मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 5 चन्द्रकान्ता सन्तति - 5देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...
दूसरा बयान
पाठकों को मालूम है कि शिवदत्त और कल्याणसिंह ने जब रोहतासगढ़ पर चढ़ाई की थी, तब उनके साथ मनोरमा और माधवी भी मौजूद थीं। भूतनाथ और सर्यूसिंह ने शिवदत्त और कल्याणसिंह को डरा धमकाकर मनोरमा को तो गिरफ्तार कर लिया* परन्तु माधवी कहाँ गयी या क्या हुई, इसका हाल कुछ लिखा नहीं गया। अस्तु, अब हम थोड़ा-सा हाल माधवी का लिखना उचित समझते हैं। (* देखिए चौदहवाँ भाग, दूसरा बयान।)
जिस जमाने में माधवी गया और राजगृही की रानी कहलाती थी, उस जमाने में उसका राज्य केवल तीन ही आदमियों के भरोसे पर चलता था—एक दीवान अग्निदत्त, दूसरा कोतवाल धर्मसिंह और तीसरा सेनापति कुबेरसिंह। बस ये ही तीनों उसके राज्य का आनन्द लेते थे और इन्हीं तीनों का माधवी को भरोसा था। यद्यपि ये तीनों ही माधवी की चाह में डूबनेवाले थे, मगर कुबेरसिंह और धर्मसिंह प्यासे ही रहे गये, जिसका उन दोनों को बराबर बहुत ही रंज बना रहा।
जब राजगृही और गया की किस्मत ने पलटा खाया, तब धर्मसिंह कोतवाल को तो चपला ने माधवी की सूरत बन और धोखा दे गिरफ्तार कर लिया और दीवान अग्निदत्त बहुत दिनों तक बचा रहकर अन्त में किशोरी के कारण एक खोह के अन्दर मारा गया, परन्तु अभी तक यह न मालूम हुआ कि उसके मर जाने का सबब क्या था। हाँ, सेनापति कुबेरसिंह जिसने माधवी के राज्य में सबसे ज्यादे दौलत पैदा की थी, बचा रह गया क्योंकि उसने जमाने को पलटा खाते देख चुपचाप अपने घर (मुर्शिदाबाद) का रास्ता लिया, मगर माधवी के हालचाल की खबर लेता रहा, क्योंकि यद्यपि उसने माधवी का राज्य छोड़ दिया था, मगर माधवी के इश्क ने उसके दिल में से अपना राज्य दखल नहीं उठाया था।
माधवी की बिगड़ी हुई अवस्था देखकर भी उसकी मुहब्बत पे हाथ न धोने का दो सबब था, एक तो माधवी वास्तव में खूबसूरत हसीन और नाजुक थी, दूसरे राजगृही और गया के राज्य से खारिज होने पर भी वह माधवी को अमीर और बेहिसाब दौलत का मालिक समझता था और इसलिए वह समय पर ध्यान रखकर माधवी के हालचाल बराबर खबर लेता रहा और वक्त पर काम देने के लिए थोड़ी-सी फौज का मालिक भी बना रहा।
मनोरमा के गिरफ्तार हो जाने के बाद शिवदत्त और कल्याणसिंह के साथ जब माधवी रोहतासगढ़ की तराई में पहुँची तो एक आदमी ने गुप्त रीति पर उसे एक चीठी दी और बहुत जल्द उसका जवाब माँगा। यह चीठी कुबेर सिंह की थी और उसमें यह लिखा हुआ था—
"मुझे आपकी अवस्था पर बहुत रंज और अफसोस है। यद्यपि आपकी हालत बदल गयी है और आप मुझसे बहुत दूर हैं, मगर मैं अभी तक आपकी खयाली तस्वीर अपने दिल के अन्दर कायम रखकर दिन-रात उसकी पूजा किया करता हूँ। यही सबब है कि बहुत दिनों तक मेहनत करके, मैंने इतनी ताकत पैदा कर ली है कि आपकी मदद कर सकूँ और आपको पुनः राजगृही की गद्दी का मालिक बनाऊँ। आप अपने ही दिल से पूछ देखिए कि अग्निदत्त, जिसके साथ आपने सबकुछ किया, कैसा बेईमान और बेमुरौवत निकला और मैं, जिसे आपने हद से ज्यादे तरसाया, कैसी हालत में आपकी मदद करने को तैयार हूँ! यदि आप मुनासिब समझें तो इस आदमी के साथ मेरे पास चली आवें, या मुझी को अपने पास बुला लें। यह आदमी जो चीठी लेकर जाता है, मेरा ऐयार है।
आपका—कुबेर।"
माधवी ने उस चीठी को बड़े गौर से दोहराकर पढ़ा और देर तक तरह-तरह की बातें सोचती रही। हम नहीं जानते कि उसका दिल किन-किन बातों का फैसला करता रहा या वह किस विचार में देर तक डूबी रही, हाँ थोड़ी देर बाद उसने सिर उठाकर चीठी लानेवाले की तरफ देखा और कहा, "कुबेरसिंह कहाँ पर है?"
