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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


मगर नहीं, इन्होंने मुझसे चाल चली है, तो मैं भी इनसे वही चाल चलूँगा। कह दूँगा, अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जायेगी, तो मैं शहादत दूँगा, वरना साफ कह दूँगा, इस मामले से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। नहीं तो पीछे से किसी छोटे-मोटे थाने में नायब दारोग़ा बनाकर भेज दें और वहाँ सड़ा करूँ। लूँगा इन्सपेक्टरी और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए। वह चला कि इसी वक्त दारोगा से कह दूँ; लेकिन फिर रुक गया। एक बार जालपा से मिलने के लिए उसके प्राण तड़प रहे थे। उसके प्रति इतना अनुराग, इतनी श्रद्धा उसे कभी न हुई थी, मानो वह कोई दैवी-शक्ति हो जिसे देवताओं नें उसकी रक्षा के लिए भेजा हो।

दस बज गये थे। रमानाथ ने बिजली गुल कर दी और बरामदे में आकर जोर से किवाड़ बन्द कर दिये, जिसमें पहरेवाले सिपाही को मालूम हो, अन्दर से किवाड़ बन्द करके सो रहे हैं। वह अँधेरे बरामदे में एक मिनट खड़ा रहा। तब आहिस्ता से उतरा और काँटेदार फेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊँ? शायद अभी जालपा बगीचे में हो। देवीदीन ज़रूर उसके साथ होगा। केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था। उसे फाँद जाना असम्भव था। उसने तारों के बीच से निकल जाने का निश्चय किया। अपने सब कपड़े समेट लिए और काँटों को बचाता हुआ सिर और कंधे को तार के बीच में डाला; पर न जाने कैसे कपड़े फँस गये। उसने हाथ से कपड़ों को छुड़ाना चाहा, तो आस्तीन काँटों में फँस गयी। धोती भी उलझी हुई थी। बेचारा बड़े संकट में पड़ा। न इस पार जा सकता था, न उस पार। ज़रा भी असावधानी हुई और काँटे उसके देंह में चुभ जायेंगे।

मगर इस वक्त उसे कपड़ों की परवा न थी। उसने गर्दन और आगे बढ़ायी और कपड़ों में लम्बा चीरा लगता हुआ उस पार निकल गया। सारे कपड़े तार-तार हो गये, पीठ में भी कुछ खरोंचे लगे; पर इस समय कोई बन्दूक का निशाना बाँधकर भी उसके सामने खड़ा हो जाता, तो भी वह पीछे न हटता। फटे हुए कुर्ते को उसने वहीं फेंक दिया; गले की चादर फट जाने पर भी काम दे सकती थी, उसे उसने ओढ़ लिया, धोती समेट ली और बगीचे में घूमने लगा। सन्नाटा था। शायद रखवाला खटिक खाना खाने गया हुआ था। उसने दो-तीन बार धीरे-धीरे जालपा का नाम लेकर पुकारा भी। किसी की आहट न मिली; पर निराशा होने पर भी मोह ने उसका गला न छोड़ा। उसने एक पेड़ के नीचे जाकर देखा। समझ गया, जालपा चली गयी। वह उन्हीं पैरों देवीदीन के घर की और चला। उसे जरा भी शोक न था। बला से किसी को मालूम हो जाय कि मैं बँगले से निकल आया हूँ, पुलिस मेरा कर ही क्या सकती है। मैं कैदी नहीं हूँ, गुलामी नहीं लिखायी है।

आधी रात हो गयी थी। देवीदीन भी आध घण्टे पहले लौटा था और खाना खाने जा रहा था कि एक नंगे-धड़ंगे आदमी को देखकर चौंक पड़ा। रमा ने चादर सिर पर बाँध ली थी और देवीदीन को डराना चाहता था।

देवीदीन ने सशंक होकर कहा–कौन है?

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