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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

पन्द्रहवाँ बयान


महाराज सुरेन्द्रसिंह के दरबार में दोनों नकाबपोश दूसरे दिन नहीं आये, बल्कि तीसरे दिन आये और आज्ञानुसार बैठ जाने पर अपनी गैरहाजिरी का सबब एक नकाबपोश ने इस तरह बयान किया।

"भैरोसिंह और तारासिंह को साथ लेकर यद्यपि हम लोग इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास गये थे, मगर रास्ते में कई तरह की तकलीफ हो जाने के कारण जुकाम (सर्दी) और बुखार के शिकार बन गये, गले में दर्द और रेजिश के सबब साफ बोला नहीं जाता था, बल्कि अभी तक आवाज साफ नहीं हुई, इसीलिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने जोर देकर हम लोगों को रोक लिया और दो दिन अपने पास से हटने न दिया, लाचार हम लोग हाजिर न हो सके, बल्कि उन्होंने एक चीठी भी महाराज के नाम की दी है।"

यह कहके नकाबपोश ने एक चीठी जेब से निकाली और उठकर महाराज के हाथ में दे दी। महाराज ने बड़ी प्रसन्नता से वह चीठी जो खास इन्द्रजीतसिंह के हाथ की लिखी हुई थी, पढ़ी और इसके बाद बारी-बारी से सभों के हाथ में वह चीठी घूमी। प्रणाम इत्यादि के बाद उसमें यह लिखा हुआ था—

"आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रसन्न हैं। दोनों ऐयारों के न होने से जो तकलीफ थी, अब वह भी जाती रही। रामसिंह और लक्ष्मणसिंह ने हम लोगों की बड़ी मदद की इसमें कोई सन्देह नहीं। हम लोग तिलिस्म का बहुत ज्यादे काम खत्म कर चुके हैं। आशा है कि आज के तीसरे दिन हम दोनों भाई आपकी सेवा में उपस्थिति होंगे, और इसके बाद जोकुछ तिलिस्म का काम बचा हुआ है, उसे आपकी सेवा में रहकर ही पूरा करेंगे। हम दोनों की इच्छा है कि तब तक आप कैदियों का मुकदमा भी बन्द रक्खें, क्योंकि उसके देखने और सुनने के लिए हम दोनों बेचैन हो रहे हैं। उपस्थित होने पर हम दोनों अपना अनूठा हाल भी अर्ज करेंगे।"

इस चीठी को पढ़कर और यह जानकर सभी प्रसन्न हुए कि अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आया ही चाहते हैं, इसी तरह इस उपन्यास के प्रेमी पाठक भी जानकर प्रसन्न होंगे कि अब यह उपन्यास भी शीघ्र ही समाप्त हुआ चाहता है। अस्तु, कुछ देर तक खुशी के चर्चे होते रहे और इसके बाद पुनः नकाबपोशों से बातचीत होने लगी—

एक नकाबपोश : भूतनाथ लौटकर आया या नहीं?

तेज : ताज्जुब है कि अभी तक भूतनाथ नहीं आया। शायद आपके साथियों ने उसे...

नकाबपोश : नहीं नहीं, हमारे साथी लोग उसे दुःख नहीं देंगे, मुझे तो विश्वास था कि भूतनाथ आ गया होगा, क्योंकि वे दोनों नकाबपोश लौटकर हमारे वहाँ पहुँच गये, जिन्हें भूतनाथ गिरफ्तार करके ले गया था। मगर अब शक होता है कि भूतनाथ पुनः किसी फेर में पड़ गया, या उसे पुनः हमारे किसी साथी को पकड़ने का शौक तो नहीं है!

तेज : आपके साथी ने लौटकर अपना हाल तो कहा होगा?

नकाबपोश : जी हाँ, कुछ हाल कहा था, जिससे मालूम हुआ कि उन दोनों को गिरफ्तार करके ले जाने पर भूतनाथ को पछताना पड़ा।

तेज : क्या आप बता सकते हैं कि क्या-क्या हुआ?

नकाबपोश : बता सकते हैं, मगर यह बात भूतनाथ को नापसन्द होगी, क्योंकि भूतनाथ को उन लोगों ने उसके पुराने ऐबों को बताकर डरा दिया था, और इसी सबब से वह उन नकाबपोशों का कुछ बिगाड़ न सका। हाँ, हम लोग उन दोनों नकाबपोशों को अपने साथ यहाँ ले आये हैं, यह सोचकर कि भूतनाथ यहाँ आ गया होगा। अस्तु, उनका मुकाबिला हुजूर के सामने करा दिया जायगा।

तेज : हाँ! वे दोनों नकाबपोश कहाँ हैं?

