मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 3 चन्द्रकान्ता सन्तति - 3देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...
सातवाँ बयान
मायारानी इस गुफा को साधारण और मामूली समझे हुए थी, मगर ऐसा न था। थोड़ी दूर जाने बाद पूरा अन्धकार मिला, जिससे वह घबड़ा गयी, मगर दारोगा के ढाढ़स देने से उसका कपड़ा पकड़े हुए धीरे-धीरे रवाना हुई। लगभग सौ कदम जाने बाद दारोगा रुका और बायी तरफ घूमकर चलने लगा। अब मायारानी पहिले की बनिस्बत ज्यादे डरी और उसने घबड़ाकर दारोगा से पूछा, "क्या हम लोग चाँदने में न पहुँचेगे? कहीं ऐसा न हो कि कोई दरिन्दा जानवर मिल जाय, और हम लोगों को फाड़ खाये।"
दारोगा : (जोर से हँसकर) क्या इतने ही में तेरी हिम्मत ने जवाब दे दिया? तिलिस्म की रानी होकर इतना छोटा दिल, आश्चर्य है!
माया : (अपने डरे हुए दिल को सम्हालकर) नहीं नहीं, मैं डरी और घबरायी नहीं हूँ, हाँ, भूख-प्यास और थकावट के कारण बेहाल हो रही हूँ, इसी से मैंने पूछा कि यह गुफा, जिसे सुरंग कहना चाहिए किसी तरह समाप्त भी होगी या नहीं?
दारोगा : घबड़ा मत अब हम लोग बहुत जल्द इस अँधेरे से निकलकर ऐसे दिलचस्प मैदान में पहुँचेगे, जिसे देखकर तू बहुत खुश होगी।
माया : इन्द्रदेव के मकान में जाने के लिए यही एक राह है या और भी कोई?
दारोगा : बस इस रास्ते के सिवाय और रास्ता नहीं है।
माया : अगर ऐसा है तो मालूम होता है कि आपके इन्द्रदेव बहुत से दुश्मन रखते हैं, जिनके डर से उन्हें इस तरह से छिपकर रहना पड़ता है।
दारोगा : (हँसकर) नहीं नहीं, ऐसा नहीं है, इन्द्रदेव इस योग्य है कि अपने दुश्मनों को बात-की-बात में बरबाद कर दे। वह इस स्थान में जानकर नहीं रहता, बल्कि मजबूर होकर उसे यहाँ रहना पड़ता है, क्योंकि जिस तिलिस्म का वह दारोगा है, वह तिलिस्म भी इसी स्थान में है।
माया : ठीक है, तो क्या इस तिलिस्म का कोई राजा नहीं है?
दारोगा : नहीं, जिस समय यह तिलिस्म तैयार हुआ था, उस समय इसके मालिक ने इस बात का प्रबन्ध किया था कि उसके खानदान में जो कोई हो, वह तिलिस्म का राजा नहीं बने, बल्कि दारोगा की तरह रहे। उसी के खानदान में यह इन्द्रदेव है। इसे तिलिस्म की हिफाजत करने के सिवाय और किसी तरह का अधिकार तिलिस्म पर नहीं है, मगर दौलत की इसे किसी तरह की कमी नहीं है।
माया : अगर पुराने प्रबन्ध को तोड़कर वह तिलिस्मी चीज़ों पर अपना दखल जमावे तो उसे कौन रोक सकता है।
दारोगा : रोकनेवाला तो कोई नहीं हैं, मगर वह तिलिस्म का भेद कुछ भी नहीं जानता, न मालूम यह तिलिस्म इतना गुप्त किसलिए रक्खा गया है।
माया : मैं तो अपने तिलिस्म से बहुत फायदा उठाती थी।
दारोगा : बेशक, ऐसा ही है, मगर उस तिलिस्म में भी जो खास-खास अलभ्य वस्तुए हैं, उनका मालिक तिलिस्म तोड़नेवाले के सिवाय और कोई नहीं हो सकता। अच्छा अब ठहर जा, हम लोग ठिकाने पहुँच गये हैं, यहाँ एक दरवाज़ा है, जिसे खोलकर आगे चलना चाहिए।
