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दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8424
आईएसबीएन :0

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समाज और व्यवस्था के प्रति आक्रोश


वीरेन: अब कैसा महसूस कर रही हैं, आप ? फ़िक्र की कोई बात नहीं है। आप अच्छी हो जायेंगी। बड़े ताज्जुब की बात है, आपके घर से कोई अटेण्डेण्ट नहीं आया।
मधु: घर ! मेरा कोई नहीं है, डॉक्टर। कोई नहीं।
वीरेन: प्लीज टेक रेस्ट। डोण्ट एक्ज़र्ट। दो-तीन दिन में ठीक हो जायेंगी। फिर छुट्टी मिल जायेगी।
मधु: उसके बाद.....
वीरेन: इस वक़्त कुछ मत सोचो। तुम्हारे लिए रेस्ट जरूरी है। शायद घर से झगड़ा करके निकली हो। किसी बात पर लड़ ली हो घरवालों से।
मधु: मेरी लड़ाई घरवालों से नहीं है। मेरी लड़ाई ज़िन्दा रहने की कोशिश की लड़ाई है।
वीरेन: सभी संघर्ष करते हैं। जिन्दा रहने के लिए सभी लड़ते हैं, वक़्त से, हालात से, विरोध से।
मधु: उनके और मेरे लड़ने में फ़र्क़ है, डॉक्टर !
वीरेन: कैसा फ़र्क़ ?

मधु: मेरी लड़ाई अकेले आदमी की अकेली लड़ाई है।
वीरेन: इससे क्या होता है ? आज हर आदमी अपने होने और जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहा है। तुम्हारी ही तरह। अकेले आदमी की अकेली लड़ाई। जिन्दा रहना बहुत जरूरी है। मैं शाम को फिर राउण्ड पर आऊँगा। डौण्ट वरी। तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी।

(प्रकाश लुप्त होता है। अन्तरालीय संगीत। मंच-व्यवस्था के थोड़े परिवर्तन के साथ भाग ‘ग’ में प्रकाश आता है। रात के समय का परिचायक प्रकाश और हल्का पार्श्वसंगीत। मधु और वीरेन एक दूसरे के सामने कुरसियों पर बैठे हैं।)

मधु: कितनी मिलती-जुलती हैं हमारी बातें, डॉक्टर !
वीरेन: उसके बाद मेरी पत्नी शोभा यह घर छोड़कर अपने माँ-बाप के पास चली गयी। मैंने उसे बहुत समझाया। लेकिन वह नहीं मानी। अब वह डाइवोर्स चाहती है। इसके लिए कोर्ट में उसने दरख्वास्त दी है। मधु, ऐसा लगता है, हम बड़ी गलतफहमी में जीते हैं। अपने बारे में, दूसरों के बारे में, दुनिया-भर के बारे में। और एक छोटी-सी बात जिसकी अहमियत बहुत मामूली होती है, कभी-कभी घरों को तबाह कर देती है। ताल्लुकात खत्म करा देती है। संबंध इस तरह टूट जाते हैं जैसे एक-दूसरे से परिचित न हों। जब से शोभा इस घर से गयी है, मैंने घर के काम-काज के लिए एक सरवेण्ट रख ली है। पर इस बँगले में बेहद अकेलापन महसूस होता है। आज तुम्हारा होना अच्छा लग रहा है। विवाह के बाद मैं और शोभा रात को इसी जगह बैठ घण्टों बातें किया करते थे। जिस कुरसी पर तुम अभी बैठी हो, शोभा ठीक यहीं बैठा करती थी। मधु....
मधु: जी !

वीरेन: क्या यह सम्भव नहीं है कि चोट खाने के बाद हम दोनों मिलकर एक नये जीवन की शुरूआत करें ?
मधु: शुरूआत ?
वीरेन: यह अकेलापन अब बहुत खलने लगा है।
मधु: एक और कोशिश।
वीरेन: एक नयी शुरूआत।
मधु: वीरेन।
वीरेन: हाँ, मधु। यह रात......
मधु: रात !
वीरेन: चाँदनी !
मधु: चाँदनी !
वीरेन: रातरानी की गन्ध।
मधु: गन्ध !
वीरेन: तुम्हारे शरीर की खुशबू।

(दोनों एक-दूसरे के निकट आकर फ्रीज हो जाते हैं। प्रकाश समाप्त होता है। क्षणिक अन्तराल के बाद प्रकाश फिर भाग ‘ग’ को आलोकित करता है।)