नकाबपोश : बाहर फाटक पर उन्हें छोड़ आया हूँ, किसी को हुक्म दिया जाय बुला लावे।

इशारा पाते ही एक चोबदार उन्हें बुलाने के लिए चला गया और उसी समय भूतनाथ भी दरबार में हाजिर होता दिखायी दिया। कौतुक की निगाहों से सभों ने भूतनाथ को देखा, भूतनाथ ने सभों को सलाम किया और आज्ञानुसार देवीसिंह के बगल में बैठ गया।

जिस समय भूतनाथ इस इमारत की डयोढ़ी पर आया था, उसी समय उन दोनों नकाबपोशों को फाटक पर टहलता हुआ देखकर चौंक पड़ा था। यद्यपि उन दोनों के चेहरे नकाब से खाली न थे, मगर फिर भी भूतनाथ ने उन्हें पहिचान लिया कि ये दोनों वही नकाबपोश हैं जिन्हें हम फँसा ले गये थे, अपने घड़कते कलेजे और परेशान दिमाग को लिये हुए भूतनाथ फाटक के अन्दर चला गया और दरबार में हाजिर होकर उसने दोनों सरदार नकाबपोशों को देखा।

एक नकाबपोश : कहो भूतनाथ अच्छे तो हो?

भूतनाथ : हुजूर लोगों के इकबाल से जिन्दा हूँ, मगर दिन-रात इसी सोच में पड़ा रहता हूँ कि प्रायश्चित करने या क्षमा माँगने से ईश्वर भी अपने भक्तों के पापों को भुलाकर क्षमा कर देता है, परन्तु मनुष्यों में वह बात क्यों नहीं पायी जाती!

नकाबपोश : जो लोग ईश्वर के भक्त हैं और जो निर्गुण और सगुण सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का भरोसा रखते हैं, वे जीवमात्र के साथ वैसा ही बरताव करते हैं, जैसा ईश्वर चाहता है या जैसा कि हरि-इच्छा समझी जाती है। अगर तुमने सच्चे दिल से परमात्मा से क्षमा माँग ली, और अब तुम्हारी नियत साफ है, तो तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं मिल सकता, अगर कुछ मिलता है तो इसका कारण तुम्हारे चित्त का विकार है। तुम्हारे चित्त में अभी तक शान्ति नहीं हुई और तुम एकाग्र होकर उचित कार्यों की तरफ ध्यान नहीं देते, इसलिए तुम्हें सुख प्राप्त नहीं होता। अब हमारा कहना इतना ही है कि तुम शान्ति के स्वरुप बनो और ज्यादे खोजबीन के फेर में न पड़ो। यदि तुम इस बात को मानोगे तो निःसन्देह अच्छे रहोगे और तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।

भूतनाथ : निःसन्देह आप उचित कहते है।

देवी : भूतनाथ तुम्हें यह सुनकर प्रसन्न होना चाहिए कि दो ही तीन दिन में कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आनेवाले हैं।

भूतनाथ (ताज्जुब से) यह कैसे मालूम हुआ!

देवी : उनकी चीठी आयी है।

भूतनाथ : कौन लाया है?

देवी : (नकाबपोशों की तरफ बताकर) ये ही लाये हैं।

देवी : अवश्य।

इतना कहकर देवीसिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह की चीठी भूतनाथ के हाथ में दे दी और भूतनाथ ने प्रसन्नता के साथ पढ़कर कहा, "अब सब बखेड़ा तै हो जायगा!"

जीत : (महाराज का इशारा पाकर भूतनाथ से) भूतनाथ, तुम्हें महाराज की तरफ से किसी तरह का खौफ न करना चाहिए, क्योंकि महाराज आज्ञा दे चुके हैं कि तुम्हारे ऐबों पर ध्यान न देंगे और देवीसिंह, जिन्हें महाराज अपना अंग समझते हैं, तुम्हें अपने भाई के बराबर मानते हैं। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे लौट आने में इतना बिलम्ब क्यों हुआ, क्योंकि जिन दो नकाबपोशों को तुम गिरफ्तार करके ले गये थे, उन्हें अपने घर लौटे दो दिन हो गये।

भूतनाथ कुछ जवाब देना ही चाहता था कि वे दोनों नकाबपोश भी हाजिर हुए, जिन्हें बुलाने के लिए चोबदार गया था। जब वे दोनों सभों को सलाम करके आज्ञानुसार बैठ गये तब भूतनाथ ने जवाब दिया—

भूतनाथ : (दोनों नकाबपोशों की तरफ बताकर) जहाँ तक मैं खयाल करता हूँ ये दोनों नकाबपोश वे ही हैं, जिन्हें मैं गिरफ्तार करके ले गया था। (नकाबपोशों से) क्यों साहबो?"

