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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

तीसरा बयान


दूसरे दिन मामूली ढंग पर दरबार लगा और दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया–

‘‘कई दिन बीत गये, मगर मुझे गिरिजाकुमार का कुछ पता न लगा और न इस बात का ही खयाल हुआ कि वह भूतनाथ के कब्जे में चला गया होगा। हाँ, जब मैं गिरिजाकुमार की खोज में सूरत बदलकर घूम रहा था, तब इस बात का पता जरूर लग गया कि भूतनाथ मेरे पीछे पड़ा हुआ है और दारोगा से मिलकर मुझे गिरफ्तार करा देने का बन्दोबस्त कर रहा है।

‘‘उस मामले के कई सप्ताह बाद एक दिन आधी रात के समय भूतनाथ पागलों की-सी हालत में मेरे घर आया और उसने मेरा लड़का समझ कर खुद अपने हाथ से अपने लड़के का खून कर दिया, जिसका रंज इस जिन्दगी में उसके दिल से नहीं निकल सकता और जिसका खुलासा हाल वह स्वयं अपनी जीवनी में बयान करेगा। इसी के थोड़े दिन बाद भूतनाथ की बदौलत मैं दारोगा के कब्जे में जा फँसा।

‘‘जब तक मैं स्वतन्त्र रहा, मुझे गिरिजाकुमार का हाल कुछ भी मालूम न हुआ, जब मैं पराधीन होकर कैदखाने में गया और वहाँ गिरिजाकुमार से जिसे भूतनाथ ने दारोगा के सुपुर्द कर दिया था, मुलाकात हुई, तब गिरिजाकुमार की जुबानी सब हाल मालूम हुआ।

‘‘भूतनाथ के कब्जे में पड़ जाने के बाद जब गिरिजाकुमार होश में आया तो उसने अपने को एक पत्थर के खम्भे के साथ बँधा हुआ पाया, जो किसी सुन्दर, सजे हुए कमरे के बाहरी दालान में था। वह चौकन्ना होकर चारों तरफ देखने और गौर करने लगा, मगर इस बात का निश्चय न कर सका कि यह मकान किसका है, हाँ, शक होता था कि यह दारोगा का मकान होगा, क्योंकि अपने सामने भूतनाथ के साथ-ही-साथ बिहारीसिंह और दारोगा साहब को भी बैठे हुए देखा।

‘‘गिरिजाकुमार, दारोगा, बिहारीसिंह और भूतनाथ में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं और गिरिजाकुमार ने भी बातों की उलझन में उन्हें ऐसा फँसाया कि किसी तरह असल भेद का वे लोग पता न लगा सके, मगर फिर भी गिरिजाकुमार को उनके हाथों से छुट्टी न मिली और वह तिलिस्म के अन्दरवाले कैदखाने में ठूँस दिया गया। हाँ, उसे इस बात का विश्वास हो गया कि वास्तव में राजा गोपालसिंह मरे नहीं, बल्कि कैद कर लिए गये हैं।

‘‘राजा गोपालसिंह के जीते रहने का हाल यद्यपि गिरिजाकुमार को मालूम हो गया, मगर इसका नतीजा कुछ भी न निकला, क्योंकि इस बात का पता लगाने के साथ ही वह गिरफ्तार हो गया और यह हाल किसी से भी बयान न कर सका। अगर हम लोगों में से किसी भी को भी मालूम हो जाता कि वास्तव में राजा गोपालसिंह जीते हैं और कैद में हैं तो हम लोग उन्हें किसी-न-किसी तरह जरूर छुड़ा ही लेते, मगर अफसोस!!

