मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
|
9 पाठकों को प्रिय 17 पाठक हैं |
चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
पाँचवाँ बयान
देवीसिंह और भूतनाथ की यह इच्छा न थी कि आज सवेरा होते ही हम लोग यहाँ से चले जाँय और अपनी स्त्रियों के विषय में किसी तरह की जाँच न करें, मगर लाचारी थी, क्योंकि नकाबपोशों की इच्छा के विरुद्ध वे यहाँ रह नहीं सकते थे, साथ ही इसके मालिक मकान की मेहरबानी और मीठे बर्ताव का भी उन्हें वैसा ही खयाल था, जैसाकि इस मजबूरी की अवस्था में होना चाहिए। सवेरा होने पर जब कई नकाबपोश उनके सामने आये, और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा तो देवीसिंह और भूतनाथ उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर निकल उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के नीचे उतरकर मैदान में पहुँचे तो देवीसिंह का इशारा पाकर भूतनाथ ने एक नकाबपोश से कहा, "हम तुम्हारे मालिक से एक दफे और मिलना चाहते हैं।
नकाबपोश: इस समय उनसे मुलाकात नहीं हो सकती।
भूतनाथ : अगर घण्टे या दो घण्टे में मुलाकात हो सके तो हम लोग ठहर जाँय।
नकाबपोश : नहीं, अब मुलाकात हो ही नहीं सकती, उन्होंने रात ही को हुक्म दे रक्खा था, हम लोग उसको पूरा कर रहे हैं।
भूतनाथ : हम लोगों को कोई जरूरी बात पूछनी हो तो?
नकाबपोश : एक चीठी लिखकर रख जाओ, उसका जवाब तुम्हारे पास पहुँच जायगा।
भूतनाथ : अच्छा यह बताओ कि यहाँ हम लोगों ने गिरफ्तार होने के पहिले, जिन दो औरतों को देखा था, उनसे भी मुलाकात हो सकती है या नहीं?
नकाबपोश : नहीं, क्या उन लोगों को आपने खानगी समझ रखा है?
दूसरा नकाबपोश : इन सब फजूल बातों से हमें कोई मतलब नहीं और न हम लोगों को इतनी फुरसत ही है। आप लोग नाहक हम लोगों को रंज कहते हैं, और हमारे मालिक की उस मेहरबानी को एकदम भूल जाते हैं, जिसकी बदौलत आप लोग कैदखाने की हवा खाने से बच गये?
भूतनाथ : (कुछ क्रोध-भरी आवाज में) अगर हम लोग न जाँय तो तुम क्या करोंगे?
नकाबपोश : (रंज के साथ) जबर्दस्ती निकाल बाहर करेंगे। आप लोग अपने तिलिस्मी खंजर के भरोसे न भूलियेगा, ऐसे-ऐसे तुच्छ खंजरों का काम हम लोग अपने नाखूनों से लेते हैं। बस सीधी तरह कदम उठाइए और इस जमीन को अपनी मिलकियत न समझिए।
नकाबपोशों की बातें यद्यपि भूतनाथ और देवीसिंह को बुरी मालूम हुईं, मगर बहुत सी बातों को सोच-विचारकर चुप हो रहे और तकरार करना उचित न जाना। सब नकाबपोशों ने मिलकर उन्हें खोह के बाहर किया, और लौटती समय भूतनाथ और देवीसिंह से एक नकाबपोश ने कहा, "बस अब इसके अन्दर आने का ख्याल न कीजियेगा, कल दरवाजा खुला रह जाने के कारण आप लोग चले आये, मगर अब ऐसा मौका भी न मिलेगा।"
नकाबपोशों के चले जाने बाद भूतनाथ और देवीसिंह वहाँ से रवाना हुए और कुछ दूर जाकर जंगल में एक घने पेड़ की छाया देखकर बैठ के यों बातचीत करने लगे।
भूतनाथ : कहिए अब क्या इरादा है?