एक नकाबपोश: ठीक है मगर हम लोगों को ले जाकर तुमने क्या किया सो महाराज को मालूम नहीं हैं।

भूतनाथ : हम लोग एक साथ ही अपने-अपने स्थान की तरफ रवाना हुए थे, ये दोनों तो बेखटके अपने घर पर पहुँचे गये होंगे, मगर मैं एक विचित्र तमाशे के फेर में पड़ गया था।

जीत : वह क्या?

भूतनाथ : (कुछ संकोच के साथ) क्या कहूँ कहते शर्म मालूम होती है?

देवी : ऐयारों को किसी घटना के कहने में शर्म न होनी चाहिए, चाहे उन्हें अपनी दुर्गति का हाल ही क्यों न कहना पड़े, और यहाँ कोई गैर शख्स भी बैठा हुआ नहीं है, ये नकाबपोश साहब भी अपने ही हैं, तुम खुद देख चुके हो कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने इनके बारे में क्या लिखा है।

भूतनाथ : ठीक है मगर...खैर, जो होगा देखा जायेगा, मैं बयान करता हूँ सुनिए। इन नकाबपोशों को विदा करने बाद, जिस समय मैं वहाँ से रवाना हुआ रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी थी। जब मैं पिपलिया वाले जंगल में पहुँचा, जो यहाँ से दो ढाई कोस होगा, तो गाने की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी और मैं ताज्जुब से चारों तरफ गौर करने लगा। मालूम हुआ कि दाहिनी तरफ से आवाज आ रही है। अस्तु, मैं रास्ता छोड़ धीरे-धीरे दाहिनी तरफ चला और गौर से उस आवाज को सुनने लगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ता था, आवाज साफ होती जाती थी और यह भी जान पड़ता था कि मैं इस आवाज से अपरिचित नहीं बल्कि कई दफे सुन चुका हूँ, अस्तु, उत्कण्ठा के साथ कदम बढ़ाकर चलने लगा। कुछ और आगे जाने बाद मालूम हुआ कि दो औरतें मिलकर बारी-बारी से गा रही हैं, जिसमें से एक की आवाज पहिचानी हुई है। जब उस ठिकाने पहुँच गया, जहाँ से आवाज आ रही थी तो देखा कि बड़ के एक बड़े और पुराने पेड़ के ऊपर कई औरतें चढ़ी हुई हैं, जिनमें दो औरतें गा रही हैं। वहाँ बहुत अन्धकार हो रहा था, इसलिए इस बात का पता नहीं लग सकता था कि वे औरतें कौन, कैसी और किस रंग-ढंग की हैं तथा उनका पहिरावा कैसा है।

मैं भले-बुरे का कुछ खयाल न करके उस पेड़ के नीचे चला गया और तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में लेकर रोशनी के लिए उसका कब्जा दबाया। उसकी तेज रोशनी से चारों तरफ उजाला हो गया और पेड़ पर चढ़ी हुई वे औरतें साफ दिखायी देने लगीं। मैं उनके पहिचानने की कोशिश ही कर रहा था कि यकायक उस पेड़ के चारों तरफ चक्र की तरह आग भभक उठी और तुरत ही बुझ गयी। जैसे किसी ने बारुद की लकीर में आग लगा दी हो, और वह भक से उड़ जाने बाद केवल धुआँ-ही-धुआँ रह जाय ठीक वैसा ही मालूम हुआ। आग बुझ जाने के साथ ही ऐसा जहरीला और कड़ुआ धुआँ फैला कि मेरी तबीयत घबड़ा गयी और मैं समझ गया कि इसमें बेहोशी का असर जरूर है और मेरे साथ ऐयारी की गयी। बहुत कोशिश की, मगर मैं अपने को सम्हाल न सका और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

मैं नहीं कह सकता कि बेहोश होने बाद मेरे साथ कैसा सलूक किया गया, हाँ, मैं होश में आया और मेरी आँखें खुलीं तो मैंने एक सुन्दर सजे हुए कमरे में अपने को हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर पाया। उस समय कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी, और मेरे सामने साफ फर्श के ऊपर कई औरतें बैठी हुई थीं, जिनमें मेरी औरत ऊँची गद्दी पर बैठी हुई उन सभों की सरदार मालूम पड़ती थी।

समाप्त

आगे का हाल जानने के लिये 

अन्तिम खण्ड चन्द्रकान्ता सन्तति-6 

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