मधु: आज लौटने में तुमने बड़ी देर कर दी।
वीरेन: हाँ, देर हो गयी। देर हो जाने से अकसर कई काम बिगड़ जाते हैं।
मधु: कुछ चिन्तित दिखाई दे रहे हैं। कोई बात है ?
वीरेन: क्या बताऊँ, अजीब परेशानी है।
मधु: मुझे बताओ, शायद मैं कोई काम आ सकूँ।
वीरेन: तुम ?
मधु: क्यों ? तुम यहाँ आराम से बैठो। मैं चाय लाती हूँ।
वीरेन: सुनो।
मधु: क्या बात है ?
वीरेन: तुम चाय ले आओ।
मधु: आज इतने परेशान क्यों हो ? तुम तो बड़े साहसी हो।
इसी साहस से तुमने जीवन के प्रति नये सिरे से सोचने की हिम्मत दी है। जिन्दा रहने की चाह है। आज किसी छोटी-सी बात को लेकर तुम खुद परेशान हो उठे हो।
वीरेन: तुम चाय लाओ। (मधु के प्रस्थान के बाद स्वगत) छोटी-छोटी बातें ही मिलकर बड़ी बात का रूप धार लेती हैं। कैसी अजीब समस्या है। इसे यह सब कैसे बताऊँ ? क्या इससे पहले तुम मेरे जीवन में नहीं आ सकती थीं ? बहुत देर कर दी तुमने।

मधु: (चाय की ट्रे लिये प्रवेश करती है) देर कहाँ कर दी। बस किचन में गयी थी और आ गयी। यह लो, चाय का एक गर्म प्याला पियो। तबीयत सँभल जायेगी।
वीरेन: बैठो, मधु ! मुझे तुमसे एक जरूरी बात करनी है।
मधु: कहो।
वीरेन: सोचता हूँ, तुम्हें सुनकर धक्का न लगे।
मधु: तुम कहो तो।
वीरेन: शोभा ने डाइवोर्स-एप्लीकेशन वापस ले ली है। वह किसी भी दिन यहाँ आ सकती है। तुम ऐसा करो, यो रुपये लो......

मधु: रुपये.......मुझे रुपये नहीं, घर चाहिए वीरेन......घर.......!
वीरेन: मैं तुम्हें घर पहुँचा रहा हूँ। तुम तैयार होकर गाड़ी में बैठो। मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। मैं तुम्हें धोखा नहीं दूँगा।
मधु: कहाँ चलते हो ?
वीरेन: होटल रूपविलास। मैंने एक कमरा ले लिया है, तुम्हारे लिए। दो महाने का किराया भी दे दिया है। वहाँ तुम्हें किसी बात की तकलीफ़ नहीं होगी। कुछ दिन तुम वहाँ रहो। इस बीच हम कोई और हल ढूँढ़ लेंगे। मैं बेहद शर्मिन्दा हूँ, मधु। हालात ने कुछ इस तरह करवट ली है कि फ़िलहाल कोई और रास्ता नहीं सूझ रहा है।

(क्षणिक मौन। प्रकाश लुप्त हो जाता है। अचानक सारा मंच नीली रोशनी से आलोकित होता है। मंच के बीचोंबीच एक सलीब। उसके पास की लकड़ी के तखतों से बना चौराहे का परिचायक निशान। सलीब के नीचे मधु हथेली पर ठोढ़ी रखे बैठी दर्शकों की ओर देख रही है। पार्श्व से मधु का स्वर सुनाई देता है। बीच-बीच में सड़क का शोर और कार, स्कूटर आदि के चलने की आवाज़।)

(मधु का स्वर)

ओह भगवान् ! ये मजबूरियाँ। यह भीड़। सड़क पर सवारी तेजी से गुज़र जाती है। आदमी अन्धे की तरह आँखें झपकाता रह जाता है। मैंने पहचान लिया, यह तुम थे, बिहारी ! और वीरेन, तुम भी ! मम्मी-डैडी, सब छोड़कर चले गये। हलक़ सूख गया। हलक़ सूख गया है। सामने प्याऊँ पर प्यासों की यह क़तार !.........वहाँ बस स्टॉप पर वह लड़का उस लड़की को छेड़ रहा है !.....और उस भीड़ में......वहाँ चौराहे पर अन्धा बूढ़ा हाथ फैलाये खड़ा है।.........अपना-अपना दर्द। बहुत थक गयी हूँ।.....टूट गयी हूँ।
(मधु सिर झुकाकर सलीब के नीचे बैठ जाती है।)

पार्श्वध्वनियाँ: ऐक्सीडेण्ट ! कोई लड़की मर गयी ! सुना है, बहुत पी रखी थी। नींद की गोलियाँ खा ली थीं। कौन थी ? लोग देखकर गाड़ी नहीं चलाते। चलो भाई रास्ता दो !.......उफ़, कितनी जवान मौत हुई है ! ख़ून में लथपथ लाश !
(अचानक पार्श्व से प्रार्थना के स्वर सुनाई देते हैं।) (प्रकाश सिकुड़कर मधु पर केन्द्रित हो जाता है और धीरे-धीरे उसे ढक लेता है।)



[समाप्त]




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