‘‘बहुत दिनों तक खोजने और पता लगाने पर भी जब गिरिजाकुमार का हाल मालूम न हुआ, तब लाचार होकर मैं इन्द्रदेव के पास गया और सब हाल बयान करने के बाद मैंने इनसे सलाह पूँछी कि अब क्या करना चाहिए। बहुत गौर करने के बाद इन्द्रदेव ने कहा कि मेरा दिल यही कहता है कि गिरिजाकुमार गिरफ्तार हो गया और इस समय दारोगा के कब्जे में है। इसका पता इस तरह लग सकता है कि तुम किसी तरह दारोगा को गिरफ्तार करके ले आओ और उसकी सूरत बनकर दस-पाँच दिन उसके मकान में रहो, इसी बीच में उसके नौकरों की जुबानी कुछ-न-कुछ हाल गिरिजाकुमार का जरूर मालूम हो जायगा, मगर इसमें कुछ शक नहीं कि दारोगा को गिरफ्तार करना जरा मुश्किल है।

‘‘इन्द्रदेव की राय मुझे बहुत पसन्द आयी और मैं दारोगा को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा। इन्द्रदेव से बिदा होकर मैं अर्जुनसिंह के घर गया और जोकुछ सलाह हुई थी, बयान किया। इन्होंने भी यह राय पसन्द की और इस काम के लिए मेरे साथ जमानिया चलने को तैयार हो गये, अस्तु, हम दोनों भेष बदलकर घर से निकले और जमानिया की तरफ रवाना हुए।

‘‘सन्ध्या हुआ ही चाहती थी, जब हम दोनों आदमी जमानिया शहर के पास पहुँचे, उस समय सामने से दारोगा का एक सिपाही आता हुआ दिखायी पड़ा। हम लोग बहुत खुश हुए और अर्जुनसिंह ने कहा–‘‘लो भाई सगुन तो बहुत अच्छा मिला कि शिकार सामने आ पहुँचा और चारों तरफ सन्नाटा भी छाया हुआ है, इस समय इसे जरूर गिरफ्तार करना चाहिए, इसके बाद इसी की सूरत बनकर दारोगा के पास पहुँचना और उसे धोखा देना चाहिए।’’

‘‘हम दो आदमी थे और सिपाही अकेला था, ऐसी अवस्था में किसी तरह की चालबाजी की जरूरत न थी, केवल तकरार कर लेना ही काफी था। हुज्जत और तकरार करने के लिए किसी मसाले की जरूरत नहीं पड़ती, जरा छेड़ देना ही काफी होता है। पास आने पर अर्जुनसिंह ने जान-बूझकर उसे धक्का दे दिया और वह भी दारोगा के घमण्ड पर फूला हुआ हम लोगों से उलझ पड़ा। आखिर हम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके वहाँ से दूर एक सन्नाटे जंगल में ले जाकर उसकी तलाशी लेने लगे। उसके पास से भूतनाथ के नाम की एक चीठी निकाली जो खास दारोगा के हाथ की लिखी हुई थी और जिसमें यह लिखा हुआ था–

‘‘प्यारे भूतनाथ,

कई दिनों से हम तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं। ठीक-ठीक बताओ कि कब मुलाकात होगी और कब तक काम हो जाने की उम्मीद है।’’

‘‘इस चीठी को पढ़कर हम दोनों ने सलाह की कि इस आदमी को छोड़ देना चाहिए और इसके पीछे चलकर देखना चाहिए कि भूतनाथ कहाँ रहता है। उसका पता लग जाने से बहुत काम निकलेगा।

हम दोनों ने वह चीटी फिर उस आदमी की जेब में रख दी और उसे उठाकर पुनः सड़क पर लाकर डाल दिया, जहाँ से उसे गिरफ्तार किया था। इसके बाद लखलखा सुँघाकर, हम दोनों दूर हटकर आड़ में खड़े हो गये और देखने लगे कि यह होश में आकर क्या करता है। उस समय रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी।

होश में आने के बाद वह आदमी ताज्जुब और तरद्दुद में थोड़ी देर इधर-उधर घूमता रहा और इसके बाद आगे की तरफ चल पड़ा। हम लोग भी आड़ देते हुए उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

