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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान


मनोरमा और धन्नूसिंह घोड़े पर सवार होकर तेजी के साथ वहाँ से रवाना हुए और चार कोस तक बिना कुछ बातचीत किये चले आये। जब ये दोनों एक ऐसे मैदान में पहुँचे, जहाँ बीचोबीच में एक बहुत बड़ा आम का पेड़ और उसके चारो तरफ आधा कोस का साफ मैदान था, यहाँ तक कि सरपत, जंगली बेर या पलास का भी कोई पेड़ न था, जिसका होना जंगल या जंगल के आस-पास आवश्यक समझा जाता है, तब धन्नूसिंह ने अपने घोड़े का मुँह उसी आम के पेड़ के तरफ यह कहके फेरा–‘‘मेरे पेट में कुछ दर्द हो रहा है, इसलिए थोड़ी देर तक इस पेड़ के नीचे ठहरने की इच्छा होती है।’’

मनोरमा : क्या हर्ज है ठहर जाओ, मगर खौफ है कि कहीं भूतनाथ न आ पहुँचे।

धन्नूसिंह : अब भूतनाथ के आने की आशा छोड़ो, क्योंकि जिस राह से हम लोग आये हैं, वह भूतनाथ को कदापि न मालूम होगी, मगर मनोरमा तुम तो भूतनाथ से इतना डरती हो कि...

मनोरमा : (बात काटकर) भूतनाथ निःसन्देह ऐसा ही भयानक ऐयार है। पर थोड़े ही दिन की बात है कि जिस तरह आज मैं भूतनाथ से डरती हूँ, उससे ज्यादे भूतनाथ मुझसे डरता था।

धन्नूसिंह : हाँ, जब तक उसके कागजात तुम्हारे या नागर के कब्जे में थे!

मनोरमा : (चौंककर, ताज्जुब से) क्या यह हाल तुमको मालूम है?

धन्नूसिंह : बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा : सो कैसे?

इतने ही में वे दोनों उस पेड़ के नीचे पहुँच गये और धन्नूसिंह यह कह कर घोड़े के नीचे उतर गया कि ‘अब जरा बैठा जाय तो कहे’।

मनोरमा भी घोड़े से नीचे उतर पड़ी। दोनों घोड़े लम्बी बागडोर के सहारे डाल के साथ बाँध दिये गये और जीनपोश बिछाकर दोनों आदमी जमीन पर बैठ गये। रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी और चन्द्रमा की विमल चाँदनी, जिसका थोड़ी ही देर पहिले कहीं नाम-निशान भी न था, बड़ी खूबी के साथ चारों तरफ फैल रही थी।

मनोरमा : हाँ, अब बताओ कि भूतनाथ के कागजात का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

धन्नूसिंह : मैंने भूतनाथ की ही जुबानी सुना था।

मनोरमा : हैं! क्या तुमसे और भूतनाथ से जान-पहिचान है?

धन्नूसिंह : बहुत अच्छी तरह।

मनोरमा : तो भूतनाथ ने तुमसे यह भी कहा होगा कि उसने अपने कागजात नागर के हाथ से कैसे पाये!

धन्नूसिंह : हाँ, भूतनाथ ने मुझसे वह किस्सा भी बयान किया था, क्या तुमको वह हाल मालूम नहीं हुआ?

मनोरमा : मुझे वह हाल कैसे मालूम होता? मैं तो मुद्दत तक कमलिनी के कैदखाने में सड़ती रही, और जब वहाँ से छूटी तो दूसरे ही फेर में पड़ गयी, मगर तुम जब अब हाल जानते ही हो तो फिर जान-बूझकर ऐसा सवाल क्यों करते हो?

धन्नूसिंह : ओफ, पेट दर्द ज्यादे होता जा रहा है! जरा ठहरो तो मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूँ।

इतना कहकर धन्नूसिंह चुप हो गया और घण्टे-भर से ज्यादे देर तक बातों का सिलसिला बन्द रहा। धन्नूसिंह यद्यपि इतनी देर तक चुप रहा मगर बैठा ही रहा और मनोरमा की तरफ से इस तरह होशियार और चौकन्ना रहा, जैसे किसी दुश्मन की तरफ से होना वाजिब था, साथ ही इसके धन्नूसिंह की निगाह मैदान की तरफ भी इस ढंग से पड़ती रही, जैसे किसी के आने की उम्मीद हो। मनोरमा उसके इस ढंग पर आश्चर्य कर रही थी। यकायक उस मैदान में दो आदमी बड़ी तेजी के साथ दौड़ते हुए उसी तरफ आते दिखायी पड़े, जिधर मनोरमा और धन्नूसिंह का डेरा जमा हुआ था।

मनोरमा : ये दोनों कौन हैं, जो इस तरफ आ रहे हैं?

