मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
चौथा बयान
कैद से छूटने बाद लीला को साथ लिये हुए मायारानी ऐसी भागी कि उसने पीछे की तरफ फिरके भी नहीं देखा। आँधी और पानी के कारण उन दोनों को भागने में बड़ी तकलीफ हुई, कई दफे वे दोनों गिरीं और चोट भी लगी, मगर प्यारी जान को बचाकर ले भागने के खयाल ने उन्हें किसी तरह दम लेने न दिया। दो घण्टे के बाद आँधी-पानी का जोर जाता रहा, आसमान साफ हो गया। और चन्द्रमा भी निकल आया, उस समय उन दोनों को भागने में सुबीता हुआ सवेरा होते तक ये दोनों बहुत दूर निकल गयीं।
मायारानी यद्यपि खूबसूरत थी, नाजुक थी और अमीरी परले सिरे की कर चुकी थी, मगर इस समय ये सब बातें हवा हो गयीं। पैरों में छाले पड़ जाने पर भी उसने भागने में कसर न की और सवेरा हो जाने पर भी दम न लिया, बराबर भागती ही चली गयीं। दूसरा दिन भी उसके लिए बहुत अच्छा था, आसमान पर बदली छायी हुई थी और धूप को जमीन तक पहुँचने का मौका नहीं मिलता था। अब मायारानी बातचीत करती हुई और पिछली बातें लीला को सुनाती हुई रुककर चलने लगी। थोड़ी दूर जाती फिर ज़रा दम ले लेती, पुनः उठकर चलती और कुछ दूर बाद दम लेने के लिए बैठ जाती। इस तरह दूसरा दिन भी मायारानी ने सफर ही में बिता दिया और खाने-पीने की कुछ विशेष परवाह न की। सन्ध्या होने के कुछ पहिले वे दोनों एक पहाड़ी की तराई में पहुँची, जहाँ साफ पानी का सुन्दर चश्मा बह रहा था और जंगली बेर तथा मकोय के पेड़ भी बहुतायत से थे। वहाँ पर लीला ने मायारानी से कहा कि अब डरने तथा चलते-चलते जान देने की कोई जरूरत नहीं है, हम लोग बहुत दूर निकल आये हैं और ऐसे रास्ते से आये हैं कि जिधर से किसी मुसाफिर की आमदरफ्त नहीं होती। अस्तु, अब हम लोगों को बेफिक्री के साथ आराम करना चाहिए। यह जगह इस लायक है कि हम लोग खा-पीकर अपनी आत्मा को सन्तोष दे लें और अपनी-अपनी सूरतें भी अच्छी तरह बदलकर पहिचाने जाने का खटका मिटा लें!"
लीला की बात मायारानी ने स्वीकार की और चश्मे के पानी से हाथ-मुँह धोने और जरा दम लेने बाद सबके पहिले सूरत बदलने का बन्दोबस्त करने लगी, क्योंकि दिन नाममात्र को रह गया था और रात हो जाने पर बिना रोशनी के सहारे यह काम अच्छी तरह नहीं हो सकता था।
सूरत-शक्ल के हेर-फेर से छुट्टी पाने बाद दोनों ने जंगली बेर और मकोय को अच्छे-से-अच्छा मेवा समझकर भोजन किया और चश्मे का जल पीकर आत्मा को सन्तोष दिया, तब निश्चित होकर बैठीं और यों बातचीत करने लगी—
माया : अब ज़रा जी ठिकाने हुआ, मगर शरीर चूर-चूर हो गया। खैर, किसी तरह तेरी बदौलत जान बच गयी, नहीं तो मैं हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी और राह देखती थी कि मेरी जान किस तरह ली जाती है।
लीला : चाहे तुम्हारे बिलकुल नौकर-चाकर तुम्हारे अहसानों को भूल जायें और तुम्हारे नमक का खयाल न करें, मगर मैं कब ऐसा कर सकती हूँ, मुझे दुनिया में तुम्हारे बिना चैन कब पड़ सकता है, जब तक तुम्हें कैद से छुड़ा न लिया, अन्न का दाना मुँह में न डाला, बल्कि अभी तक जंगली बेर और मकोय पर ही गुजारा कर रही हूँ।
माया : शाबाश! मैं तुम्हारे इस अहसान को जन्म-भर नहीं भूल सकती, जिस तरह आप रहूँगी, उसी तरह तुम्हें भी रक्खूँगी, यह जान तुमने बचायी है, इसलिए जब तक इस दुनिया में रहूँगी, इस जान का मालिक तुम्हीं को समझूँगी।
लीला : (तिलिस्मी तमंचा और गोली मायारानी के सामने रखकर) यह अपनी अमानत आप लीजिए और अब इसे अपने पास रखिए, इसने बड़ा काम किया।
माया : (तमंचा उठाकर और थोड़ी-सी गोली लीला को देकर) इन गोलियों को अपने पास रक्खो, बिना तमंचे के भी ये बड़ा काम देंगी, जिस तरफ फेंक दोगी या जहाँ जमीन पर पटकोगी, उसी जगह ये अपना गुण दिखलावेंगी।
लीला : (गोली रखकर) बेशक ये बड़े वक्त पर काम दे सकती हैं। अच्छा यह कहिए कि अब हम लोगों को क्या करना और कहाँ जाना चाहिए?