दारोगा की यह बात सुनकर मायारानी रुक गयी। मगर अँधेरे में उसे यह न मालूम हुआ कि बाबाजी क्या कर रहे हैं। दस-बारह पल से ज्यादे देर न लगी होगी कि एक आवाज़ ठीक उसी प्रकार की आयी। इसके बाद बाबाजी ने मोमबत्ती जलायी, जिसका सामान दरवाज़े के पास ही किसी ठिकाने पर था।
बहुत देर तक अँधेरे में रहने के कारण मायारानी बहुत घबड़ा गयी थी। अब रोशनी हो जाने से वह चैतन्य हो गयी और आँखे फाड़कर चारों तरफ देखने लगी। केवल उधर की तरफ जिधर से वह आयी थी, लोहे का एक तख्ता दिखलायी दिया, जिसमें दरवाज़े का कोई आकार न था, इसके अतिरिक्त सब तरफ पत्थर ही दिखायी पड़ता था, और साफ़ मालूम होता था कि मानवीय उद्योग से पहाड़ काटकर यह रास्ता या सुरंग तैयार की गयी है, मगर वह सुरंग इसी जगह पर नहीं समाप्त हुई थी, बल्कि बायीं तरफ तीन-चार सीढ़ियाँ नीचे उतरके और भी कुछ दूर तक गयी हुई थी। मायारानी ने आश्चर्य से चारों तरफ देखने बाद बाबाजी से कहा, "यह लोहे की दीवार जो सामने दिखायी पड़ती है, निःसन्देह दरवाज़ा है, परन्तु इसमें दरवाज़े का कोई आकार मालूम नहीं पड़ता, आपने इसे किस तरकीब से खोला या बन्द किया था?" इसके जवाब में दारोगा ने कहा, "इस दरवाज़े को खोलने और बन्द करने की तरकीब नियमानुसार इन्द्रदेव की आज्ञा बिना मैं नहीं बता सकता, और यह मोमबत्ती भी मैंने इसलिए जलायी है कि (सीढ़ियों की तरफ इशारा करके) इन सीढ़ियों को तू अच्छी तरह देख ले, जिसमें उतरते समय ठोकर न लगे।" इतना कहते ही दारोगा ने मोमबत्ती बुझाकर उसे उसी ठिकाने पर रख दिया, और मायारानी का हाथ पकड़के सीढ़ियों के नीचे उतरा। मायारानी को अपनी बातों का जवाब न पाने से रंज हुआ, मगर वह कर ही क्या सकती थी, क्योंकि इस समय वह हर तरह से दारोगा के अधीन थी।
सीढ़ियाँ उतने के साथ ही सामने की तरफ थोड़ी दूर पर उजाला दिखायी दिया और मालूम हुआ कि उस ठिकाने पर सुरंग समाप्त हुई है। आश्चर्य, डर, चिन्ता और आशा के साथ मायारानी ने यह रास्ता भी तै किया और सुरंग के आखिरी दरवाज़े के बाहर कदम रखने के साथ ही एक रमणीक स्थान की छटा देखने को मिली।
इस समय मायारानी की आँखों के सामने पहाड़ी गुलबूटों से हरा-भरा एक चौखूटा मैदान था, जिसकी लम्बाई चार सौ गज और चौड़ाई साढ़े तीन सौ गज से ज्यादे न होगी। यह मैदान चारों तरफ से ढालवीं और सरसब्ज पहाड़ी से घिरा हुआ था जिस पर के पेड़ों और सुन्दर-सुन्दर लताओं के बीच से निकलकर निरोग हवा के नर्म-नर्म झपेटे आ रहे थे। सामने की तरफ पहाड़ी की आधी ऊँचाई से झरना गिर रहा था, जिसका बिल्लौर की तरह साफ़ जल नीचे आकर बारीक और पेंचीली नालियों का-सा आनन्द दिखलाता हुआ रमने के खुशनुमा कोमल और सुन्दर फूल-पत्तों वाले पौधों को तरी पहुँचा रहा था। खुशनुमा और और मीठी बोलियों से दिल लुभा लेने वाली छोटी-छोटी चिड़ियों की सुरीली आवाज़ों से दबी हुई रसीले फूलों पर घूम-घूमकर बलाएँ लेते हुए मस्त भौरों के पैरों