मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
।। बीसवाँ भाग ।।
पहिला बयान
भूतनाथ और देवीसिंह को कई आदमियों ने पीछे से पकड़कर अपने काबू में कर लिया और उसी समय एक आदमी ने किसी विचित्र भाषा में पुकारकर कुछ कहा, जिसे सुनते ही वे दोनों औरतें अर्थात् चम्पा तथा भूतनाथ की स्त्री चिराग फेंक-फेंककर पीछे की ओर लौट गयीं और अन्धकार के कारण कुछ मालूम न हुआ कि वे दोनों कहाँ गयीं। हाँ, भूतनाथ और देवीसिंह को इतना मालूम हो गया कि उन्हें गिरफ्तार करनेवाले भी सब नकाबपोश हैं। भूतनाथ की तरह देवीसिंह भी सूरत बदलकर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे।
गिरफ्तार हो जाने बाद भूतनाथ और देवीसिंह दोनों एक साथ कर दिये गये और दोनों को ही लिये हुए वे सब बीचवाले बंगलें की तरफ रवाना हुए। यद्यपि अन्धकार के अतिरिक्त सूरत बदलने और नकाब डाले रहने के सबब एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था, तथापि अन्दाज ही से एक को दूसरे ने जान लिया और शरमिन्दगी के साथ धीरे-धीरे उस बंगले की तरफ जाने लगे। जब बंगले के पास पहुँचे तो आगेवाले दालान में जहाँ दो चिरागों की रोशनी थी, तीन आदमियों के हाथ में नंगी तलवार लिये पहरा देते देखा। वहाँ पहुँचने पर हमारे दोनों ऐयारों को मालूम हुआ कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले गिनती में आठ से ज्यादे नहीं हैं। उस समय देवीसिंह और भूतनाथ के दिल में थोड़ी देर के लिए यह बात पैदा हुई कि केवल आठ आदमियों से हमें गिरफ्तार हो जाना उचित न था और अगर हम चाहते तो इन लोगों से अपने को बचा ही लेते, मगर उन दोनों का यह विचार तुरन्त ही जाता रहा, जब उन्होंने कुछ कमोबेश यह सोचा कि अगर हम इन लोगों से अपने को बचा लेते तो क्या होता, क्योंकि यहाँ से निकलकर भाग जाना कठिन था, और अगर भाग ही जाते तो जिस काम के लिये आये, उससे हाथ धो बैठते अस्तु, जो होगा देखा जायगा।
इस दालान में अन्दर जाने के लिये दरवाजा था और उसके आगे लाल रंग का रेशमी पर्दा लटक रहा था। दीवार, छत इत्यादि सब रंगीन बने हुए थे, और उस पर बनी हुई तरह-तरह की तस्वीरें अपनी खूबी और खूबसूरती के सबब देखनेवालों का दिल खींच लेती थीं, परन्तु इस समय उस पर भरपूर और बारीक निगाह डालना हमारे ऐयारों के लिए कठिन था, इसलिए हम भी उनका हाल बयान नहीं कर सकते।
जो लोग दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, उनमें से एक आदमी पर्दा उठाकर बंगले के अन्दर चला गया और चौथाई घड़ी के बाद लौट आकर अपने साथियों से बोला, "इन दोनों महाशयों को सरदार के सामने ले चलो और एक आदमी जाकर हथकड़ी बेड़ी भी ले आओ, कदाचित हमारे सरदार इन दोनों के लिए कैदखाने का हुक्म दें।"
अस्तु, एक आदमी हथकड़ी बेड़ी लाने के लिए चला गया और वे सब देवीसिंह और भूतनाथ को लिये हुए बँगले की तरफ रवाना हुए।
यह बँगला बाहर से जैसा सादा और मामूली ढंग का मालूम होता था, वैसा अन्दर से न था। जूता उतारकर चौखट के अन्दर पैर रखते ही हमारे दोनों ऐयार ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगे और फौरन ही समझ गये कि इसके अन्दर रहनेवाला या इसका मालिक कोई साधारण आदमी नहीं है। देवीसिंह के लिए यह बात पैदा होती थी कि यह स्थान हमारे इलाके में होने पर भी अफसोस और ताज्जुब की बात है कि इतने दिनों तक हम लोगों को इसका पता न लगा।