धन्नूसिंह : यही बात तो तुमसे पूछा चाहता था, मगर जब तुमने पूछ ही लिया तो कहना पड़ा कि इन दोनों में एक तो भूतनाथ है।

मनोरमा : क्या तुम मुझसे दिल्लगी कर रहे हो?

धन्नूसिंह : नहीं, कदापि नहीं।

मनोरमा : तो फिर ऐसी बात क्यों कहते हो?

धन्नूसिंह : इसलिए कि मैं वास्तव में धन्नूसिंह नहीं हूँ।

मनोरमा : (चौंककर) तब तुम कौन हो?

धन्नूसिंह : भूतनाथ का दोस्त इन्द्रदेव का ऐयार सर्यूसिंह।

इतना सुनते ही मनोरमा का रंग बदल गया और उसने बड़ी फुर्ती से अपना दाहिना हाथ सर्यूसिंह के चेहरे की तरफ बढ़ाया, मगर सर्यूसिंह पहिले ही से होशियार और चौकन्ना था, उसने चालाकी से मनोरमा की कलाई पकड़ ली।

मनोरमा की उँगली में उसी तरह के जहरीले नगीनेवाली अँगूठी थी, जैसी कि नागर की उँगली में थी, और जिसने भूतनाथ को मजबूर कर दिया था, तथा जिसका हाल इस उपन्यास के सातवें भाग में हम लिख आये हैं। उसी अँगूठी से मनोरमा ने नकली धन्नूसिंह को मारना चाहा, मगर न हो सका क्योंकि उसने मनोरमा की कलाई पकड़ ली और उसी समय भूतनाथ और सर्यूसिंह का शागिर्द भी वहाँ आ पहुँचे। अब मनोरमा ने अपने को काल के मुँह में समझा और वह इतनी डरी कि जोकुछ उन ऐयारों ने कहा के उज्र करने के लिए तैयार हो गयी।

भूतनाथ के हाथ से क्षमा-प्रार्थना की सहायता से छूटने की आशा मनोरमा को कुछ भी न थी, इसीलिए जब तक भूतनाथ ने उससे किसी तरह का सवाल न किया वह भी कुछ बोली और बेउज्र हाथ-पैर बँधाकर कैदियों की तरह मजबूर हो गयी। इसके बाद भूतनाथ तथा सर्यूसिंह में यों बातचीत होने लगी–

भूतनाथ : अब क्या करना होगा?

सर्यूसिंह : अब यही करना होगा कि तुम इसे अपने घोड़े पर सवार कराके घर ले जाओ और हिफाजत के साथ रखकर शीघ्र लौट आओ।

भूतनाथ : और उस धन्नूसिंह के बारे में क्या किया जाय, जिसे आप गिरफ्तार करने के बाद बहोश करके डाल आये हैं?

सर्यूसिंह : (कुछ सोचकर) अभी उसे अपने कब्जे में ही रखना चाहिए, क्योंकि मैं धन्नूसिंह की सूरत में राजा शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर जाकर इन दुष्टों की चालबाजियों को जहाँ तक हो सके, बिगाड़ा चाहता हूँ, ऐसी अवस्था में अगर वह छूट जायगा तो केवल काम ही नहीं बिगड़ेगा, बल्कि मैं खुद आफत में फँस जाऊँगा, यदि शिवदत्त के साथ रोहतासगढ़ के तहखाने में जाने का साहस करूँगा।

इसके बाद सर्यूसिंह ने भूतनाथ से वे बातें कही, जो उससे और शिवदत्त तथा कल्याणसिंह से हुई थीं और जो हम ऊपर लिख आये हैं। उस समय मनोरमा को मालूम हुआ कि नकली धन्नूसिंह ने जिस भयानक कुत्तेवाली औरत का हाल शिवदत्त से कहा और जिसे मनोरमा की बहिन बताया था, वह सब बिल्कुल झूठ और बनावटी किस्सा था।

भूतनाथ : (सर्यूसिंह से) तब तो आपको दुश्मनों के साथ मिल-जुलकर रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर जाने का बहुत अच्छा मौका है।

सर्यूसिंह : हाँ, इसी से मैं कहता हूँ कि उस धन्नूसिंह को अभी अपने कब्जे मंी ही रखना चाहिए, जिसे हम लोगों ने गिरफ्तार किया है।

भूतनाथ : कोई चिन्ता नहीं, मैं लगे हाथ किसी तरह उसे भी अपने घर पहुँचा दूँगा। (शागिर्द की तरह इशारा करकेः इसे तो आप मनोरमा बनाकर अपने साथ ले जायेंगे?

सर्यूसिंह : जरूर ले जाऊँगा और कल्याणसिंह के बताये हुए ठिकाने पर पहुँचकर उन लोगों की राह देखूँगा।

भूतनाथ : और मुझको क्या काम सुपुर्द किया जाता है?