माया : इसका जवाब भी तुम्हीं बहुत अच्छा दे सकती हो, मैं केवल इतना ही कहूँगी कि गोपालसिंह और कमलिनी को इस दुनिया से उठा देना सबसे पहिला और जरूरी काम समझना चाहिए। किशोरी, कामिनी और कमला को मारकर मनोरमा ने कुछ भी न किया, उतनी ही मेहनत अगर गोपालसिंह और कमलिनी को मारने के लिए करती तो इस समय मैं पुनः तिलिस्म की रानी कहलाने लायक हो सकती थी।
लीला : ठीक है मगर मुझे...(कुछ रुककर) देखो तो वह कौन सवार जा रहा है! मुझे तो उस छोकरे रामदीन की छटा मालूम पड़ती है। यह पंचकल्यान मुश्कीघोड़ी भी अपने ही अस्तबल की मालूम पड़ती है, बल्कि...
माया : (गौर से देखकर) वही है, जिस पर मैं सवार हुआ करती थी, और बेशक वह सवार भी रामदीन ही है, उसे पकड़ो तो गोपालसिंह का ठीक हाल मालूम हो।
लीला : पकड़ना तो कोई कठिन काम नहीं है, क्योंकि तिलिस्मी तमंचा तुम्हारे पास मौजूद है, मगर यह कमबख्त कुछ बतानेवाला नहीं है।
माया : खैर, जो हो, मैं गोली चलाती हूँ।
इतना कहकर मायारानी ने फुर्ती से तिलिस्मी तमंचे में गोली भरकर सवार की तरफ चलायी। गोली घोड़ी की गर्दन में लगी और तुरंत फट गयी, घोड़ी भड़की और उछली-कूदी, मगर गोली से निकले हुए बेहोशी के धुएँ ने अपना असर करने में उससे भी ज्यादे तेजी और फुर्ती दिखायी। घोड़ी और सवार दोनों ही पर बेहोशी का असर हो गया। सवार जमीन पर गिर पड़ा और दो कदम आगे बढ़कर घोड़ी भी लेट गयी। मायारानी और लीला ने दूर से यह तमाशा देखा और दौड़ती हुई सवार के पास पहुँची।
लीला : पहिले इसकी मुश्कें बाँधनी चाहिए।
माया : क्या जरुरत है?
लीला : क्यों, फिर इसे बेहोश किसलिए किया?
माया : तुम खुद ही कह चुकी हो कि यह कुछ बतानेवाला नहीं है, फिर मुश्कें बाँधने से मतलब?
लीला : आखिर फिर किया क्या जायगा?
