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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दारोगा–मुझे पाँच के बदले साढ़े छः सौ मिल रहे हैं, क्यों छोड़ूँ। तुम्हारी गिरफ़्तारी का इनाम मेरे किसी दूसरे भाई को मिल जाय, तो क्या बुराई है।

रमा–जब मुझे चक्की पीसनी है, तो जितनी जल्दी पीस लूँ उतना ही अच्छा। मैंने समझा था, मैं पुलिस की नज़रों से बचकर रह सकता हूँ। अब मालूम हुआ कि यह बेकली और आठों पहर पकड़ लिये जाने का खौफ जेल से कम जानलेवा नहीं।

दारोगा को एकाएक जैसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। मेज के दराज से एक मिसल निकाली, उसके पन्ने इधर-उधर उलटे, तब नम्रता से बोले–अगर मैं कोई तरकीब बतलाऊँ कि देवीदीन के रुपये भी बच जायँ और तुम्हारे ऊपर भी हर्फ़ न आये तो कैसा?

रमा ने अविश्वास के भाव से कहा–ऐसी कोई तरकीब है, मुझे तो आशा नहीं।

दारोगा–अजी साईं के सौ खेल हैं। इसका इन्तजा़म मैं कर सकता हूँ। आपको महज एक मुकदमे में शहादत देनी पड़ेगी।

रमा–झूठी शहादत होगी?

दारोग़ा–नहीं, बिलकुल सच्ची। बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे। म्युनिसिपैलिटी के पंजे से तो छूट ही जाओगे, शायद सरकार परवरिश भी करे। यों अगर चालान हो गया तो पाँच साल से कम की सज़ा न होगी। मान लो इस वक्त देवी तुम्हें बचा भी ले, तो बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी। जिन्दगी खराब हो जायेगी। तुम अपना नफा़-नुकसान खुद समझ लो। मैं ज़बरदस्ती नहीं करता।

दारोग़ाजी ने डकैती का वृत्तान्त कह सुनाया। रमा ऐसे कई मुकदमें समाचार पत्रों में पढ़ चुका था। संशय के भाव से बोला–तो मुझे मुखबिर बनना पड़ेगा और यह कहना पड़ेगा कि मैं भी इन डकैतियों में शरीक था। यह तो झूठी शहादत हुई।

दारोग़ा–मुआमला बिलकुल सच्चा है। आप बेगुनाहों को न फँसायेंगे। वही लोग जेल जायँगे जिन्हें जाना चाहिए। फिर झूठ कहाँ रहा? डाकुओं के डर से यहाँ के लोग शहादत देने पर राजी नहीं होते। बस और कोई बात नहीं। यह मैं मानता हूँ कि आपको कुछ झूठ बोलना पड़ेगा; लेकिन आपकी जिन्दगी बनी जा रही है, इसके लिहाज़ से तो इतना झूठ कोई चीज नहीं। खूब सोच लीजिए। शाम तक जवाब दीजियेगा।

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