पर्दा उठकर अन्दर जाने पर हमारे दोनों ऐयारों ने अपने को एक गोल कमरे में पाया, जिसकी छत भी गोल और गुम्बजदार थी और उसमें बहुत सी बिल्लौरी हाँडियाँ, जिसमें इस समय मोमबत्तियाँ जल रही थीं, कायदे और मौके के साथ लटक रही थीं। दीवारों पर खूबसूरत जंगलों और पहाड़ों की तस्वीरें निहायत खूबी के साथ बनी हुई थी, जो इस जगह की ज्यादे रोशनी के सबब साफ मालूम होती थीं और यही जान पड़ता था कि अभी बनकर तैयार हुई हैं। इन तस्वीरों को अकस्मात देवीसिंह और भूतनाथ ने रोहतासगढ़ के पहाड़ और किले की भी तस्वीर देखी, जिसके सबब से और तस्वीरों को भी गौर से देखने का शौक इन्हें हुआ, मगर ठहरने की मोहलत न मिलने के सबब से लाचार थे। यहाँ की जमीन पर सुर्ख मखमली मुलायक गद्दा बिछा हुआ था और सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे नजर आ रहे थे जिन पर बेशकीमती किमखाब के पर्दें पड़े हुए थे और उसमें मोतियों की झालरें लटक रही थीं। हमारे दोनों ऐयारों को दाहिनी तरफ वाले दरवाजे के अन्दर जाना पड़ा, जहाँ गली के ढंग पर रास्ता घूमा हुआ था। इस रास्ते में भी मखमली गद्दा बिछा हुआ था। दोनों तरफ की दीवारें साफ और चिकनी थीं, तथा छत के सहारे एक बिल्लौरी कन्दील लटक रही थी, जिसकी रोशनी इस सात-आठ हाथ लम्बी गली के लिए काफी थी। इस गली को पार करके ये दोनों एक बहुत बड़े कमरे में पहुँचाये गये, जिसकी सजावट और खूबी ने उन्हें ताज्जुब में डाल दिया और वे हैरत की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।
जंगल, मैदान, पहाड़, खोह, दर्रे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोरचे, और लड़ाई इत्यादि की तस्वीरें चारों तरफ दीवार में इस खूबी और सफाई के साथ बनी हुई थीं कि देखने वाला यह कह सकता था कि बस इससे ज्यादे कारीगरी और सफाई का काम मुसौवर कर ही नहीं सकता। छत पर हर तरह की चिड़ियों और उनके पीछे झपटते हुए बाज बहरी इत्यादि शिकारी परिन्दों की तस्वीरें बनी हुई थीं, जो दीवारगीरों और कन्दीलों की तेज रोशनी के सबब बहुत साफ दिखायी दे रही थीं। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था और सामने की तरफ हाथ-भर ऊँची गद्दी पर दो नकाबपोश तथा गद्दी के नीचे और कई आदमी अदब के साथ बैठे हुए थे, मगर उनमें से ऐसा कोई भी न था, जिसके चेहरे पर नकाब न हो।
देवीसिंह और भूतनाथ को उम्मीद थी कि हम उन्हीं दोनों नकाबपोशों को उसी ढंग की पोशाक में देखेंगे, जिन्हें कई दफे देख चुकें हैं, मगर यहाँ उसके विपरीत देखने में आया। इस बात का कोई निश्चय तो नहीं हो सकता था कि इस नकाब के अन्दर वही सूरत छिपी हुई है और लेकिन पोशाक और आवाज यही प्रकट करती थी कि वे दो कोई दूसरे ही हैं, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन दोनों की पोशाक उन नकाबपोशों से कहीं बढ़-चढ़के थी, जिन्हें भूतनाथ और देवीसिंह देख चुके थे।
जब देवीसिंह और भूतनाथ उन दोनों नकाबपोशों के सामने खड़े हुए तो उन दोनों में से एक ने अपने आदमियों से पूछा, "वे दोनों कौन हैं, जिन्हें गिरफ्तार कर लाये हो?"
