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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान


इन्दिरा ने जब अपना किस्सा कहते-कहते पण्डित मायाप्रसाद का नाम लिया तो राजा गोपालसिंह चौंक गये, और उन्होंने ताज्जुब में आकर इन्दिरा से पूछा, ‘‘पण्डित मायाप्रसाद कौन?’’

इन्दिरा : आपके कोषाध्यक्ष(खजानची)।

गोपाल : क्या उसने भी तुम्हारे साथ दगा की ली?

इन्दिरा : सो तो मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती, मेरा हाल कदाचित् सुनकर आप कुछ अनुमान कर सकें। क्या मायाप्रसाद आज भी आपके यहाँ काम करते हैं?

गोपाल : हाँ हैं तो सही, मगर आजकल मैंने उसे किसी दूसरी जगह भेजा है। अस्तु, अब मैं इस बात को बहुत जल्द सुनना चाहता हूँ कि उसने तेरे साथ क्या किया?

हमारे पाठक महाशय पहले भी मायाप्रसाद का नाम सुन चुके हैं। सन्तति के पन्द्रहवें भाग के तीसरे बयान में इसका जिक्र आ चुका है, तारासिंह के एक नौकर ने नानक की स्त्री श्यामा के प्रेमियों के नाम बताए थे, उन्हीं में इनका नाम भी दर्ज हो चुका है। ये महाशय जाति के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और अपने को ऐयार भी लगाते थे।

इन्दिरा ने फिर अपना किस्सा कहना शुरू किया–

‘‘उस समय मैं मायाप्रसाद को देखकर बहुत खुश हुई और समझी कि मेरा हाल (आप) को मालूम हो गया है, और राजा साहब ही ने इन्हें मेरे पास भेजा है। मैं जल्दी उठकर उनके पास गयी, और मेरी अन्ना ने उन्हें दण्डवत करके कोठरी में आने के लिए कहा, जिसके जवाब में पण्डित जी बोले ‘मैं कोठरी के अन्दर नहीं आ सकता और न इतनी मोहलत है।’ ’’

मैं : क्यों?

मायाप्रसाद : मैं इस समय केवल इतना ही कहने आया हूँ कि तुम लोग जिस तरह बन पड़े अपनी जान बचाओ और जहाँ तक जल्दी हो सके यहाँ से निकल भागो, क्योंकि गदाधरसिंह दुश्मनों के हाथ में फँस गया है और थोड़ी ही देर में तुम लोग भी गिरफ्तार हुआ चाहती हो।

मायाप्रसाद की बात सुनकर मेरे तो होश उड़ गये। मैंने सोचा कि अब अगर किसी तरह दारोगा मुझे पकड़ पावेगा तो कदापि जीता न छोड़ेगा। आखिर अन्ना ने घबराकर पण्डित जी से पूछा, ‘‘हम लोग भाग कर कहाँ जाँय और किसके सहारे पार भागें।’’ पण्डित जी ने क्षण-भर सोचकर कहा, ‘‘अच्छा तुम दोनों मेरे पीछे चली आओ।’’

उस समय हम दोनों ने जरा भी खयाल नहीं किया कि पण्डित जी सच बोलते हैं या दगा करते हैं। हम दोनों आदमी पण्डित जी को बखूबी जानते थे और उन पर विश्वास करते थे। अस्तु, उसी समय चलने के लिए तैयार हो गए और कोठरी के बाहर निकलकर उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के बाहर निकले तो दरवाजे के दोनों तरफ कई आदमियों को टहलते हुए देखा, मगर अँधेरी रात होने और जल्दी-जल्दी निकल भागने की धुन में लगे रहने के कारण उन लोगों को पहिचान न सकी, इसी लिए नहीं कह सकती कि वे लोग गदाधरसिंह के आदमी थे या किसी दूसरे के। उन आदमियों ने हम लोगों से कुछ नहीं पूछा और हम दोनों बिना किसी रुकावट के पण्डित जी के पीछे-पीछे जाने लगे। थोड़ी दूर जाकर दो आदमी और मिले, एक के हाथ में मशाल थी और दूसरे के हाथ में नंगी तलवार। निःसन्देह वे दोनों आदमी मायाप्रसाद के नौकर थे, जो हुक्म पाते ही हम लोगों के आगे-आगे रवाना हुए। उस पहाड़ी के नीचे उतरने का रास्ता बहुत ही पेंचीला और पथरीला था। यद्यपि हम दोनों आदमी एक दफे उस रास्ते को देख चुके थे, मगर फिर भी किसी के राह दिखाये बिना वहाँ से निकल जाना कठिन ही नहीं, असंभव था, पर एक तो हम लोग मायाप्रसाद के पीछे-पीछे जा रहे थे, दूसरे मशाल की रोशनी साथ-साथ थी, इसलिए हम लोग शीघ्रता से नीचे उतर आये और पण्डित जी के अनुसार दाहिनी तरफ घूमकर जंगल-ही-जंगल चलने लगे। सवेरा होते-होते हम लोग एक खुले मैदान में पहुँचे और वहाँ एक छोटा-सा बगीचा नजर पड़ा। पण्डित जी ने हम दोनों से कहा कि तुम लोग बहुत थक गयी हो, इसलिए थोड़ी देर तक बगीचे में आराम कर लो, तब तक हम लोग सवारी का बन्दोवस्त करते हैं, जिसमें आज ही तुम राजा गोपालसिंह के पास पहुँच जाओ।

मुझे उस छोटे से बगीचे में किसी आदमी की सूरत तक न दिखाई पड़ी। न तो वहाँ पर कोई मालिक नजर आया और न किसी मालिक या नौकर ही पर नजर पड़ी, मगर बगीचा बहगुत ही साफ और हरा-भरा था। पण्डित जी ने अपने दोनों आदमियों को किसी काम के लिए रवाना किया और हम दोनों को उस बगीचे में बेफिक्री के साथ रहने की आज्ञा देकर खुद भी आधी घड़ी के अन्दर ही लौट आने का वादा करके कहीं चले गये। पण्डित जी और उनके आदमियों को गये हुए भी चौथाई घड़ी भी न बीती होगी कि दो आदमियों को साथ लिए हुए कमबख्त दारोगा बाग के अन्दर आता दिखाई पड़ा।

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