ऐयार : यहाँ से थोड़ी दूर पर।
माधवी : फिर वह खुद यहाँ क्यों न आया?
ऐयार : इसीलिए कि आप इस समय दूसरों के साथ हैं, जिन्होंने आपको न मालूम किस तरह का भरोसा दिया होगा या आपही ने शायद उनसे किस तरह का इकरार किया हो, ऐसी अवस्था में आपसे दरियाफ्त किये बिना इस लश्कर में आना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा।
माधवी : ठीक है, अच्छा तुम जाकर उसे बहुत जल्द मेरे पास ले आओ कितनी देर में आओगे?
ऐयार : (सलाम करके) आधे घण्टे के अन्दर।
वह ऐयार तेजी के साथ दौड़ता हुआ वहाँ से चला गया और माधवी उसी जगह टहलती हुई इन्तजार करने लगी।
दिन आधे घण्टे से कुछ ज्यादे बाकी था और इस समय माधवी कुछ खुश मालूम होती थी। शिवदत्त और कल्याणसिंह का लश्कर एक जंगल में छिपा हुआ था और माधवी अपने डेरे से निकलकर सौ-सवा सौ कदम की दूरी पर चली गयी थी। माधवी, कुबेरसिंह के अक्षर अच्छी तरह पहिचानती थी, इसलिए उसे किसी तरह का धोखा खाने का शक कुछ भी न हुआ और वह बेखौफ उसके आने का इन्तजार करने लगी।
सन्ध्या होने के पहिले ही उसी ऐयार को साथ लिये कुबेरसिंह, माधवी की तरफ आता दिखायी दिया, जो थोड़ी ही देर पहिले उसकी चीठी लेकर आया था। उस समय वह ऐयार भी एक घोड़े पर सवार था और कुबेरसिंह अपनी सूरत-शक्ल तथा हैसियत को अच्छी तरह सजाये हुए था। माधवी के पास पहुँचकर दोनों आदमी घोड़े से नीचे उतर पड़े और कुबेरसिंह ने माधवी को सलाम करके कहा, "आज बहुत दिनों बाद ईश्वर ने मुझे आपसे मिलाया! मुझे इस बात का बहुत रंज है कि आपने लौंडियों के भड़काने पर चुपचाप घर छोड़ जंगल का रास्ता लिया, और अपने खैरखाह कुबेरसिंह (हम) को याद तक न किया। मैं खूब जानता हूँ कि आपने अपने दीवान अग्निदत्त से डरकर ऐसा किया था मगर उसके बाद भी तो मुझे याद करने का मौका जरूर मिला होगा।"
माधवी : (मुस्कुराती हुई कुबेरसिंह का हाथ पकड़के) मैं घर से निकलने के बाद ऐसी मुसीबत में पड़ गयी थी कि अपनी भलाई-बुराई पर कुछ भी ध्यान न दे सकी और जब मैंने सुना कि गया और राजगृही में बीरेन्द्रसिंह का राज्य हो गया, तब और भी हताश हो गयी, फिर भी मैं अपने उद्योग की बदौलत बहुत कुछ कर गुजरती, मगर गयाजी में अग्निदत्त की लड़की कामिनी ने मेरे साथ बहुत बुरा वर्ताव किया और मुझे किसी लायक न रक्खा। (अपनी कटी हुई कलाई दिखाकर) यह उसी की बदौलत है।
कुबेर : वह खानदान-का-खानदान ही निमकहराम निकला और इसी फेर में अग्निदत्त मारा भी गया।
माधवी : हाँ, उसके मरने का हाल मायारानी की सखी मनोरमा की जुबानी मैंने सुना था। (पीछे की तरफ देखकर) कौन आ रहा है?
कुबेर : आपही के लश्कर का कोई आदमी है, शायद आपको बुलाने आता हो, नहीं वह दूसरी तरफ घूम गया, मगर अब आपको कुछ सोच-विचार करना किसी से मिलना, या इस जगह खड़े-खड़े बातों में समय नष्ट न करना चाहिए और यह मौका भी बातचीत करने का नहीं है। आप (घोड़े की तरफ इशारा करके) इस घोड़े पर शीघ्र सवार होकर मेरा साथ चली चलें, मैं आपका ताबेदार सब लायक और सबकुछ करने के लिए तैयार हूँ, फिर भी खुशामद की जरूरत ही क्या है? यदि कल्याणसिंह के लश्कर में आप का कुछ असबाब हो तो उसकी परवाह न कीजिए।
माधवी : नहीं, अब मुझे किसी की परवाह नहीं रही, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।
इतना कहकर माधवी कुबेरसिंह के घोड़े पर सवार हो गयी, कुबेरसिंह अपने ऐयार के घोड़े पर सवार हुआ तथा पैदल ऐयार को साथ लिये हुए दोनों एक तरफ को रवाना हुए।
यही सबब था कि शिवदत्त बगैरह के साथ माधवी रोहतासगढ़ के तहखाने में दाखिल नहीं हुई।
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