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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


भैरोसिंह के चले जाने के बाद दरवाजा बन्द हो जाने से दोनों कुमारों को ताज्जुब ही नहीं हुआ, बल्कि उन्हें भैरोसिंह की तरफ से एक प्रकार की फिक्र लग गयी। आनन्दसिंह ने अपने बड़े भाई की तरफ देखकर कहा, "अब इस रात के समय भैरोसिंह के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं?"

इन्द्रजीत : कुछ भी नहीं। मगर भैरोसिंह के हाथ में तिलिस्मी खंजर है, वह यकायक किसी के कब्जे में न आ सकेगा।

आनन्द : पहिले भी तो उनके पास तिलिस्मी खंजर था, बल्कि ऐयारी का बटुआ भी मौजूद था, तब उन्होंने क्या कर लिया था?

इन्द्रजीत : सो तो ठीक कहते हो, तिलिस्म के अन्दर हर तरह से बचे रहना मामूली काम नहीं है, मगर रात के समय अब हो ही क्या सकता है?

आनन्द : मेरी राय है कि तिलिस्मी खंजर से इस छोटे से दरवाजे को काटने का उद्योग किया जाय, शायद...

इन्द्रजीत : अच्छी बात है, कोशिश करो।

आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का वार उस छोटे से दरवाजे पर किया मगर कोई नतीजा नहीं निकला, आखिर दोनों भाई लाचार होकर वहाँ से हटे और किसी दालान में एक किनारे बैठकर बातचीत में रात बिताने का उद्योग करने लगे।

रात के साथ-ही-साथ दोनों कुमारों की उदासी भी कुछ-कुछ जाती रही और फूलों की महक से बसी हुई सुबह की ठण्डी हवा ने उद्योग और उत्साह का संचार किया। दोनों के पराधीन और चुटीले दिलों में किसी की याद ने गुदगुदी पैदा कर दी और बारह पर्दे के अन्दर से भी खुशबू फैलानेवाली, मगर कुछ दिनों तक नाउम्मीदी के पाले से गन्धहीन हो गयी कलियों पर आशारूपी वायु के झपेटे से बहकर आये हुए श्रृंगाररूपी भ्रमर इस समय पुनः गुंजार करने लग गये।

क्या आज दिन भर की मेहनत से भी अपने प्रेमी का पता न लगा सकेंगे? क्या आज दिन-भर के उद्योग की सहायता में भी इस छोटी-सी, मगर अनूठी रंगशाला के नेपथ्य में से किसी को खोज निकालने में सफल मनोरथ न होंगे? क्या आज दिन-भर की कार्रवाई भी हमें विश्वास न दिला सकेगी कि इस जानोदिल का मालिक इसी स्थान में आ पहुँचा है, जैसा कि सुन चुके हैं और क्या आज दिन-भर की उपासना का फल भी जुदाई की उस काली घटा को दूर न कर सकेगा, जिसने इन चकोरों को जीवनदान देनेवाले पूर्णचन्द्र को छिपा रक्खा है? नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आज दिन भर में हम बहुत कुछ कर सकेंगे, और उनका पता अवश्य लगावेंगे, जिन पर अपनी जिन्दगी का भरोसा समझते हैं और जिनके विलाप से बढ़कर इस दुनिया में और किसी चीज को नहीं मानते।

इसी तरह की बातें सोचते हुए दोनों कुमार खड़े हो गये। नहर के किनारे आकर हाथ-मुँह धोने बाद घड़ी-भर के अन्दर ही जरूरी कामों से छुट्टी पावे बाग में घूमने और वहाँ की हरएक चीज को गौर से देखने लगे और थोड़ी ही देर में बारहदरी के सामनेवाली उस दोमंजिला इमारत के नीचे जा पहुँचे, जिसके ऊपर वाली मंजिल में रात को कोई काम करते हुए भैरोसिंह ने कई आदमियों को देखा था।