की आवाज़ कमजोर उदास और मुरझाए दिल को ताकत और खुशी देने के साथ ही चैतन्य कर रही थी। इस स्थान के आधे हिस्से पर इस समय अपना दखल जमाये हुए सूर्य भगवान की कृपा से धूप-छाँह की हुबाबी चादर इस ढंग से बिछा रक्खी थी कि तरह-तरह की चिन्ताओं और खुटकों से विकल मायारानी को लाचार होकर, मस्ती और मदहोशी के कारण थोड़ो देर को अपने को भुला देने पड़ा जब वह कुछ होश में आयी तो सोचने लगी कि ऐसे अनूठे स्थान का अपूर्व आनन्द लेने वाला भी कोई यहाँ है, या नहीं। इस विचार के साथ ही दाहिने तरफ की पहाड़ीवाले, एक खुशनुमा बँगले पर उसकी निगाह जा पड़ी, मगर उसे अच्छी तरह देखने भी न पायी थी कि दारोगा साहब हँसकर बोल उठे, "अब यहाँ कब तक खड़ी रहोगी, चलो आगे बढ़ो!"
जिस जगह मायारानी खड़ी थी, उसकी ऊँचाई जमीन से लगभग बीस-पचीस गज के होगी। नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, जिन पर पहिले दारोगा ने अपना मनहूस (अमंगल) कदम रक्खा और उसके पीछे-पीछे मायारानी रवाना हुई।
ये दोनों उस खुशनुमा जमीन की कुदरती क्यारियों पर घूमते हुए उस पहाड़ी के नीचे पहुँचे, जिस पर वह खूबसूरत बँगला बना हुआ था, और उसी समय दो आदमियों को पहाड़ी के नीचे उतरते हुए देखा। बात-की-बात में ये दोनों आदमी दारोगा के पास आ पहुँचे, और दण्ड प्रणाम के बाद बोले, "इन्द्रदेवजी ने आपको दूर ही से देखके पहिचान लिया, मगर मायारानी को न पहिचान सके, जो इस समय आपके साथ हैं।"
यह जानकर मायारानी को आश्चर्य हुआ कि यहाँ का हरएक आदमी उसे अच्छी तरह जानता और पहिचानता है, मगर इस विषय में कुछ पूछने का मौका न समझकर वह चुप हो रही। बाबाजी ने दोनों ऐयारों से पूछा, "कहो कुशल तो है? इन्द्रदेव अच्छे हैं?"
एक : जी हाँ, बहुत अच्छे हैं। मगर यह तो कहिए आपने नाक पर पट्टी क्यों बाँधी हुई है?
दारोगा : इसका हाल इन्द्रदेव के सामने कहूँगा, उसी समय तुम भी सुन लेना। चलो जल्दी चलें, भूख-प्यास और थकावट से जी बेचैन हो रहा है।
ये चारों आदमी पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। यद्यपि इन सभों को बहुत ऊँचे नहीं चढ़ना था, परन्तु मायारानी बहुत थकी और सुस्त हो रही थी, इसलिए बड़ी कठिनाई के साथ चढ़ी और ऊपर पहुँचने तक मामूली से बहुत ज्यादे देर लगी। ऊपर पहुँचकर मायारानी ने देखा कि वह बँगला छोटा और साधारण नहीं है, बल्कि बहुत बड़ा और अच्छे ढंग का बना हुआ है, मगर यहाँ पर इस मकान की बनावट तथा उसके सुन्दर-सुन्दर कमरों की सजावट का हाल न लिखकर मतलब की बातें लिखना ही उचित जान पड़ता है।
उस समय इन्द्रदेव अगवानी के लिए स्वयं बाहर निकल आया, जब ये दोनों आदमी उस कमरे के पास पहुँचे, जिसमें वह रहता था। वह इन दोनों से बड़े तपाक से मिला और खातिर के साथ अन्दर ले जाकर बैठाया।
इन्द्रदेव : (दारोगा से) आपके और मायारानी के कष्ट करने का सबब पूछने के पहिले मैं जानना चाहता हूँ कि आपने नाक पर पट्टी क्यों बाध रक्खी है?
