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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा–तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?

माँ ने मुस्कराकर कहा–तेरे लिए तेरी ससुराल से आयेगा।

यह हार छः सौ में बना था। इतने रुपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बड़े ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आयी थी। जीवन में फिर कभी इतने रुपये आयेंगे, इसमें उन्हें सन्देह था।

जालपा लजाकर भाग गयी; पर यह शब्द उसके हृदय में अंकित हो गये। ससुराल उसके लिए अब उतनी भयंकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आयेगा, वहाँ के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे। तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहाँ से आयेगी।

लेकिन ससुराल से न आये तो !–उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह हो चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल से भी न आया तो? उसने सोचा–तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।

इस तरह हँसते-खेलते सात वर्ष कट गये। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिर-संचित अभिलाषा पूरी होगी।

[३]

मुंशी दीनदयाल की जान-पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बड़े ही सज्जन और सहृदय। कचहरी में नौकरी करते थे और पचास रुपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते तो, हजारों वसूल करते; पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। कुछ दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था–यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों; पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए की वह अपनी आँखों से इसके कुफल देख चुके थे।
किसी को जेल जाते देखा था, किसी को सन्तान से हाथ धोते, किसी को कुव्यसनों के पंजें में फँसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो। उनकी यह दृढ़ धारणा हो गयी थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी नहीं भूलते।

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