कौन?

मालिन—यही सेठ जी की बेटी। इन्दिरा बाई।

मगनदास—यह गजरे उन्हीं के लिए बना रही हो क्या?

मालिन—हाँ, और सेठ जी के यहाँ है ही कौन? फूलों के गहने बहुत पसन्द करती हैं।

मगनदास—शौक़ीन औरत मालूम होती है?

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