दारोगा : तुमसे विदा होकर मैंने जो कुछ तकलीफें उठायी हैं, यह उसी का नमूना है। जब मैं जरा दम लेने के बाद अपना किस्सा तुमसे कहूँगा, तब सब हाल मालूम हो जायगा, इस समय भूख-प्यास और थकावट से जी बेचैन हो रहा है।
दारोगा का जवाब सुनकर इन्द्रदेव चुप हो रहा और फिर कुछ बातचीत न हुई। दारोगा और मायारानी के खाने-पीने का उत्तम प्रबन्ध कर दिया गया, और उन दोनों ने कई घण्टे तक आराम करके अपनी थकावट दूर की। जब सन्ध्या होने में थोड़ी देर बाकी थी तब इन्द्रदेव स्वयं उस कमरे में आया, जिसमें दारोगा का डेरा पड़ा हुआ था। वह कमरा इन्द्रदेव के कमरे के बगल ही में था और उसमें जाने के लिए केवल एक मामूली दरवाज़ा था। उस समय मायारानी दारोगा के पास बैठी अपना दुखड़ा रो रही थी। इन्द्रदेव के आते ही वह चुप हो गयी और बाबाजी ने खातिर के साथ इन्द्रदेव को अपने बगल में बैठाया।
इन्द्रदेव : मैं समझता हूँ कि इस समय आप अपना हाल बखूबी कह सकेंगे, जिसके सुनने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा है।
दारोगा : वह कहने के लिए मैं इस समय स्वयं ही तुम्हारे पास आने-वाला था, अच्छा हुआ कि तुम आ गये।
दारोगा ने अपना और मायारानी का हाल जो कुछ हम ऊपर लिख आये हैं, इन्द्रदेव से पूरा-पूरा बयान किया। इन्द्रदेव चुपचाप सुनता गया पर अन्त में जब नागर द्वारा बाबाजी की नाक काटने का हाल सुना तो उसे यकायक क्रोध चढ़ आया। उसका चेहरा लाल हो गया, होंठ हिलने लगे, और वह बिना कुछ कहे बाबाजी के पास से उठकर चला गया। यह हाल देखकर मायारानी को ताज्जुब मालूम हुआ और उसने दारोगा से पूछा, "क्या आप कह सकते हैं कि इन्द्रदेव आपकी बातों का कोई जवाब दिये बिना ही क्यों चला गया?"
दारोगा : मालूम होता है कि मेरा हाल सुनकर उसे हद्द से ज्यादे क्रोध चढ़ आया और वह कोई कार्रवाई करने के लिए चला गया है।
माया : इन्द्रदेव नागर को जानता है?
दारोगा : बहुत अच्छी तरह, बल्कि नागर का जितना भेद इन्द्रदेव को मालूम है, उतना तुमको भी न मालूम होगा।
माया : सो कैसे?