आसमान पर सुबह की सुफेदी फैला ही चाहती थी, जब हम लोग एक घने और सुहावने जंगल में पहुँचे। थोड़ी देर तक चलकर वह आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया। मालूम होता था कि थक गया है और कुछ देर तक सुस्ताना चाहता है, मगर ऐसा न था। लाचार हम दोनों भी उसके पास ही आड़ देकर बैठ गये और उसी समय पेड़ों की आड़ में से कई आदमियों ने निकलकर हम दोनों को घेर लिया। उन सभों के हाथ में नंगी तलवारें और चेहरे पर नकाबें पड़ी हुई थीं।

बिना लड़े-भिड़े ही गिरफ्तार होकर दुःख भोगना हम लोगों को मंजूर न था। अस्तु, फुर्ती से तलवार खींचकर उन लोगों के मुकाबिले में खड़े हो गये। उस समय एक ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और मेरे पास आकर खड़ा हो गया। असल में वह भूतनाथ था, जिसका चेहरा सुबह की सुफेदी में बहुत साफ दिखायी दे रहा था और मालूम होता था कि वह हम दोनों को देखकर मुस्कुरा रहा है।

भूतनाथ की सूरत देखते ही हम दोनों चौंक पड़े और मेरे मुँह से निकल पड़ा ‘भूतनाथ’। उसी समय मेरी निगाह उस आदमी पर जा पड़ी, जिसके पीछे-पीछे हम लोग वहाँ तक पहुँचे थे, देखा कि दो आदमी खड़े-खड़े उससे बातें कर रहे और हाथ के इशारे से मेरी तरफ कुछ बता रहे हैं।

मेरे मुँह से निकली हुई आवाज सुनकर भूतनाथ हँसा और बोला, हाँ, मैं वास्तव में भूतनाथ हूँ और आप लोग?’’

मैं : हम दोनों गरीब मुसाफिर हैं।

भूतनाथ : (हँसकर) यद्यपि आप लोगों की तरह भूतनाथ अपनी सूरत नहीं बदला करता मगर आप लोगों को पहिचानने में किसी तरह की भूल भी नहीं कर सकता।

मैं : अगर ऐसा है, तो आपही बताइए हम लोग कौन हैं!

भूतनाथ : आप लोग दलीपशाह और अर्जुनसिंह हैं, जिन्हें मैं कई दिनों से खोज रहा हूँ।

मैं : (ताज्जुब के साथ) ठीक है, जब आपने पहिचान ही लिया है तो मैं अपने को क्यों छिपाऊँ। मगर यह तो बताइए कि आप मुझे क्यों खोज रहे थे?

भूतनाथ : इसलिए कि मैं आपसे अपने कसूरों की माफी माँगूँ, आरजू मिन्नत और खुशामद के साथ अपने को आपके पैर पर डाल दूँ और कहूँ कि अगर जी में आवे तो अपने हाथ से मेरा सर काट लीजिए, मगर एक दफे कह दीजिए कि मैंने तेरा कसूर माफ किया।

मैं : बड़े ताज्जुब की बात है कि तुम्हारे दिल में यह बात पैदा हुई? क्या तुम्हारी आँखें खुल गयीं और मालूम हो गया कि तुम बहुत बुरे रास्ते पर चल रहे हो?

भूतनाथ : जी हाँ, मुझे मालूम हो गया और समझ गया कि मैं अपने पैर पर आप कुल्हाड़ी मार रहा हूँ।

मैं : बड़ी खुशी की बात है, अगर तुम सच्चे दिल से कह रहे हो।

भूतनाथ : बेशक मैं सच्चे दिल से कह रहा हूँ और अपने किये पर मुझे बड़ा अफसोस है।

मैं : भला कह तो जाओ कि तुम्हें किन-किन बातों का अफसोस है।

भूतनाथ : सो न पूछिए, सिर से पैर तक मैं कसूरवार हो रहा हूँ, एक दो हों तो कहा जाय, कहाँ तक गिनाऊँ?

मैं : खैर, न सही, अच्छा यह बताओ कि मुझसे किस कसूर की माफी चाहते हो? मेरा तो तुमने कुछ नहीं बिगाड़ा!

भूतनाथ : यह आपका बड़प्पन है, जो आप ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में मैंने आपका बहुत बड़ा कसूर किया है। और बातों के अतिरिक्त मैंने आपके सामने आपके लड़के को मार डाला है, यह कहाँ का...