देवी : बात तो यह है कि हम लोग नकाबपोशों के घर जाकर बेइज्जत हो गये। चाहें ये दोनों नकाबपोश कुछ भी कहें, मगर मुझे निश्चय है कि दरबार में आने वाले दोनों नकाबपोश वही हैं, जिनके हम मेहमान हुए थे। मुझे तो शर्म आवेगी जब दरबार में मैं उन्हें अपने सामने देखूँगा। इसके अतिरिक्त यदि यहाँ से जाकर अपनी स्त्री को घर में न देखूँगा तो मेरे आश्चर्य, रंज और क्रोध का कोई हद्द न रहेगा।
भूतनाथ : यद्यपि मैं एक तौर पर बेहया हो गया हूँ, परन्तु आज की बेइज्जती दिल को फाड़े डालती है, बहुत ऐयारी की मगर ऐसा जक कभी नहीं उठाया, मेरी तो यहाँ से हटने की इच्छा नहीं होती, यही जी में आता है कि इसमें से एक-न-एक को अवश्य पकड़ना चाहिए, और अपनी स्त्री के विषय में तो इतना कहना काफी है कि यदि अपने घर जाकर अपनी स्त्री को पा लिया, तो मैं भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाऊँगा।
देवी : करने के लिए तो हम लोग बहुतकुछ कर सकते हैं, मगर जब मैं उनके बर्ताव पर ध्यान देता हूँ, तब लाचारी आकर पल्ला पकड़ती है। जब एक बार उन्होंने हम लोगों को गिरफ्तार किया तो हर तरह का सलूक कर सकते थे, परन्तु किसी तरह की बुराई हम लोगों के साथ न की, दूसरे वे लोग स्वयं हमारे महाराज के दरबार में हाजिर हुआ करते हैं और समय पर अपने को प्रकट कर देने का वादा भी कर चुके हैं, ऐसी अवस्था में उनके साथ खोटा बर्ताव करते डर लगता है, कहीं ऐसा न हो कि वे लोग रंज हो जाँय और दरबार में आना छोड़ दें, अगर ऐसा होता तो बड़ी बदनामी होगी और कैदियों का मामला भी आजकल के ढंग से अधूरा ही रह जायगा।
भूतनाथ : आप बात तो ठीक कहते हैं, परन्तु...
देवी : नहीं, अब इस समय तरह देना ही उचित है, जिस तरह मैं अपनी बदनामी का खयाल करता हूँ, उसी तरह तुमको भी तो खयाल होगा?
भूतनाथ : जरूर, यदि नकाबपोशों का कोई अकेला आदमी कब्जे में आ जाय तो शायद काम निकल जाय और किसी को इस बात की खबर भी न हो।
इस तरह की बातें हो रही थीं कि उसके कानों में घोड़ों की टापों की आवाज आयी और दोनों ने घूमकर पीछे की तरफ देखा। एक नकाबपोश सवार आता हुआ दिखायी पड़ा, जिस पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ ने देवीसिंह से कहा, "यह भी जरूर उन्हीं में से है, भला एक दफे और तो कोशिश कीजिए और जिस तरह हो सके, इसे गिरफ्तार कीजिए, फिर जैसा होगा देखा जायगा। बस अब इस समय सोचने-विचारने का मौका नहीं है।"
वह सवार बिल्कुल बेफिक्री के साथ, धीरे-धीरे आ रहा था अस्तु, ये दोनों भी उसके रास्ते के दोनों तरफ पेड़ों की आड़ देकर उसे गिरफ्तार करने की नीयत से खड़े हो गये। जब वह नकाबपोश सवार इन दोनों की सीध पर पहुँचा और आगे बढ़ा ही चाहता था, तभी भूतनाथ के हाथ की फेंकी हुई कमन्द उसके घोड़े के गले में जा पड़ी। घोड़ा भड़ककर उलझने-कूदने लगा और तब दोनों ने लपटकर घोड़े की लगाम थाम ली। उस सवार ने खंजर खैंचकर वार करना चाहा, मगर कुछ सोचकर रुक गया और साथ ही इसके इन दोनों को भी उसने लड़ने के लिए तैयार देखा।
नकाबपोश : (भूतनाथ से) तुम लोग मुझे व्यर्थ क्यों रोकते हो? मुझसे क्या चाहते हो?
भूतनाथ : हम लोग तुम्हें किसी तरह की तकलीफ देना नहीं चाहते, बस थोड़ी देर के लिए घोड़े से नीचे उतरो और हमारी दो-चार बातों का जवाब देकर, जहाँ जी में आवे चले जाओ।
नकाबपोश : बहुत अच्छा, नकाब हटाने के लिए जिद्द न करना।
इतना कहकर नकाबपोश घोड़े के नीचे उतर पड़ा और भूतनाथ ने उससे कहा, "लेकिन तुम्हें अपने चेहरे का नकाब हटाना ही पड़ेगा और यह काम सबसे पहिले होगा।" यह कहते-कहते भूतनाथ ने अपने हाथ से उसके चेहरे की नकाब उलट दी, मगर उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही चौंककर बोल उठा, "हैं, यह तो मेरी स्त्री है, जो नकाबपोशों के घर में दिखायी पड़ी थी।"
|