दारोगा : जिस जमाने में यह नागर रण्डियों की तरह बाजार में बैठती थी और मोतीजान के नाम से मशहूर थी, उस जमाने में इन्द्रदेव भी कभी-कभी उसके पास भेष बदलकर गाना सुनने की नीयत से जाया करता था, और उसकी हरएक बातों की उसे खबर थी, मगर इन्द्रदेव का ठीक-ठीक हाल बहुत दिनों तक सोहबत करने पर भी नागर को मालूम न हुआ, वह इन्द्रदेव को केवल एक सरदार और रुपये वाला ही जानती थी।
आधे घण्टे तक इसी किस्म की बातें होती रहीं, और इसके बाद इन्द्रदेव के ऐयार सूर्यसिंह ने कमरे के अन्दर आकर कहा, "इन्द्रदेवजी आपको बुलाते हैं, आप अकेले आइए और नजरबाग में मिलिए, जहाँ वह अकेले टहल रहे हैं।"
इस सन्देश को सुनकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और मायारानी को अपने कमरे में जाने के लिए कह इन्द्रदेव के पास चला गया।
इस मकान के पीछे एक छोटा-सा नजरबाग भी था, जो अपनी खुशनुमा क्यारियों और गुलबूटों की बदौलत बहुत ही भला मालूम पड़ता था। जब दारोगा वहाँ पहुँचा तो उसने इन्द्रदेव को उसी जगह टहलते हुए पाया।
इन्द्रदेव : भाई साहब, आज आपकी जुबान से मैंने वह बात सुनी है, जिसके सुनने की कदापि आशा न थी।
दारोगा : बेशक, नागर की बदमाशी का हाल सुनकर आपको बहुत ही रंज हुआ होगा।
इन्द्रदेव : नहीं मेरा इशारा नागर की तरफ नहीं है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि नागर ने आपके साथ जो कुछ किया, बहुत बुरा किया और उसे गिरफ्तार कर लेने के लिए एक ऐयार और कई सिपाही रवाना भी कर चुका हूँ, मगर मैं उन बातों की तरफ इशारा कर रहा हूँ, जो राजा गोपालसिंह से संबंध रखती हैं। मुझे इस बात का गुमान भी न था कि राजा गोपालसिंह अभी तक जीते हैं! मुझे स्वप्न में भी इस बात का ध्यान नहीं आ सकता था कि मायारानी वास्तव में गोपालसिंह की स्त्री नहीं है, और आपकी कृपा से लक्ष्मीदेवी की गद्दी पर जा बैठी! ओफ ओह, दुनिया भी अजब चीज़ है, और उसमें विहार करने वाले दुनियादार भी कैसे मनसूबे गाँठते हैं?
इन्द्रदेव की बातें सुनकर दारोगा चौंक पड़ा और उसे विश्वास हो गया कि हमारी आशालता में अब कोई नये ढंग का फूल खिला चाहता है। उसने घबड़ाकर इन्द्रदेव की तरफ देखा, जिसका जमीन की तरफ झुका हुआ चेहरा इस समय बहुत ही उदास हो रहा था।
दारोगा : बेशक मायारानी को लक्ष्मीदेवी बनाने में मेरा कसूर था, मगर राजा गोपालसिंह के बारे में मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। मुझे इस बात का गुमान भी न था कि राजा साहब को मायारानी ने कैद कर रक्खा है, मैं वास्तव में उन्हें मरा हुआ समझता था।
इन्द्रदेव : (इस ढंग से जैसे दारोगा की बात उसने सुनी ही नहीं) क्या आप कह सकते हैं कि राजा गोपालसिंह ने आपके साथ कोई बुराई की थी?
दारोगा : नहीं नहीं, उस बेचारे ने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की!
इन्द्रदेव : क्या आप कह सकते हैं कि गोपालसिंह के बाद आप विशेष धनी हो गये हैं?
दारोगा : नहीं।
इन्द्रदेव : क्या आप इतना भी कह सकते हैं कि राजा साहब के समय की बनिस्बत आज ज्यादे प्रसन्न हैं?