एक : जी, इनमें से एक (हाथ का इशारा करके) राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार देवीसिंह हैं, और यह वही मशहूर भूतनाथ है, जिसका मुकद्दमा आजकल राजा बीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश है।
नकाबपोश : (ताज्जुब से) हाँ! अच्छा तो ये दोनों यहाँ क्यों आये? अपनी मर्जी से आये हैं या तुम लोग जबर्दस्ती गिरफ्तार कर लाये हो?
वह आदमी : इस हाते के अन्दर तो ये दोनों आदमी अपनी मर्जी से आये थे, मगर यह हम लोग गिरफ्तार करके लाये हैं।
नकाबपोश : (कुछ कड़ी आवाज में) गिरफ्तार करने की जरूरत क्यों पड़ी? किस तरह मालूम हुआ कि ये दोनों यहाँ बदनीयती के साथ आये है? क्या इन दोनों ने तुम लोगों से कुछ हुज्जत की थी?
वही आदमी : जी हुज्जत तो किसी से न की, मगर छिप-छिपकर आने और पेड़ की आड़ में खड़े होकर ताक-झाँक करने से मालूम हुआ कि इन दोनों की नीयत अच्छी नहीं है, इसलिए गिरफ्तार कर लिये गये।
नकाबपोश : इतने बड़े प्रतापी राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐसे नामी ऐयार के साथ केवल इतनी बात पर इस तरह बर्ताव करना तुम लोगों को उचित न था, कदाचित् ये हम लोगों से मिलने के लिए आये हों। हाँ, अगर केवल भूतनाथ के साथ ऐसा बरताव होता तो ज्यादे रंज की बात न थी।
यद्यपि नकाबपोश की आखिरी बात भूतनाथ को कुछ बुरी मालूम हुई, मगर कर ही क्या सकता था? साथ ही इसके यह भी देख रहा था कि नकाबपोश भलमनसी और सभ्यता के साथ बातें कर रहा है, जिसकी उम्मीद यहाँ आने के पहिले कदापि न थी। अस्तु जब नकाबपोश अपनी बात पूरी कर चुका तो इसके पहिले कि उसका नौकर कुछ जवाब दे, भूतनाथ क्या बोल उठा— "कृपानिधान, हम लोग यहाँ किसी बुरी नीयत से नहीं आये हैं, न तो चोरी करने का इरादा है, न किसी को तकलीफ देने का, मैं केवल अपनी स्त्री का पता लगाने के लिए यहाँ आया हूँ, क्योंकि मेरे जासूसों ने मेरी स्त्री के यहाँ होने की मुझे इत्तिला दी थी।"
नकाबपोश : (मुस्कुराकर) शायद ऐसा ही हो, मगर मेरा खयाल कुछ दूसरा ही है। मेरा दिल कह रहा है कि तुम लोग उन दोनों नकाबपोशों का असल हाल जानने के लिए यहाँ आये हो, जो राजा साहब के दरबार में जाकर अपने विचित्र कामों से लोगों को ताज्जुब में डाल रहे हैं, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ लो कि यह मकान उन दोनों नकाबपोशों का नहीं है, बल्कि हमारा है। उनके मकान में जाने का रास्ता तुम उस सुरंग के अन्दर ही छोड़ आये, जिसे तै करके यहाँ आये हो, अर्थात् हमारे और उनके मकान का रास्ता बाहर से तो एक ही है, मगर सुरंग के अन्दर आकर दो हो गया है। खैर, जोकुछ हो इस बारे में ज्यादा बातचीत करना उचित नहीं समझते, और न तुम लोगों को कुछ तकलीफ ही देना चाहते हैं, बल्कि अपना मेहमान समझकर कहते हैं कि अब आ गये हो तो रात-भर कुटिया में आराम करो, सवेरा होने पर जहाँ इच्छा हो चले जाना। (गद्दी के नीचे बैठे हुए एक नकाबपोश की तरफ देखके) यह काम तुम्हारे सुपुर्द किया जाता है, इन्हें खिला-पिलाकर ऊपरवाली मंजिल में सोने की जगह दो और सुबह को इन्हें खोह के बाहर पहुँचा दो।