माया : पहिले तुम इसकी तलाशी ले लो फिर जोकुछ करना होगा, मैं बताऊँगी।
लीला : बहुत खूब, यह तुमने ठीक कहा।
इस समय सन्ध्या पूरे तौर पर हो चुकी थी, परन्तु चन्द्रदेव के दर्शन हो रहे थे, इसलिए यह नहीं कह सकते कि अन्धकार पल-पल में बढ़ता जाता था। लीला उस सवार की तलाशी लेने लगी और पहिले ही दफे जेब में हाथ डालने से उसे दो चीजें मिलीं। एक तो हीरे की कीमती अँगूठी, जिस पर राजा गोपालसिंह का नाम खुदा था, और दूसरी चीज एक चीठी थी, जो लिफाफे के तौर पर लपेटी हुई थी।
चाहे अन्धकार न हो, मगर चीठी और अँगूठी पर खुदे हुए नाम को पढ़ने के लिए रोशनी की जरूरत थी और जब तुम चीठी का हाल मालूम न हो जाय, तब तक कुछ काम करना या आगे तलाशी लेना उन दोनों को मंजूर न था। अस्तु, लीला ने अपने ऐयारी के बटुए में से सामान निकालकर रोशनी पैदा की और मायारानी ने सबके पहिले अँगूठी पर निगाह दौड़ाई। अँगूठी पर ‘श्रीगोपाल' खुदा हुआ देख उसके रोंगटे खड़े हो गये, फिर भी अपनी तबीयत सम्हालकर वह चीठी पढ़नी पड़ी, चीठी में यह लिखा हुआ था—
"बेनीराम जोग लिखी गोपालसिंह—
"आज हमने अपना परदा खोल दिया, कृष्णाजिन्न के नाम का अन्त हो गया, जिनके लिए यह स्वाँग रचा गया था, उन्हें मालूम हो गया कि गोपालसिंह और कृष्णाजिन्न में कोई भी भेद नहीं है। अस्तु, अब हमने काम-काज के लिए इस छोकरे को अपनी अँगूठी देकर विश्वास का पात्र बनाया है। जब तक यह अँगूठी इसके पास रहेगी, तब तक इसका हुक्म हमारे हुक्म के बराबर सभों को मानना होगा। इसका बन्दोबस्त कर देना और दो सौ सवार तथा चार रथ बहुत जल्द पिपलिया घाटी में भेज देना। हम किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और कमलिनी बगैरह को लेकर आ रहे हैं थोड़ा-सा जलपान का सामान उम्दा अलग भेजना। परसों रविवार की शाम तक हम लोग पहुँच जायेंगे।"
इस चीठी ने मायारानी का कलेजा दहला दिया और उसने घबड़ाकर इसे पढ़ने के लिए लीला के हाथ में दे दिया।
माया : ओफ! मुझे स्वप्न में भी इस बात का गुमान न था कि कृष्णाजिन्न वास्तव में गोपालसिंह है! आह! जब मैं पिछली बातें याद करती हूँ तो कलेजा काँप जाता है, और मालूम होता है कि गोपालसिंह ने मेरी तरफ से लापरवही नहीं की, बल्कि मुझे बुरी तरह से दुःख देने का इरादा कर लिया था। किशोरी कामिनी और कमला के बारे में भी...ओफ! बस अब मैं इस जगह दम-भर भी नहीं ठहर सकती और ठहरना उचित भी नहीं है।
लीला : बेशक, ऐसा ही है, मगर कोई हर्ज नहीं, आज यदि कृष्णाजिन्न का भेद खुल गया है तो यह (अँगूठी और चीठी दिखाकर) चीजें भी बड़ी ही अनूठी मिल गयी हैं। तुम बहुत जल्द देखोगी कि इस चीठी और अँगूठी की बदौलत मैं कैसे-कैसे नामी ऐयारों की आँखों में धूल डालती हूँ और गोपालसिंह तथा उसके सहायकों को किस तरह तड़पा-तड़पाकर मारती हूँ। तुम यह भी देखोगी कि तुम्हारे उन लोगों ने जो ऐयारों का बाना पहिने हुए थे और नामी ऐयार कहलाते थे, उसका पासंग भी नहीं किया, जो मैं अब कर दिखाऊँगी। तो अब यहाँ से चलना चाहिए।
माया : बहुत जल्दी ही चलना चाहिए, मगर क्या इस छोकरे को जीता ही छोड़ जाओगे?
लीला : नहीं नहीं, कदापि नहीं। क्या इसे मैं इसलिए जीता छोड़ जाऊँगी कि यह होश में आकर जमानिया या गोपालसिंह के पास चला जाय और मेरी कार्रवाइयों में बट्टा लगाये!