दारोगा : (ऊँची साँस लेकर) हाय, प्रसन्नता तो मानो मेरे लिए सिरजी ही नहीं गयी।
इन्द्रदेव : नहीं नहीं, आप ऐसा कदापि नहीं कह सकते, बल्कि ऐसा कहिए कि ईश्वर की दी हुई प्रसन्नता को आपने लात मारकर घर से निकाल दिया।
दारोगा : बेशक, ऐसा ही है।
इन्द्रदेव : (जोर देकर) और आज नाक कटाकर भी दुनिया में मुँह दिखाने के लिए आप तैयार हैं; और पिछली बातों पर जरा भी अफसोस नहीं करते! जिस कमबख्त मायारानी ने अपना धर्म नष्ट कर दिया, जो मायारानी लोकलाज को एकदम तिलांजलि दे बैठी, जिस दुष्टा ने अपने सिरताज गोपालसिंह के साथ घात किया, जिस पिशाचिनी ने अपने माता-पिता की जान ली, जिसकी बदौलत आपको कारागार (कैदखाने) का मजा चखना पड़ा और जिसके सतसंग से नाक कटा बैठे, आज पुनः उसी की सहायता करने के लिए आप तैयार हुए हैं, और इस पाप में मुझसे सहायता लेकर, मुझे नष्ट किया चाहते हैं! वाह भाई साहब वाह, आपने गुरु का अच्छा नाम रोशन किया, और मुझे भी अच्छा उपदेश कर रहे हैं! बड़े अफसोस की बात है कि आप-सा एक अदना आदमी जो एक ऱण्डी के हाथ से अपनी नाक नहीं बचा सका, राजा बीरेन्द्रसिंह जैसे प्रतापी राजा का नामोनिशान मिटाने के लिए तैयार हो जाय! मैंने तो राजा बीरेन्द्रसिंह का केवलचीज़ों इतना ही कसूर किया कि आपको उनके कैदखाने से निकाल लाया अब इसी अपराध को क्षमा कराने के उद्योग में लगा हूँ, मगर आप, जिसकी बदौलत में आपराधी हुआ हूँ, अब फिर...
इतना कहते-कहते इन्द्रदेव रुक गया, क्योंकि पल-पल-भर में बढ़ते जाने वाले क्रोध ने उसका कण्ठ बन्द कर दिया। उसका चेहरा लाल हो रहा था, और होंठ काँप रहे थे।
दारोगा का चेहरा जर्द पड़ गया, पिछले पापों ने उसके सामने आकर, अपनी भयानक मूर्ति दिखाके डराना शुरू किया, और वह दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँक रोने लगा।
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा इसके बाद इन्द्रदेव ने फिर कहना शुरू किया—
"हाय, मुझे रह-रहकर वह जमाना याद आता है, जिस जमाने में दयावान और धर्मात्मा राजा गोपालसिंह की बदौलत आपकी कदर और इज्जत होती थी। जब कोई सौगात उनके पास आती थी, तब वह ‘लीजिए बड़े भाई’ कहकर आपके सामने रखते थे। जब कोई नया काम करना होता था, तो ‘कहिए बड़े भाई आप क्या आज्ञा देते हैं? कहकर आपसे राय लेते थे, और जब उन्हें क्रोध चढ़ता था और उनके सामने किसी के जाने की हिम्मत न पड़ती थी, तब आपकी सूरत देखते ही सिर झुका लेते थे, और बड़े उद्योग से अपने क्रोध को दबाकर हँस देते थे। क्या कोई कह सकता है कि आपसे डरकर या दबकर वे ऐसा करते थे? नहीं कदापि नहीं, इसका सबब केवल प्रेम था। वे आपको चाहते थे और आप पर विश्वास रखते थे कि स्वामीजी ने (जिनके आप शिष्य हैं) आपको अच्छी दीक्षा और शिक्षी दी होगी। उन्हें यह मालूम न था कि आप इतने बड़े विश्वासघाती हैं! हाय, उनके साथ आपका ऐसा बरताव! छि : छि : धिक्कार है, ऐसी जिन्दगी पर! किसके लिए? किस दुनिया में मुँह दिखाने के लिए? क्या आप नहीं जानते कि ईश्वर भी कोई वस्तु है! खैर, जाइए, इस समय मैं विशेष बात नहीं कर सकता। आप यह न समझिए कि मैं अपने घर में से चले जाने के लिए आपसे कहता हूँ, बल्कि यह कहता हूँ कि अपने कमरे में जाकर आराम कीजिए। आपको चार दिन की मोहलत दी जाती है, इस बीच में अच्छी तरह सोच लीजिए कि किस तरह से आपकी भलाई हो सकती है, और आपको किस रास्ते पर चलना उचित है। मगर खबरदार, इस समय जो कुछ बातें हुई हैं, उनका जिक्र मायारानी से न कीजिएगा और न इन चार दिनों के अन्दर मुझसे मिलने की भी आशा न रखिएगा।
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