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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दसवाँ बयान


दोपहर की कड़ाके की धूप से व्याकुल होकर कुछ आराम पाने की इच्छा से दो आदमी एक नहर के किनारे, जिनके दोनों तरफ घने और गुंजान जंगली पेड़ों ने छाया कर रक्खी है, बैठकर आपस में धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं। इनमें से एक तो बुड्ढा नकटा दारोगा है और दूसरी किस्मत से मुकाबिला करने वाली कमबख्त मायारानी जो इस अवस्था में पहुँचकर भी हिम्मत हारने की इच्छा नहीं करती। ये दोनों इन्द्रदेव के मकान से चुपचाप भाग निकले हैं, और बड़े-बड़े मंसूबे गाँठ रहे हैं। इसके साथ ही वे इन्द्रदेव को भी बिगाड़ने की तरकीब सोच रहे हैं, यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बुरे मनुष्य जब किसी भले आदमी से मदद माँगने जाते हैं, और बेचारे बुरे कर्मों का नतीजा सोचकर बुराई में उनका साथ देने से इन्कार करता है, तो वे दुष्ट उसके भी दुश्मन हो जाते हैं।

माया : क्या हर्ज है? जरा मुझे बन्दोबस्त कर लेने दीजिए, फिर मैं इन्द्रदेव से समझे बिना न रहूँगी।

दारोगा : बेशक, मुझे भी इन्द्रदेव पर बड़ा ही क्रोध है, नालायक ने ऐसे नाजुक समय में साथ देने से इनकार किया! खैर, देखा जायगा, इस समय तो इस बात पर विचार करना चाहिए कि बीरेन्द्रसिंह के दुश्मन कौन-कौन हैं, और उन लोगों को किस तरह अपना साथी बनाना चाहिए, क्योंकि हम लोगों का पहिला काम यही है कि अपनी मण्डली को बढ़ावें।

माया : बेशक, ऐसा ही है, अच्छा आप उन लोगों का नाम तो जरा ले जायँ, जो हम लोगों का साथ दे सकते हैं, और यह भी कह जायँ कि इस समय वे लोग कहाँ हैं।

दारोगा : (सोचता हुआ) महाराज शिवदत्त, भीमसेन और उनके साथी एक, माधवी दो, दिग्विजयसिंह का लड़का कल्याणसिंह तीन, शेरअलीखाँ, जिसकी लड़की को बीरेन्द्रसिंह ने कैद कर रक्खा है, चार और उनके पक्षपाती लोग जिनका कुछ हिसाब नहीं।

माया : बेशक, इन लोगों का साथ हो जाने से हम लोग बीरेन्द्रसिंह और उनके पक्षपातियों को तहस-नहस कर सकते हैं और ये लोग बड़ी खुशी से हमारा साथ देंगे भी, मगर अफसोस यह है कि शेरअलीखाँ को छोड़कर बाकी सभी लोग कैद में हैं। हाँ, यह तो कहिए कि महाराज शिवदत्त को किसने गिरफ्तार किया था, और अब वे कहाँ हैं?

दारोगा : मुझे ठीक-ठीक पता लग चुका है कि भूतनाथ ने ‘रूहा’ बनकर शिवदत्त को धोखा दिया और अब शिवदत्त कमलिनी के तालाब वाले मकान में कैद है, माधवी और मनोरमा भी उसी मकान में कैद हैं।

माया : उस मकान में से उन लोगों को छुड़ाना जरा मुश्किल है, वह भी ऐसे समय जबकि हमारे पास कोई ऐयार नहीं।

दारोगा : (यकायक कोई बात याद आने से चौंककर) हाँ, मैं यह पूछना तो भूल ही गया कि तुम्हारे दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह कहाँ हैं? मालूम होता है कि तुम्हारी इस अवस्था का हाल उन लोगों को मालूम नहीं है। मगर नहीं ऐसा नहीं हो सकता, जमानिया में इतना फसाद मच जाना और तुम्हारा निकल भागना कोई साधारण बात नहीं है, जिसकी खबर तुम्हारे ऐयारों को न होती, शायद इसका कोई और सबब हो!