मैं : (बात काटकर) नहीं नहीं, भूतनाथ! तुम भूलते हो अथवा तुम्हें मालूम नहीं है कि तुमने मेरे लड़के का खून नहीं किया, बल्कि अपने लड़के का खून किया है।

भूतनाथ : (चौंककर बेचैनी के साथ) यह आप क्या कह रहे हैं?

मैं : बेशक, मैं सच कह रहा हूँ। इस काम में तुमने धोखा खाया और अपने लड़के को अपने हाथ से मार डाला। उन दिनों तुम्हारी स्त्री बीमार होकर मेरे यहाँ आयी हुई थी और अपनी आँखों से तुम्हारी इस कार्रवाई को देख रही थी।

भूतनाथ : (घबराहट के साथ) तो क्या अब मेरी स्त्री आपही के मकान में है। नहीं वह मर गयी, क्योंकि बीमारी में वह इस दुःख को बर्दाश्त न कर सकी।

भूतनाथ : (कुछ देर चुप रहने और सोचने के बाद) नहीं नहीं, यह बात नहीं है। मालूम होता है कि तुमने मेरे लड़के को मार कर बदला चुकाया!

अर्जुन : नहीं नहीं, भूतनाथ, वास्तव में तुमने खुद अपने लड़के को मारा है और मैं इस बात को खूब जानता हूँ।

भूतनाथ : (भारी आवाज में) खैर, अगर मैंने अपने लड़के का खून किया है, तब भी दलीपशाह का कसूरवार हूँ। इसके अतिरिक्त और भी कई कसूर मुझसे हुए हैं, अच्छा हुआ कि मेरी स्त्री मर गयी, नहीं तो उसके सामने...

मैं : मगर हरनामसिंह और कमला को ईश्वर कुशलपूर्वक रक्खें।

भूतनाथ : (लम्बी साँस लेकर) बेशक भूतनाथ बड़ा ही बदनसीब है।

मैं : अब भी सम्हल जाओ तो कोई चिन्ता नहीं।

भूतनाथ : बेशक, मैं अपने को सम्हाल लूँगा और जोकुछ आप कहेंगे, वही करूँगा। अच्छा मुझे थोड़ी देर के लिए आज्ञा दीजिए, तो मैं अपने आदमी से दो-दो बातें कर आऊँ, जिसके पीछे आप यहाँ तक आये हैं।

इतना कहकर भूतनाथ उस आदमी के पास चला गया, मगर उसके साथी लोग हमें घेरे खड़े ही रहे। इस समय मेरे दिल का विचित्र ही हाल था। मैं निश्चय नहीं कर सकता था कि भूतनाथ की बातें किस ढंग पर जा रही हैं और इसका नतीजा क्या होगा, तथापि मैं इस बात के लिए तैयार था कि जिस तरह हो सकेगा मेहनत करके भूतनाथ को अच्छे ढर्रे पर ले जाऊँगा। मगर मैं वास्तव में ठगा गया और जो कुछ सोचता था, वह मेरी नादानी थी।

‘उस आदमी से बातचीत करने में भूतनाथ ने बहुत देर नहीं की और उसे झटपट बिदा करके वह पुनः मेरे पास आकर बोला, ‘‘कमबख्त दारोगा मुझसे चालबाजी करता है और मेरे ही हाथों से मेरे दोस्तों को गिरफ्तार कराया चाहता है।’’

मैं : दारोगा बड़ा ही शैतान है और उसके फेर में पड़कर तुम बर्बाद हो जाओगे। अच्छा अब हम लोग भी बिदा होना चाहते हैं, यह बताओ कि तुमसे किस तरह की उम्मीद अपने साथ लेते जाँय?

भूतनाथ : मुझसे आप हर तरह की उम्मीद कर सकते हैं, जो आप कहेंगे मैं वही करूँगा, बल्कि आपके साथ-ही-साथ आपके घर चलूँगा।

मैं : अगर ऐसा करो तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहे।

भूतनाथ : बेशक, मैं ऐसा ही करूँगा मगर पहिले आप यह बता दें कि आपने मेरा कसूर माफ किया या नहीं?