इस इमारत के नीचेवाला भाग ऊपरवाले हिस्से के विपरीत दरवाजे बल्कि दरवाजे को किसी नामोनिशान तक से भी खाली था। बाग की तरफ वाली नीचे की दीवार साफ तथा चिकने संगमरमर की बनी हुई थी और बीचोबीच चार हाथ ऊँचा और दो हाथ चौढ़ा स्याह पत्थर का एक टुकड़ा लगा हुआ था। उसमें नीचे लिखे मोठे छत्तीस अक्षर खुदे हुए थे, जिसे दोनों कुमार बड़े गौर से देखने और उनका मतलब जानने के लिए उद्योग करने लगे।

वे अक्षर ये थे—

ने    ए    ती    के    स्म    स्सों

हि    को    ड़    की    उ    ति

स्से   का    स   लि   हि     न

या    से    न    न    ट्     र

य    क    ल    सै    जो    गे

रो    ख    हाँ    टें    क    गो

दो घड़ी तक गौर करने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उसका मतलब समझ गये और अपने छोटे भाई कुँअर आनन्दसिंह को भी समझाया, इसके बाद दोनों भाइयों ने जोर करके उस पत्थर को दबाया तो वह अन्दर की तरफ घुसकर जमीन के बराबर हो गया और अन्दर जाने लायक एक खासा दरवाजा दिखायी देने लगा, साथ ही इसके भीतर की तरफ अन्धकार भी मालूम हुआ। इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी करके आगे चलने के लिए आनन्दसिंह से कहा।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गये और एक छोटे-से कमरे में पहुँचे, जिसके बीचोबीच से ऊपर की मंजिल में जाने के लिए छोटी-छोटी चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उन्हीं सीढ़ियों की राह से दोनों कुमार ऊपरवाली मंजिल पर चढ़े गये और एक ऐसी कोठरी में पहुँचे, जिसकी बनावट अर्धचन्द्र के ढंग की थी और तीन दरवाजे बाग की तरफ बारहदरी के ठीक सामने थे, जिसमें रात को दोनों कुमारों ने आराम किया था।

बाग की तरफवाले तीनों दरवाजे खोल देने से उस कोठरी के अन्दर अच्छी तरह उजाला हो गया, उस समय आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द की और उसे कमर में रखने बाद अपने भाई से कहा—

आनन्द : इसी कोठरी में रात को भैरोसिंह ने कई आदमियों को चलते-फिरते तथा काम करते देखा था और मालूम होता है कि इनके दोनों तरफ की कोठरियों का सिलसिला एक-दूसरे से लगा हुआ है और सभों का एक दूसरे से सम्बन्ध है।

इन्द्रजीत : मैं भी ऐसा ही विश्वास करता हूँ, इस दाहिने बगलवाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोलो और देखो कि उसके अन्दर क्या है?

बड़े कुमार की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने बगलवाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोला, उसी समय दोनों कुमारों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई आदमी तेजी के साथ कोठरी में से निकलकर इसके बादवाली दूसरी कोठरी में चला गया। दोनों कुमारों ने तेजी के साथ उसका पीछा किया और उस दूसरी कोठरी में गये जिसका दरवाजा मजबूती के साथ बन्द न था, तो नानक पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस कोठरी के वे दरवाजे जो बाग की तरफ पड़ते थे, बन्द थे, मगर दिन का समय होने के कारण झिलमिलियों की दरारों में से पड़नेवाली रोशनी ने उसमें इतना उजाला जरूर कर रक्खा था कि आदमी की सूरत-शक्ल बखूबी दिखायी दे जाय यही सबक था कि निगाह पड़ते ही दोनों कुमारों ने नानक को पहिचान लिया, इसी तरह नानक ने भी दोनों कुमारों को पहिचानकर प्रणाम किया और कहा, "मैं किसी दुश्मन का होना अनुमान करके भागा था, मगर जब आवाज सुनी तो पहिचानकर रुक गया। मैं कल से आप दोनों भाईयों को खोज रहा हूँ, मगर पता न लग सका क्योंकि तिलिस्मी कारखाने में बिना समझे-बूझे दखल देना उचित न जानकर अपनी बुद्धिमानी या जबर्दस्ती से किसी दरवाजे को खोल न सका और इसीलिए बाग में भी पहुँचने की नौबत न आयी। कहिए आप लोग कुशल से तो हैं!"