सर्यूसिंह : मुझे इस बात का पता ठीक-ठीक लग चुका है कि शेरअली-खाँ आजकल रोहतासगढ़ में हैं और कुँअर कल्याणसिंह उससे मदद लिया चाहता है। ताज्जुब नहीं कि अपने दोस्त का लड़का समझकर शेरअलीखाँ उसकी मदद करे और अगर ऐसा हुआ तो राजा बीरेन्द्रसिंह को बड़ा नुकसान पहुँचेगा।

भूतनाथ : मैं आपका मतलब समझ गया, अच्छा तो इस काम से छुट्टी पाकर मैं बहुत जल्द रोहतासगढ़ पहुँचूँगा और शेलअलीखाँ की हिफाजत करूँगा। (कुछ सोचकर) मगर इस बात का खौफ है कि अगर मेरा वहाँ जाना। राजा बीरेन्द्रसिंह पर खुल जायगा तो कहीं मुझे बिना बलभद्रसिंह का पता लगाये लौट आने के जुर्म में सजा तो न मिलेगी? (इतना कहकर भूतनाथ ने मनोरमा की तरफ देखा)

सर्यूसिंह : नहीं नहीं, ऐसा न होगा और अगर हुआ भी तो मैं तुम्हारी मदद करूँगा।

बलभद्रसिंह का नाम सुनकर मनोरमा जो सब बातचीत सुन रही थी, चौंक पड़ी और उसके दिल में एक हौल-सा पैदा हो गया। उसने अपने को रोकना चाहा मगर रोक न सकी और घबड़ाकर भूतनाथ से पूछ बैठी ‘‘बलभद्रसिंह कौन!’’

भूतनाथ : (मनोरमा से) लक्ष्मीदेवी का बाप, जिसका पता लगाने के लिए ही हमलोगों ने तुझे गिरफ्तार किया है।

मनोरमा : (घबड़ाकर) मुझसे और उससे भला क्या सम्बन्ध? मैं क्या जानूँ वह कौन है या कहाँ है और लक्ष्मीदेवी किसका नाम है!

भूतनाथ : खैर, जब समय आवेगा तो सब कुछ मालूम हो जायगा। (हँसकर) लक्ष्मीदेवी से मिलने के लिए तो तुम रोहतासगढ़ जाते ही थे, मगर बलभद्रसिंह और इन्दिरा से मिलने का बन्दोबस्त अब मैं करूँगा, घबड़ाती काहे को हो!

मनोरमा : (घबराहट के साथ ही बेचैनी से) इन्दिरा, कैसी इन्दिरा? ओफ! नहीं नहीं मैं क्या जानूँ कौन इन्दिरा! क्या तुम लोगों से उसकी मुलाकात हो गयी? क्या उसने मेरी शिकायत की थी! कभी नहीं वह झूठी है, मैं तो उसे प्यार करती थी और अपनी बेटी समझती थी! मगर उसे किसी ने बहका दिया है या बहुत दिनों तक दुःख भोगने के कारण वह पागल हो गयी है, या ताज्जुब नहीं कि मेरी सूरत बनकर किसी ने उसे धोखा दिया हो। नहीं नहीं, वह मैं न थी कोई दूसरी थी, मैं उसका भी नाम बताऊँगी। (ऊँची साँस लेकर) नहीं नहीं, इन्दिरा, नहीं, मैं तो मथुरा गयी हुई थी, वह कोई दूसरी ही थी, भला मैं तेरे साथ क्यों ऐसा करने लगी थी! ओफ! मेरे पेट में दर्द हो रहा है, आह, आह मैं क्या करूँ!

मनोरमा की अजब हालत हो गयी, उसका बोलना और बकना पागलों की तरह मालूम पड़ता था, जिसे देख भूतनाथ और सूर्यसिंह आश्चर्य करने लगे, मगर दोनों ऐयार इतना तो समझ ही गये कि दर्द का बहाना करके मनोरमा अपने असली दिली दर्द को छिपाना चाहती है, जो होना कठिन है।

सर्यूसिंह : (भूतनाथ से) खैर, अब इसका पाखण्ड कहाँ तक देखोगे, बस झटपट ले जाओ और अपना काम करो। यह समय अनमोल है और इसे नष्ट न करना चाहिए। (अपने शागिर्द की तरफ इशारा करके) इसे हमारे पास छोड़ जाओ, मैं भी अपने काम की फिक्र में लगूँ।

भूतनाथ ने बेहोशी की दवा सुँघाकर मनोरमा को बेहोश किया और जिस घोड़े पर वह आयी थी, उसी पर उसे लाद आप भी सवार हो पूरब का रास्ता लिया, उधर सर्यूसिंह अपने चेले को मनोरमा बनाने की फिक्र में लगा।

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