मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 चन्द्रकान्ता सन्तति - 4देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...
चौथा बयान
रात लगभग घण्टे-भर के जा चुकी है। नानक के घर में उसकी स्त्री श्रृंगार कर चुकी है, और कपड़े बदलने की तैयारी कर रही है। वह एक खुले हुए सन्दूक के पास खड़ी तरह-तरह की साड़ियों पर नजर दौड़ा रही है और उनमें से एक साड़ी इस समय पहिरने के लिए चुना चाहती है। हाथ में चिराग लिये हुए हनुमान उनके पास खड़ा है।
हनुमान : मेरी प्यारी भावज, यह काली साड़ी बड़ी मजेदार है, बस इसी को निकाल लो और यह चोली भी अच्छी है।
श्यामा : नहीं, मुझे पसन्द नहीं, मगर तू घड़ी-घड़ी भावज क्यों कहता है?
हनुमान : क्या तुम मेरी भावज नहीं हो?
श्यामा : भावज तो जरूर हूँ, यदि तू दूसरी माँ का बेटा होता तो हमारी आधी दौलत बँटवा लेता, और ऐसा न होने पर भी मैं तुझे देवर समझती हूँ, मगर भावज पुकारने की आदत अच्छी नहीं, अगर कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा!
हनुमान : यहाँ इस समय सुननेवाला कौन है?
श्यामा : इस समय यहाँ चाहे कोई न हो, मगर पुकारने की आदत पड़ी रहने से कभी-न-कभी किसी के सामने...
हनुमान : नहीं नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ देखो इतने दिनों से मुझे तुमसे गुप्त प्रेम है, मगर आज तक किसी को मालूम न हुआ। अच्छा देखो यह साड़ी बढ़िया है, इसको जरूर पहिनो।
श्यामा : अरे बाबा, इस साड़ी को तो देखते ही मुझे क्रोध चढ़ आता है। उस दिन यह साड़ी पहिरकर मैं बिरादरी में उनके यहाँ गयी थी, बस एक ने झट से टोक ही तो दिया, कहने लगी कि यह साड़ी फलाने की दी हुई है। इतना सुनते ही मैं लाल हो गयी, मगर कर क्या सकती थी क्योंकि बात सच थी आखिर चुपचाप उठकर अपने घर चली आयी। मैं यह साड़ी कभी न पहिरूँगी।
हनुमान : अच्छा यह हरी साड़ी पहिरो।
श्यामा : हाँ, इसे पहिरूँगी और यह चोली।
हनुमान : लाओ चोली मैं पहिरा दूँ।
श्यामा : (हनुमान के गाल में चपत लगाकर) चल दूर हो।
हनुमान : (चौंककर) अरे, हाँ देखो तो सही कैसी भूल हो गयी।
श्यामा : (ताज्जुब से) सो क्या?
हनुमान : तुम्हें तो मर्दाना कपड़ा पहिरके चलना चाहिए।
श्यामा : हाँ, है तो ऐसा ही मगर वहाँ क्या करूँगी?
हनुमान : यह साड़ी मैं बगल में दबाकर लिये चलता हूँ, वहाँ पहिर लेना।
श्यामा : अच्छा यही सही।
थोड़ी देर बाद मर्दाने कपड़े पहिरे और सर पर मुँड़ासा बाँधे हुए श्यामा सड़क पर दिखायी देने लगी। आगे-आगे उसका प्यारा नौकर हनुमान बगल में कपड़े की गठरी दबाये हुए जा रहा था। इस जगह से यह मकान बहुत दूर न था जिसमें तारासिंह ने डेरा डाला था इसलिए थोड़ी ही देर में वे दोनों उस मकान के पिछले दरवाजे पर जा पहुँचे। दरवाजा खुला हुआ था, पर तारासिंह का नौकर पहिले से ही दरवाजे पर बैठा हुआ था। उसने दोनों को मकान के अन्दर करके दरवाजा बन्द कर लिया।
तारासिंह एक कोठरी के अन्दर फर्श पर बैठा हुआ तरह-तरह की बातों पर विचार कर रहा था, जब उसके नौकर ने पहुँचकर श्यामा के आने की इत्तिला की और कहा कि वह मर्दानी पोशाक पहिरकर आ गयी है और अब पूरबवाले कमरे में कपड़े बदल रही है।
तारासिंह का नौकर (चेला) तो इतना कहकर चला गया, मगर तारासिंह बड़े फेर में पड़ गया। वह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? उसकी चाल-चलन का पता तो पूरा-पूरा लग गया, मगर अब उसे यहाँ से क्योंकर टालना चाहिए। उसके साथ अधर्म करना तो उचित न होगा, हम ऐसा कदापि नहीं कर सकते, मगर अफसोस! वाह रे निर्लज्ज नानक, क्या तुझे इन बातों की खबर न होगी? जरूर होगी, तू इन सब बातों को जरूर जानता होगा, मगर आमदनी का रास्ता खुला हुआ देख बेहयाई की नकाब डाले बैठा है। परन्तु भूतनाथ को इन बातों की खबर नहीं, वह हयादार आदमी है, अपनी थोड़ी-सी भूल के लिए कैसे-कैसे उद्योग कर रहा है, और तेरी यह दशा! लानत है तेरी औकात पर और तुफ है तेरी शौकीनी पर!’’
तारासिंह इन बातों को सोच ही रहा था कि श्यामारानी मटकती हुई, उसके पास जा पहुँची। तारासिंह ने बड़ी खातिर से उसे अपने पास बैठाया और उसके रूप-गुण की प्रशंसा करने लगा।
श्यामारानी को बैठे अभी कुछ ही देर न हुई थी कि कोठरी के बाहर से चिल्लाने की आवाज आयी। यह आवाज नानक के प्यारे नौकर हनुमान की थी और साथ ही उसके किसी औरत के बोलने की आवाज आ रही थी।
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