मैं : हाँ, मैंने माफ किया।

भूतनाथ : अच्छा तो अब मेरे डेरे पर चलिए।

मैं : तुम्हारा डेरा कहाँ पर है!

भूतनाथ : यहाँ से थोड़ी दूर पर।

मैं : खैर चलो, मैं तैयार हूँ, मगर इस बात का वादा कर दो कि लौटती समय मेरे साथ चलोगे।

भूतनाथ : जरूर चलूँगा।

इतना कहकर भूतनाथ चल पड़ा और हम दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हुए।

‘‘आप लोग खयाल करते होंगे कि भूतनाथ ने हम दोनों को उसी जगह क्यों नहीं गिरफ्तार कर लिया, मगर यह बात भूतनाथ के किये नहीं हो सकती थी। यद्यपि उसके साथ कई सिपाही या नौकर भी मौजूद थे, मगर फिर भी वह इस बात को खूब समझता था कि इस खुले मैदान में दलीपशाह और अर्जुनसिंह को गिरफ्तार कर लेना, उसकी सामर्थ्य के बाहर है। साथ ही इसके यह भी कह देना जरूरी है कि उस समय तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि उसके बटुए को चुरा लेनेवाला यही अर्जुनसिंह है। उस समय तक क्या, बल्कि अब तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी। उस दिन जब स्वयं अर्जुनसिंह ने अपनी जुबान से कहा तब मालूम हुआ।

‘‘कोस-भर से ज्यादे हम लोग भूतनाथ के पीछे-पीछे चले गये और उसके बाद एक भयानक सूनसान और उजाड़ घाटी में पहुँचे, जो दो पहाड़ियों के बीच में थी। वहाँ से कुछ दूर पर घूमघुमौवे रास्ते पर चलकर भूतनाथ के डेरे पर पहुँचे। वह एक ऐसा स्थान था, जहाँ किसी मुसाफिर का पहुँचना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था। जिस खोह में भूतनाथ का डेरा था, वह बहुत बड़ी और बीस-पचीस आदमियों के रहने लायक थी और वास्तव में इतने ही आदमियों के साथ वह वहाँ रहता भी था।

‘‘वहाँ भूतनाथ ने हम दोनों की बड़ी खातिर की और बार-बार आजिजी करता और माफी माँगता रहा। खाने-पीने का सब सामान वहाँ मौजूद था। अस्तु, इशारा पाकर भूतनाथ के आदमियों ने तरह-तरह का खाना बनाना आरम्भ कर दिया और कई आदमी नहाने-धोने का सामान दुरुस्त करने लगे।

‘‘हम दोनों बहुत प्रसन्न थे और समझते थे कि अब भूतनाथ ठीक रास्ते पर आ जायेगा। अस्तु, हम लोग तबतक सन्ध्या-पूजन से निश्चिन्त हुए, तब तक भोजन भी तैयार हुआ और बेफिक्री के साथ हम तीनों आदमियों ने एक साथ भोजन किया। इसके बाद निश्चिन्ती से बैठकर बातचीत करने लगे।’’

भूतनाथ : दलीपशाह, मुझे इस बात का बड़ा दुःख है कि मेरी स्त्री का देहान्त हो गया और मेरे हाथ से एक बहुत ही बुरा काम हो गया।

मैं : बेशक, अफसोस की जगह है, मगर खैर, जोकुछ होना था, हो गया, अब तुम घर पर चलो और नेकनीयती के साथ दुनिया में काम करो।

भूतनाथ : ठीक है, मगर मैं यह सोचता हूँ कि अब घर पर जाने से फायदा ही क्या है? मेरी स्त्री मर गयी और अब दूसरी शादी मैं कर नहीं सकता, फिर किस सुख के लिए शहर में चलकर बसूँ?

मैं : हरनामसिंह और कमला का भी तो कुछ खयाल करना चाहिए!

