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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

।। इक्कीसवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान

भूतनाथ अपना हाल कहते-कहते कुछ देर के लिए रुक गया और इसके बाद एक लम्बी साँस लेकर पुनः यों कहने लगा–

‘‘मैं अपने को कैदियों की तरह और सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर, एक दफे घबड़ा गया और सोचने लगा कि क्या मामला है? मेरी स्त्री मुझे सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कुराने के कुछ न बोले!! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती, क्योंकि इस कमरे में जितने दिखायी दे रहे हैं, उन सभों की वह सरदार मालूम पड़ती है, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया और मैंने लाल आँखों से उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है, जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है?’’

इसके जवाब में मेरी स्त्री ने कहा, ‘‘हाँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसके लड़के को तुम किसी जमाने में अपना होनहार लड़का समझकर चाहते और प्यार करते थे, मगर आज उसे दुश्मनी की निगाह से देख रहे हो, मैं वही रामदेई हूँ, जो तुम्हारे असली भेदों को न जानकर और तुम्हें एक नेक, ईमानदार तथा सच्चा ऐयार समझकर तुम्हारे फन्दे में फँस गयी थी, मगर आज तुम्हारे असली भेदों का पता लग जाने के कारण डरती हुई, तुमसे अलग हुआ चाहती हूँ, मैं वही रामदेई हूँ, जिसे तुमने नकाबपोशों के मकान में देखा था और मैं वही रामदेई हूँ, जिसने उस दिन तुम्हें जंगल में धोखा देकर बैरंग वापस होने पर मजबूर किया था, मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम ‘लामाघाटी’ में छोड़ आये हो।’’

मुझे उस औरत की बातों ने ताज्जुब में डाल दिया और मैं हैरानी के साथ उसका मुँह देखने लगा। अनूठी बात तो यह थी कि वह अपनी बातों में शुरू से तो रामदेई अथवा मेरी स्त्री बनती चली आयी, मगर आखीर में बोल बैठी कि ‘मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ, जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आये हो’। आखिर बहुत सोच-विचार कर मैंने पुनः उससे कहा, ‘‘अगर तू वह रामदेई नहीं है, जिसे मैं लामाघाटी में छोड़ आया था तो तू मेरी स्त्री भी नहीं है।’’

स्त्री : तो यह कौन कहता है कि मैं तुम्हारी स्त्री हूँ।

मैं : अभी इसके पहिले तूने क्या कहा था?

स्त्री : (हँसकर) मालूम होता है कि तुम अपने होश में नहीं हो।

इतना सुनते ही मुझे क्रोध चढ़ आया और मैं हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने का उद्योग करने लगा। यह हाल देखकर उस औरत को भी क्रोध आ गया और उसने अपनी एक सखी या लौंडी की तरफ देखकर कुछ इशारा किया। वह लौंडी इशारा पाते ही उठी और उसी जगह आले पर से एक बोतल उठा लायी, जिसमें किसी प्रकार का अर्क था। उस अर्क से चुल्लू-भर उसने दो-तीन छींटे मेरे मुँह पर दिये, जिसके सबब से मैं बेहोश हो गया और मुझे तनोबदन की सुध न रही। मैं यह नहीं बता सकता कि इसके बाद कै घण्टे तक मैं उसके कब्जे में रहा, परन्तु जब होश में आया तो मैंने अपने को जंगल में एक पेड़ की नीचे पाया। घण्टो तक ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखता रहा, इसके बाद एक चश्मे के किनारे जाकर हाथ-मुँह धोने के बाद इस तरफ रवाना हुआ। बस यही सबब था कि मुझे हाजिर होने में देर हो गयी।

भूतनाथ की बातें सुनकर सभों को ताज्जुब हुआ मगर वे दोनों नकाबपोश एकदम खिलखिलाकर हँस पड़े और उनमें से एक ने भूतनाथ की तरफ देखकर कहा–

नकाबपोश : भूतनाथ, निःसन्देह तुम धोखे में पड़ गये। उस औरत ने जो कुछ तुमसे कहा, उसमें शायद ही दो-तीन बातें सच हों।

भूतनाथ : (ताज्जुब से) सो क्या! उसने कौन-सी बात सच कही थी, कौन-सी झूठ?

नकाबपोश : सो मैं नहीं कह सकता, मगर आशा है कि शीघ्र ही तुम्हें सच-झूठ का पता लग जायगा।

भूतनाथ ने बहुत कुछ चाहा, मगर नकाबपोश ने उसके मतलब की कोई बात न कही। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करके नकाबपोश बिदा हुए और जाते समय एक सवाल के जवाब में कह गये कि ‘आप लोग दो दिन और सब्र करें, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के सामने ही सब भेदों का खुलना अच्छा होगा, क्योंकि उन्हें इन बातों के जानने का बड़ा शौक था’।

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