इन्द्रजीत : हाँ, हम लोग बहुत अच्छी तरह है, तुम बताओ कि यहाँ कब, कैसे, क्यों और किस तरह से आये?

नानक : कमलिनीजी से मिलने के लिए घर से निकला था, मगर जब मालूम हुआ कि वे राजा गोपालसिंह के साथ जमानिया गयी, तब मैं राजा गोपालसिंह के पास आया और उन्हीं की आज्ञानुसार यहाँ आपके पास आया हूँ।

इन्द्रजीत : किनकी आज्ञानुसार? राजा गोपालसिंह की या कमलिनी की?

नानक : कमलिनी की आज्ञानुसार।

नानक की बात सुनकर आनन्दसिंह ने एक भेद की निगाह इन्द्रजीतसिंह पर डाली और इन्द्रजीतसिंह ने कुछ मुस्कराहट के साथ आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा—"बाग की तरफ जो दरवाजे पड़ते हैं, उन्हें खोल दो, चाँदना हो जाय।"

आनन्दसिंह ने दरवाजे खोल दिये और फिर नानक के पास आकर पूछा, "हाँ तो कमलिनीजी की आज्ञानुसार तुम यहाँ आये?"

नानक : जी हाँ।

आनन्द : कमलिनी को कहाँ छोड़ा?

नानक : राजा गोपालसिंह के तिलिस्मी बाग में।

इन्द्रजीत : वह अच्छी तरह से तो हैं न?

नानक : जी हाँ, बहुत अच्छी तरह से हैं।

आनन्द : घोड़े पर से गिरने के कारण उनकी टाँग जो टूट गयी थी, वह अच्छी हुई?

नानक : यह खबर आपको कैसे मालूम हुई?

आनन्द : अजी वाह, मेरे सामने ही तो घोड़े पर से गिरी थीं, भैरोसिंह ने उनका इलाज किया था, अच्छी हो गयी थीं, मगर कुछ दर्द बाकी था, जब मैं इधर चला आया।

नानक : जी हाँ, अब तो वह बहुत अच्छी हैं।

आनन्द : (हँसकर) अच्छा यह तो बताओ कि तुम किस रास्ते से यहाँ आये हो?

नानक : उसी बुर्जवाले रास्ते से आया हूँ।

आनन्द : मुझे अपने साथ ले चलकर वह रास्ता बता तो दो।

नानक : बहुत अच्छा, चलिए मैं बता देता हूँ, मगर मुझसे कमलिनीजी ने कहा था कि जब तुम बाग में जाओगे तो लौटने का रास्ता बन्द हो जायेगा।

आनन्द : यह तो उन्होंने ठीक कहा था। हम दोनों भाइयों को भी उन्होंने यही कहला भेजा था कि मैं नानक को तुम्हारे पास भेजूँगी, तुम उसकी जुबानी सब हाल सुनकर हिफाजत के साथ उसे तिलिस्म के बाहर कर देना।

नानक : (कुछ शर्माना-सा होकर) जी ई ई ई, आप तो दिल्लगी करते हैं, मालूम होता है आपको मुझपर कुछ शक है और आप समझते हैं कि मैं आपके दुश्मन का ऐयार हूँ और नानक की सूरत बनाकर आया हूँ। अस्तु, आप जिस तरह चाहें मेरी आजमाइश कर सकते हैं।

इतने ही में एक तरफ से आवाज आयी, "जब तुम कमलिनी जी के भेजे हुए आये हो तो। आजमाइश करने की जरूरत ही क्या है? थोड़ी देर में कमलिनी जी का सामना आप ही हो जायेगा!"

