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उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रतन ने प्रफुल्ल मन से कहा–तुम्हारे ही तो हैं बहन, किसी गैर के तो नहीं हैं।
जालपा विचारों में डूबी हुई जमीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न दिया। रतन ने शिकवे के अन्दाज से कहा–‘‘तुमने कुछ जवाब नहीं दिया बहन, मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे खिंची क्यों रहती हो? मैं चाहती हूँ, हममें और तुममें ज़रा भी अन्तर न रहे, लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो। अगर मान लो मेरे सौ-पचास रुपये तुम्हीं से ख़र्च हो गये, तो क्या हुआ। बहनों में तो ऐसा कौड़ी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता।’
जालपा ने गम्भीर होकर कहा–कुछ कहूँ, बुरा तो न मानोगी?
‘बुरा मानने की बात होगी तो ज़रूर बुरा मानूँगी।’
‘मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। सम्भव है, तुम्हें बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो, तुम्हारे इस बहनापे में दया का भाव मिला हुआ है या नहीं? तुम मेरी गरीबी पर तरस खाकर...’
रतन ने लपककर दोनों हाथों से उसका मुँह बन्द कर दिया और बोली–बस अब रहने दो। तुम चाहे तो खयाल करो; मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूँ, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निःसंकोच होकर तुमसे कह दूँगी, बहन मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूँ।
जालपा ने उसी निर्ममता से कहा–इस समय तुम ऐसा कह सकती हो। तुम जानती हो कि किसी दूसरे समय तुम पूरियों या रोटियों के बदले मेवे खिला सकती हो; लेकिन ईश्वर न करे कोई ऐसा समय आये जब तुम्हारे घर में रोटी का टुकड़ा न हो, तो शायद तुम इतनी निःसंकोच न हो सको।
रतन ने दृढ़ता से कहा–मुझे उस दशा में भी तुमसे माँगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे, तो समझ लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार बन्द कर रही हो। मैंने मन में समझा था, तुम्हारे साथ जीवन के दिन काट दूँगी; लेकिन तुम अभी से चेतावनी दिये देती हो। अभागों को प्रेम की भिक्षा भी नहीं मिलती।
यह कहते-कहते रतन की आँखें सजल हो गयीं। जालपा अपने को दुःखिनी समझ रही थी और दुःखी जनों को निर्मम सत्य कहने की स्वाधीनता होती है; लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं अधिक विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है, उसके आते ही जालपा के ये बुरे दिन भूल जायेंगे। उसकी आशाओं का सूर्य फिर उदय होगा। उसकी इच्छाएँ फिर फूले-फलेंगी। भविष्य अपनी सारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ उसके सामने था–विशाल, उज्ज्वल, रमणीक। रतन का भविष्य क्या था? कुछ नहीं, शून्य अन्धकार !
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