इसके अतिरिक्त क्या विधुर लोग शहर में रहकर नेकनीयती के साथ रोजगार नहीं करते?

भूतनाथ : कमला और हरनामसिंह होशियार हैं और एक अच्छे रईस के यहाँ परवरिश पा रहे हैं, इसके अतिरिक्त किशोरी उन दोनों ही की सहायक है, अतएव उनके लिए मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं है। बाकी रही आपकी दूसरी बात; उसका जवाब यह हो सकता है कि शहर में नेकनीयती के साथ अब मैं कर ही क्या सकता हूँ, क्योंकि मैं तो किसी को मुँह दिखाने लायक ही नहीं रहा। एक दयारामवाली वारदात ने मुझे बेकाम कर ही दिया था, दूसरे इस लड़के के खून ने मुझे और भी बर्बाद और बेकाम कर दिया। अब मैं कौन-सा मुँह लेकर भले आदमियों में बैठूँगा?

मैं : ठीक है, मगर इन दोनों मामलों की खबर हम लोग दो-तीन खास आदमियों के सिवाय और किसी को नहीं है और हम लोग तुम्हारे साथ कदापि बुराई नहीं कर सकते।

भूतनाथ : तुम्हारी इन बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो सकता, क्योंकि मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि आजकल तुम मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हो और मुझे दारोगा के हाथ में फँसाया चाहते हो, ऐसी अवस्था में तुमने मेरा भेद जरूर कई आदमियों से कह दिया होगा।

मैं : नहीं भूतनाथ, यह तुम्हारी भूल है कि तुम ऐसा सोच रहे हो? मैंने तुम्हारा भेद किसी को नहीं कहा और न मैं तुम्हें दारोगा के हवाले किया चाहता हूँ। बेशक, दारोगा ने मुझे इस काम के लिए लिखा था, मगर मैंने इस बारे में उसे धोखा दिया। दारोगा के हाथ की लिखी चिठियाँ मेरे पास मौजूद हैं, घर चलकर मैं तुम्हें दिखाऊँगा और उनसे तुम्हें मेरी बातों का पूरा सबूत मिल जायगा।

‘‘इसी समय बात करते-करते मुझे कुछ नशा मालूम हुआ और मेरे दिल में एक प्रकार का खुटका हो गया। मैंने घूमकर अर्जुनसिंह की तरफ देखा तो उनकी भी आँखें लाल अंगारे की तरह दिखायी पड़ीं। उसी समय भूतनाथ मेरे पास से उठकर दूर जा बैठा और बोला–

भूतनाथ : जब मैं तुम्हारे घर जाऊँगा, तब मुझे इस बात का सबूत मिलेगा, मगर मैं तुम्हें इसी समय इस बात का सबूत दे सकता हूँ कि तुम मेरे साथ दुश्मनी कर रहे हो।

‘‘इतना कहकर भूतनाथ ने अपने जेब से निकालकर मेरे हाथ की लिखी वे चीठियाँ मेरे सामने फेंक दीं, जो मैंने दारोगा को लिखी थीं और जिनमें भूतनाथ के गिरफ्तार करा देने का वादा किया था।

‘‘मैं सरकार में बयान कर चुका हूँ कि उस समय दारोगा से इस ढंग का पत्र-व्यवहार करने से मेरा मतलब क्या था और मैंने भूतनाथ को दिखाने के लिए दारोगा के हाथ की चीठियाँ बटोरकर किस तरह दारोगा से साफ इनकार कर दिया था, मगर उस मौके पर मेरे पास वे चीठियाँ मौजूद न थीं कि मैं उन्हें भूतनाथ को दिखाता और भूतनाथ के पास वे चीठियाँ मौजूद थी, जो दारोगा ने उसे दी थीं और जिनके सबब से दारोगा का मन्त्र चल गया था। अस्तु, उन चीठियों को देखकर मैंने भूतनाथ से कहा–