इस आवाज ने दोनों कुमारों को तो कम, मगर नानक को हद से ज्यादे परेशान कर दिया। उसके चेहरे पर हवाई-सी उड़ने लगी और वह घबड़ाकर पीछे की तरफ देखने लगा। इस कोठरी में से दूसरी कोठरी में जाने के लिए वह दरवाजा था, वह इस समय मामूली तौर पर बन्द था, इसलिए किसी गैर पर उसकी निगाह न पड़ी, अतएव उस दरवाजे को खोलकर नानक अगली कोठरी में चला गया, मगर साथ ही आनन्दसिंह ने भी वहाँ पहुँचकर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "बस इतने ही में घबड़ा गये! इसी हौसले पर तिलिस्म के अन्दर आये थे! आओ आओ, हम तुम्हें बाग में ले चलते हैं, जहाँ निश्चिन्ती से बैठकर अच्छी तरह बातें कर सकेंगे।"

इसी समय दो दरवाजे खुले और स्याह लबादा ओढ़े हुए चार-पाँच आदमी उसके अन्दर से निकल आये, जो नानक को जबर्दस्ती घसीटकर ले गये, साथ ही वे दरवाजे भी उसी तरह बन्द हो गये, जैसे पहिले थे। दोनों कुमारों ने भी कुछ सोचकर आपत्ति न की और उसे ले जाने दिया।

और कोठरियों की बनिस्बत इस कोठरी में दरवाजे ज्यादे थे, अर्थात् पिछली तरफ भी थे ही, मगर बाग की तरफ चार और दो दरवाजे पिछली तरफ भी थे और उसी पिछली तरफ वाले दोनों दरवाजों में से वे लोग आये थे जो नानक को घसीटकर ले गये थे। नानक को ले जाने बाद आनन्दसिंह ने उन्हीं पिछली तरफवाले दरवाजों में से एक दरवाजा खोला और अन्दर की तरफ झाँकके देखा। भीतर बहुत लम्बा-चौड़ा एक कमरा नजर आया, जिसमें अन्धकार का नाम-निशान भी न था, बल्कि अच्छी तरह उजाला था। दोनों कुमार उस कमरे में चले गये और तब मालूम हुआ कि वे दरवाजे एक ही कमरे में जाने के लिए हैं। इस कमरे में दोनों कुमारों ने एक बहुत बूढ़े आदमी को देखा जो चारपाई के ऊपर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। कुमारों को देखते ही वह चारपाई के नीचे उतरकर खड़ा हो गया और सलाम करके बोला, "आज कई दिनों से मैं आप दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रहा हूँ।"

इन्द्रजीत : तुम कौन हो?

बुड्ढा : जी, मैं इस बाग का दारोगा हूँ।

इन्द्रजीत : तुम हम लोगों का इन्तजार क्यों कर रहे थे?

दारोगा : इसलिए कि आप लोगों को यहाँ की इमारतों और अजायबातों की सैर कराके अपने सर से एक भारी बोझ उतार दूँ।

इन्द्रजीत : क्या इधर दो-तीन दिन के बीच में कोई और भी इस बाग में आया है?

दारोगा : जी हाँ, दो मर्द और कई औरतें आयी हैं।

इन्द्रजीत : क्या उन लोगों के नाम बता सकते हो?

दारोगा : नानक और भैरोसिंह के सिवाय मैं और किसी का नाम नहीं जानता (कुछ सोचकर) हाँ, एक औरत का भी नाम जानता हूँ, शायद इसका नाम कमलिनी है, क्योंकि एक दो बार वह इसी नाम से पुकारी गयी थी, बड़ी ही धूर्त और चालाक है, अपनी अक्ल के सामने किसी को कुछ समझती ही नहीं। अस्तु, बिना धोखा खाये नहीं रह सकती।

इन्द्रजीत : क्या यह बता सकते हो कि वे सब इस समय कहाँ हैं और उनसे मुलाकात क्योंकर हो सकती है?