इतना कहकर लीला ने खंजर निकाला और एक ही हाथ में बेचारे रामदीन का सिर काट दिया, तब लाश को उसी तरह छोड़ घोड़ी को होश में लाने का उद्योग करने लगी।
थोड़ी देर में घोड़ी भी चैतन्य हो गयी, उस समय लीला के कहे अनुसार मायारानी उस घोड़ी पर सवार हुई और दोनों ने वहाँ से हटकर एक घने जंगल का रास्ता लिया। लीला घोड़ी की रिकाब थामे साथ-साथ बातें करती हुई जाने लगी।
माया : यह मदद मुझे गैब से मिली है, यकायक रामदीन का मिल जाना और उसकी जेब में से अँगूठी तथा चीठी का निकल आना कहे देता है कि मेरे बुरे दिन बहुत जल्द खत्म हुआ चाहते हैं।
लीला : इसमें क्या शक है! अबकी दफे तो राजा गोपालसिंह सचमुच हमारे कब्जे में आ गये हैं। अफसोस इतना ही है कि हम लोग अकेले हैं, अगर सौ-पचास आदमियों की भी मदद होती तो आज गोपालसिंह तथा किशोरी, लक्ष्मीदेवी और कमलिनी बगैरह को सहज ही में गिरफ्तार कर लेते।
माया : अब उन लोगों को गिरफ्तार करने का खयाल तो बिल्कुल जाने दे और एकदम से उन लोगों को मारकर बखेड़ा निपटा डालने की ही फिक्र कर। इस अँगूठी और चीठी के मिल जाने पर यह कोई मुश्किल नहीं है।
लीला : ठीक है, जो कुछ तुम चाहती हो मैं पहिले से समझे बैठी हूँ। मेरा इरादा है कि तुम्हें किसी अच्छी हिफाजत की जगह पर छोड़कर, मैं जमनिया जाऊँ और दीवान साहब से मिलूँ, जिसके नाम गोपालसिंह ने यह चीठी लिखी है।
माया : बस रामदीन छोकरे की सूरत बना ले और इसी घोड़ी पर सवार होकर चीठी लेकर जा। इस चीठी के अलावे भी तू जो कुछ दीवान को कहेगी, वह उससे इन्कार न करेगा। गोपालसिंह के लिखे अनुसार जो-कुछ खाने-पीने की चीजें तू लेकर उस घाटी की तरफ जायगी, उसमें जहर मिला देना तो तेरे लिए कोई मुश्किल न होगा और इस तरह एक साथ ही कई दुश्मनों की सफाई हो जायगी, मगर इसमें भी मुझे एक बात का खुटका होता है।
लीला : वह क्या?
माया : जिस वक्त से मुझे यह मालूम हुआ है कि गोपालसिंह ही ने कृष्णाजिन्न का रुप धारण किया था, उस वक्त से मैं उसे बहुत ही चालाक और धूर्त ऐयार समझने लग गयी हूँ, ताज्जुब नहीं कि वह तेरा भेद मालूम कर ले या वे खाने-पीने की चीजें जो उसने मँगायी है, उनमें से स्वयं कुछ भी न खाये।
लीला : यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है। मेरा दिल भी यही कहता है कि उसने खाने-पीने का बहुत बड़ा ध्यान रक्खा होगा, सिवाय अपने हाथ के और किसी का बनाया कदापि न खाता होगा, क्योंकि वह तकलीफें उठा चुका है, अब उसे धोखा देना जरा टेढ़ी खीर है, मगर फिर भी तुम देखोगी कि इस अँगूठी की बदौलत मैं उसे कैसा धोखा देती हूँ, और किस तरह अपने पंजे में फँसाती हूँ।
माया : खैर जो मुनासिव समझ, कर, मगर इसमें तो कोई शक नहीं है कि रामदीन छोकरे की सूरत बन और घोड़ी पर सवार होकर तू दीवान साहब के पास जायगी।
लीला : जाऊँगी और जरूर जाऊँगी, नहीं तो इस अँगूठी और चीठी के मिलने का फायदा ही क्या हुआ! बस तुम्हें किसी अच्छे ठिकाने पर रख देने-भर की देर है।
माया : मगर मैं एक बात और कहा चाहती हूँ।
लीला : वह क्या?