अब मायारानी इस सोच में पड़ गयी कि दारोगा की बातों का क्या जवाब दिया जाय। उसने और सब हाल तो दारोगा से कह दिया था, मगर उन दोनों ऐयारों की जान लेने का हाल अब तक नहीं कहा था। उसने सोचा कि यदि दारोगा को यह मालूम हो जायगा कि मैंने दोनों ऐयारों को मार डाला, तो उसे बड़ा ही रंज होगा, क्योंकि ऐयारों का मारना बहुत बुरा होता है, तिस पर खास अपने ऐयारों की जान लेना और सो भी बिना कसूर! लेकिन फिर क्या कहा जाय? क्या उनके मारने का हाल ठीक-ठीक न कहकर कुछ बहाना कर देना उचित होगा? नहीं, बहाना करने और छिपा जाने से काम न चलेगा, अन्त में यह बात प्रकट हो ही जायगी, क्योंकि लीला को यह बात मालूम हो चुकी है, और कमबख्त लीला भी इस समय मेरा साथ छोड़कर अलग हो गयी है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि वह भण्डा फोड़ दे और सभों के साथ बाबाजी को भी उन बातों का पता लग जाय। मगर नहीं, उस समय जो होगा, देखा जायगा, अभी तो छिपाना ही उचित है।

मायारानी सिर झुकाये हुए इन बातों को सोच रही थी और दारोगा इस आश्चर्य में था कि मायारानी ने मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दिया या, क्या सोच रही है! आखिर दारोगा चुपचाप न रह सका और उसने पुनः मायारानी से कहा—

दारोगा : तुम क्या सोच रही हो? मेरी बात का जवाब क्यों नहीं देतीं?

माया : मैं यही सोच रही हूँ कि आपकी बात का क्या जवाब दूँ जबकि मैं स्वयं नहीं जानती कि मेरे ऐयारों ने ऐसे समय में मेरा साथ क्यों छोड़ दिया और कहाँ चले गये!

दारोगा : अस्तु, मालूम हुआ कि उन दोनों ने स्वयं तुम्हारा साथ छोड़ दिया।

माया : बेशक ऐसा ही कहना चाहिए। अच्छा अब विशेष समय नष्ट न करना चाहिए। अब आप जल्दी सोचिए कि अब हम कहाँ जाकर ठहरें और क्या करें!

दारोगा : अब जहाँ तक मैं समझता हूँ, यही उचित जान पड़ता है कि शेरअलीखाँ के पास चलें और मदद लें। यह तो सब कोई जानते हैं कि शेरअलीखाँ बड़ा जबर्दस्त और लड़ाका है, मगर उसके पास दौलत नहीं है।

माया : ठीक है, मगर जब मैं दौलत से उसका घर भर दूँगी तो वह बहुत ही खुश होगा और एक जबर्दस्त फौज तैयार करके हमारा साथ देगा। मैं आपसे कह चुकी हूँ कि इस अवस्था में भी मुझे दौलत की कमी नहीं है।

दारोगा : हाँ, मुझे याद है, तुमने शिवगढ़ी के बारे में कहा था, अच्छा तो अब विलम्ब करने की आवश्यकता ही क्या है? (चौंककर) हैं, यह क्या! (हाथ का इशारा करके) वह कौन है, जो सामने झाड़ी में से निकलकर इसी तरफ आ रहा है? शिवदत्त की तरह मालूम पड़ता है! (कुछ रुककर) बेशक, शिवदत्त ही तो है! हाँ, देखो तो, वह अकेला नहीं है, उसके पीछे उसी झाड़ी में से और भी कई आदमी निकल रहे हैं।

मायारानी ने भी चौंककर उस तरफ देखा और हँसती हुई उठ खड़ी हुई।


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