इतना कहकर वह नकाबपोश उठ खड़ा हुआ और उसका साथी दूसरा भी जाने के लिए तैयार हो गया, जिस जगह इन नकाबपोशों की गद्दी लगी हुई थी, उस (गद्दी) के पीछे दीवार में एक दरवाजा था, जिस पर पर्दा लटक रहा था। दोनों नकाबपोश पर्दा उठाकर अन्दर चले गये और यह छोटा-सा दरबार बरखास्त हुआ। गद्दी के नीचे बैठनेवाले भी मुसाहब दरबारी का नौकर जोकोई हों उठ खड़े हुए और उस आदमी ने जिसे दोनों ऐयारों की मेहमानी का हुक्म हुआ था, देवीसिंह और भूतनाथ की तरफ देखकर कहा—"आप लोग मेहरबानी करके मेरे साथ आइए और ऊपर की मंजिल में चलिए।" भूतनाथ और देवीसिंह भी कुछ उज्र न करके पीछे-पीछे चलने के लिए तैयार हो गये।
नकाबपोश की बातों ने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को ताज्जुब में डाल दिया। भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा था कि अपनी स्त्री की खोज में यहाँ आया हूँ, मगर बहुत कुछ कह जाने पर भी नकाबपोश ने भूतनाथ की इस बात का कोई जवाब न दिया और ऐसा करना भूतनाथ के दिल में खुटका पैदा करने के लिए कम न था। भूतनाथ को निश्चय हो गया कि उसकी स्त्री यहाँ है, और अवश्य है। उसने सोचा कि जो नकाबपोश राजा बीरेन्द्रसिंह के दरबार में पहुँचकर बड़ी-बड़ी गुप्त बातें इस अनूठे ढंग से खोलते हैं, उनके घर में यदि मैं अपनी स्त्री को देखूँ तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे देवीसिंह ने तो एक शब्द भी मुँह से निकालना पसन्द न किया, न मालूम इसका सबब क्या था और वे क्या सोच रहे थे, मगर कम-से-कम इस बात की शर्म तो उनकों जरूर ही थी कि वे यहाँ आने के साथ ही गिरफ्तार हो गये। यह तो नकाबपोश की मेहरबानी थी कि हथकड़ी और बेड़ी से उनकी खातिर न की गयी।
वह नकाबपोश कई रास्तों से घुमाता-फिराता भूतनाथ और देवीसिंह को ऊपरवाली मंजिल में ले गया। जो लोग इन दोनों को गिरफ्तार कर लाये थे, वे भी उनके साथ गये।
जिस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह पहुँचाये गये वह यद्यपि बहुत बड़ा न था, मगर जरूरी और मामूली ढंग के सामान से सजाया हुआ था। कन्दील की रोशनी हो रही थी, जमीन पर साथ-सुथरा फर्श बिछा था और कई तकिए भी रक्खे हुए थे, संगमरमर की छोटी चौकी बीच में रक्खी हुई थी और किनारे दो सुन्दर पलंग आराम करने के लिए बिछे हुए थे।
भूतनाथ और देवीसिंह को खाने-पीने के लिए कई दफा कहा गया, मगर उन दोनों ने इनकार किया। अस्तु, लाचार होकर नकाबपोशों ने उन लोगों को आराम करने के लिए उसी जगह छोड़ा और स्वयं उन आदमियों को जो दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, साथ लिये हुए वहाँ से चला गया। जाती समय ये लोग बाहर से दरवाजे की जंजीर बन्द करते गये और इस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह अकेले रह गये।
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