मैं : हाँ हाँ, इन चीठियों को मैं जानता हूँ और बेशक ये मेरे हाथ की लिखी हुई हैं, मगर मेरे इसे लिखने का मतलब क्या था और इन चीठियों से मैंने क्या काम निकाला सो तुम्हें नहीं मालूम हो सकता, जब तक कि दारोगा के हाथ की लिखी हुई चीठियाँ तुम न पढ़ लो, जो मेरे पास मौजूद हैं।

भूतनाथ : (मुस्कुराकर) बस बस बस, ये सब धोखेबाजी के ढर्रे रहने दीजिए। भूतनाथ से यह चालाकी न चलेगी, सच तो यों है कि मैं खुद कई दिनों से तुम्हारी खोज में हूँ। इत्तिफाक से तुम मेरे पँजे में आकर फँस गये और अब किसी तरह नहीं निकल सकते। उस जंगल में मैं तुम दोनों को काबू में नहीं कर सकता था, इसलिए सब्जबाग दिखाता हुआ यहाँ ले आया और भोजन में बेहोशी की दवा खिलाकर बेकाम कर दिया। अब तुम लोग मेरा कुछ भी नहीं कर सकते। समझ लो कि तुम दोनों जहन्नुम में भेजे जाओगे, जहाँ से लौटकर आना मुश्किल है।

‘‘भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर हम दोनों को क्रोध चढ़ आया, मगर उठने की कोशिश करने पर भी कुछ न कर सके, क्योंकि नशे का पूरा-पूरा असर हो गया था और तमाम बदन में कमजोरी आ गयी थी।

‘‘थोड़ी ही देर बाद हम लोग बेहोश हो गये और तनोबदन की सुध न रही। जब आँखें खुलीं तो अपने को दारोगा के मकान में कैद पाया और सामने दारोगा, जैपाल, हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बैठे हुए देखा।

रात का समय था और मेरे हाथ-पैर एक खम्भे के साथ बँधे हुए थे। अर्जुनसिंह न मालूम कहाँ थे और उन पर न जाने क्या बीत रही थी।

दारोगा ने मुझसे कहा, ‘‘कहो दलीपशाह, तुमने मुझपर बड़ा जाल फैलाया था, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।’’

मैं : मैंने क्या जाल फैलाया था?

दारोगा : क्या इसके कहने की भी जरूरत है, नहीं बस इस समय हम इतना ही कहेंगे कि तुम्हारा शागिर्द हमारी कैद में है और तुमने मेरे लिए जोकुछ किया है, उसका हाल हम उसकी जुबानी सुन चुके हैं। अब अगर वह चीठी मुझे दे दो, जो गोपालसिंह के बारे में मनोरमा का नाम लेकर जबर्दस्ती मुझसे लिखवायी गयी थी, तो मैं तुम्हारा सब कसूर माफ कर दूँ।

मैं : मेरी समझ में नहीं आता कि आप किस चीठी के बारे में मुझसे कह रहे हैं।

दारोगा : (चिढ़कर) ठीक है, यह तो मैं पहिले ही समझे हुए था कि तुम बिना लात खाये नाक पर मक्खी नहीं बैठने दोगे। खैर, देखो मैं तुम्हारी क्या दुर्दशा करता हूँ।

‘‘इतना कहकर दारोगा ने मुझे सताना शुरू किया। मैं नहीं कह सकता कि इसने मुझे किस-किस तरह की तकलीफें दीं और सो भी एक-दो दिन तक नहीं बल्कि महीने-भर तक, इसके बाद बेहोश करके मुझे तिलिस्म के अन्दर पहुँचा दिया। जब मैं होश में आया तो अपने सामने अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार को बैठे हुए पाया। बस यही तो मेरा किस्सा है और यही मेरा बयान है!’’

दलीपशाह का हाल सुनकर सभों को बड़ा दुःख हुआ और सभी कोई लाल-लाल आँखें करके दारोगा तथा जैपाल वगैरह की तरफ देखने लगे। दरबार बरखास्त करने का इशारा करके महाराज उठ खड़े हुए, कैदी जेलखाने भेज दिये गये और बाकी सब अपने डेरों की तरफ रवाना हुए।

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