दारोगा : जी, मुझे उन लोगों का पता नहीं मालूम, क्योंकि कमलिनी ने उन सभों को मेरी बात मानने न दी और अपनी इच्छानुसार उन सभों को लिये हुए चारों तरफ घूमती रही, इसी से मुझे रंज हुआ और मैंने उनकी खबरगीरी छोड़ दी।

इन्द्रजीत : अगर तुम यहाँ के दारोगा हो तो खबरदारी न रखने पर भी यह तो जरूर जानते ही होवोगे कि वे सब कहाँ हैं!

दारोगा : मुझे यहाँ का दारोगा समझने और न समझने का तो आपको अख्तियार है, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि मुझे उन सभों का पता नहीं मालूम है।

आनन्द : (हँसकर) यही हाल है तो यहाँ की हिफाजत क्या करते हो?

दारोगा : इसका हाल तो तभी मालूम होगा, जब आप मेरे साथ चलकर यहाँ की सैर करेंगे।

आनन्द : अच्छा यह बताओ कि अभी हमारे देखते-ही-देखते जो लोग नानक को ले गये, वे कौन थे?

दारोगा : वे सब मेरे ही नौकर थे। वह झूठा और शैतान है, तथा आपको नुकसान पहुँचाने की नीयत से धोखा देकर यहाँ घुस आया हैं, इसलिए मैंने उसे गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।

आनन्द : तुम्हारे आदमी लोग कहाँ रहते हैं? यहाँ तो मैं तुमको अकेला ही देखता हूँ।

दारोगा : यह कमरा मेरा एकान्त स्थान है, जब पढ़ने या किसी विषय पर गौर करने की जरूरत पड़ती है, तब मैं इस कमरे में आकर बैठता या लेटता हूँ। मगर यहाँ खड़े-खड़े बातें करने में तो आपको तकलीफ होगी। आप मेरे स्थान पर चलें तो उत्तम हो या बाग ही में चलिए, जहाँ और भी कई...

इन्द्रजीत : खैर, यह तो होता रहेगा, पहिले हम लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि तुम हमारे दोस्त हो, दुश्मन नहीं और तुम्हारी यह सूरत असली है, बनावटी नहीं। इसके बाद मैं तुमसे दिल खोलकर बातें कर सकूँगा।

दारोगा : इस बात का पता तो आपको मेरी कर्रवाई से ही लग सकेगा, मेरे कहने का आपको ऐतबार कब होगा, मगर इस बात को खूब समझ...

दारोगा की बात पूरी न होने पायी थी कि एक तरफ से आवाज आयी, "अजी तुम्हें कुछ खाने-पीने की भी सुध है, या यों ही बकवाद किया करोगे।"

दोनों कुमार ताज्जुब के साथ उस तरफ देखने लगे, जिधर से आवाज आयी थी। उसी समय एक बुढ़िया उसी तरफ से कमरे के अन्दर आती दिखायी पड़ी और वह दारोगा के पास आकर फिर बोली, " मैंने जो कहा तुमने कुछ सुना या नहीं?"

दारोगा : (क्रोध से) आ गयी शैतान की नानी!

दोनों कुमारों ने देखते ही उस बुढ़िया को पहिचान लिया कि यह वही बुढ़िया है, जो भैरोसिंह की जोरू उस समय बनी हुई थी, जब भैरोसिंह पागल भया हुआ इसी बाग में हम लोगों को दिखायी दिया था।

इन्द्रजीतसिंह ने ताज्जुब और दिल्लगी की निगाह से उस बुढ़िया की तरफ देखा और कहा, "अभी कल की बात है कि तू भैरोसिंह पागल की जोरु बनी हुई थी और आज इस दारोगा को अपना मालिक बता रही है।"

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