माया : मैं इस समय बिल्कुल कंगाल हो रही हूँ, और ऐसे मौंके पर रुपये की बड़ी जरूरत है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि दीवान साहब के पास तुझे न भेजकर खुद ही जाऊँ और किसी तरह तिलिस्मी बाग में घुसकर कुछ जवाहिरात और सोना जहाँ तक ला सकूँ, ले आऊँ, क्योंकि मुझे वहाँ के खजाने का हाल मालूम है, और यह काम तेरे किये नहीं हो सकता। जब मुझे रुपये की मदद मिल जायेगी, तब कुछ सिपाहियों का भी बन्दोबस्त कर सकूँगी और...
लीला : यह सबकुछ ठीक है, मगर मैं तुम्हें दीवान साहब के पास कदापि न जाने दूँगी। कौन ठिकाना कहीं तुम गिरफ्तार हो जाओ तो फिर मेरे किये कुछ भी न हो सकेगा। बाकी रही रुपये-पैसेवाली बात, सो इसके लिए तरद्दुद करना वृथा है, क्या यह नहीं हो सकता कि जब मैं दीवान साहब के पास जाऊँ और सवारी इत्यादि तथा खाने-पीने की चीजें लूँ तो एक रथ पर थोड़ी-सी अशर्फियाँ और कुछ जवाहिरात भी रख देने के लिए कहूँ? क्या वह इस अँगूठी के प्रताप से मेरी बात न मानेगा? और अगर अशर्फियों और जवाहिरात का बन्दोबस्त कर देगा तो क्या मैं उन्हें रास्ते में से गुम नहीं कर सकती? इसे भी जाने दो, अगर तुम पता-ठिकाना ठीक-ठीक बताओ तो क्या मैं तिलिस्मी बाग में जाकर जवाहिरात और अशर्फियों को नहीं निकाल ला सकती?
माया : निकाल ला सकती है, और दीवान साहब से भी जोकुछ माँगेगी, सम्भव है कि बिना विचारे दे दें, मगर इसमें मुझे दो बातों की कठिनाई मालूम पड़ती है।
लीला : वह क्या?
माया : एक तो दीवान साहब के पास अन्दाज से ज्यादे रुपै-अशर्फियों की तहवील नहीं रहती और जवाहिरात तो बिल्कुल ही उसके पास नहीं रहता, शायद आजकल गोपलसिंह के हुक्म से रहता हो, मगर मुझे उम्मीद नहीं है। अस्तु, जो चीज तू उससे माँगेगी वह अगर उसके पास न हुई तो उसे तुझ पर शक करने की जगह मिलेगी और ताज्जुब नहीं कि काम में बिघ्न पड़ जाय।
लीला : अगर ऐसा है तो जरुर खुटके की बात है, अच्छा दूसरी बात क्या है?
माया : दूसरे यह कि तिलिस्मी बाग के खजाने में घुसकर वहाँ से कुछ निकाल लाना नये आदमी का काम नहीं है। खैर, मैं तुझे रास्ता बता दूँगी फिर जो कुछ करते बने कर लीजियो।
लीला : खैर, जैसा होगा देखा जायगा, मगर मैं यह राय कभी नहीं दे सकती कि तुम दीवान साहब के सामने या खास बाग में जाओ, ज्यादे नहीं तो थोड़ा-बहुत मैं ले ही आऊँगी।
माया : अच्छा यह बता कि मुझे कहाँ छोड़ जायगी और तेरे जाने बाद मैं क्या करूँगी?
लीला : इतनी जल्दी में कोई अच्छी जगह तो मिलती नहीं, किसी पहाड़ की कन्दरा में दो दिन गुजारा करो और चुपचाप बैठी रहो, इसी बीच में मैं अपना काम करके लौट आऊँगी। मुझे जमानिया जाने में अगर देर हो जायगी तो काम चौपट हो जायगा। ताज्जुब नहीं कि देर हो जाने के कारण गोपालसिंह किसी दूसरे को भेज दें और अँगूठी का भेद खुल जाय।
इत्तिफाक अजब चीज है। उसने यहाँ भी एक बेढब सामान खड़ा कर दिया। इत्तिफाक से लीला और मायारानी भी उसी जंगल में जा पहुँची, जिसमें माधवी और भीमसेन का मिलाप हुआ था और वे लोग अभी तक वहाँ टिके हुए थे।
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