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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

।। नौवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान


अब वह मौका आ गया है कि हम अपने पाठकों को तिलिस्म के अन्दर ले चलें और वहाँ की सैर करावें, क्योंकि कुँअर इन्द्रजीत सिंह और आनन्दसिंह मायारानी के तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा विराजे हैं, जिसे एक तरह पर तिलिस्म का दरवाजा कहना चाहिए। ऊपर के भाग में यह लिखा जा चुका है कि भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ़ और राजा गोपालसिंह और देविसिंह को काशी की तरफ़ रवाना करने के बाद इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तेजसिंह, तारासिंह, शेरसिंह और लाडिली को साथ लिए हुए कमलिनी तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा पहुँची और उसने राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार देवमन्दिर में, जिसका हाल आगे चलकर खुलेगा, डेरा डाला। हमने कमलिनी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह वगैरह को दरोगावाले मकान के पास के एक टीले पर ही पहुँचाकर छोड़ दिया था, और यह नहीं लिखा कि वे लोग तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में किस राह से पहुँचे या वह रास्ता किस प्रकार का था। खैर, हमारे पाठक महाशय ऐयारों के साथ कई दफे उस तिलिस्मी बाग में जाँयगे, इसलिए वहाँ के रास्ते का हाल उनसे छिपा न रह जायगा।

तिलिस्मी बाग का चौथा दर्जा अद्भुत और भयानक रस का खजाना था। वहाँ का पूरा हाल तो तब मालूम होगा, जब तिलिस्म बखूबी टूट जायगा, मगर जाहिरी हाल, जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह और उनके साथियों ने वहाँ पहुँचने के साथ ही देखा, हम इस जगह लिख देते हैं।

उस हिस्से में फूल-फल और पत्ते की किस्म में से ऐसा कुछ विशेष न था जिससे हम उसे बाग कहते। हाँ, चारों तरफ़ तरह-तरह की इमारतें जरूर बहुतायत से बनी हुई थीं, जिनका हाल हम उस देवमन्दिर को मध्य मानकर लिखते हैं, जिसमें इस समय हमारे दोनों कुमार और दोनों नेक दिल खैरख्वाह और मुहब्बत का नमूना दिखानेवाली नायिकाएँ तथा उनके साथी लोग विराज रहे हैं। जैसाकि नाम से समझा जाता है, वह देवमन्दिर वास्तव में कोई मन्दिर या शिवालय नहीं था, वह केवल एक मकान सुर्ख पत्थर का बना हुआ था, जिसमें दस हाथ की कुर्सी के ऊपर चालीस खम्भों का केवल एक अपूर्व कमरा था, जिसके बीचोबीच में दस हाथ के घेरे का एक गोल खम्भा था और उस पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं। बस इसके अतिरिक्त देवमन्दिर में और कोई बात न थी। उस देवमन्दिरवाले कमरे में जाने के लिए जाहिर में कोई भी रास्ता न था, इसके सिवाय एक बात यह और थी कि कमरा चारों तरफ़ से परदेनुमा ऊँची दीवारों से ऐसा घिरा हुआ था कि उसके अन्दर रहनेवाले आदमियों को बाहर से कोई देख नहीं सकता था। उस देवमन्दिर के चारों तरफ़ थोड़ी-सी जमीन में बाग की पक्की क्यारियाँ बनी हुई थीं और उनमें तरह-तरह के पेड़ लगे हुए थे, मगर ये पेड़ सच्चे न थे, बल्कि एक प्रकार की धातु से बने हुए थे और असली मालूम होने के लिए उन पर तरह-तरह के रंग चढ़े हुए थे, यदि इस ख्याल से उसे हम बाग कहें तो हो भी सकता है, और ताज्जुब नहीं कि इन्हीं पेड़ों की वजह से वह हिस्सा बाग के नाम से पुकारा भी जाता हो। उस नकली बाग में दो-दो आदमियों के बैठने लायक कई कुर्सियाँ भी जगह-जगह बनी हुई थीं, उन क्यारियों के चारों तरफ़ छोटी-छोटी कई कोठरियाँ और मकान भी थे, जिनका अलग-अलग हाल लिखना इस समय आवश्यक नहीं, मगर उन चार मकानों का हाल लिखे बिना काम न चलेगा, जोकि देवमन्दिर या यों कहिए कि इस नकली बाग के चारों तरफ, एक-दूसरे के मुकाबले में बने हुए थे, और जिन चारों ही मकानों के बगल में एक कोठरी, और कोठरी से थोड़ी दूर के फासले पर एक-एक कूँआ भी बना हुआ था।

पूरब तरफवाले मकान के चारों तरफ़ पीतल की ऊँची दीवार थी, इसलिए उस मकान का केवल ऊपरवाला हिस्सा दिखायी देता था, और कुछ मालूम नहीं होता था कि उसके अन्दर क्या है, हाँ, छत के ऊपर एक लोहे का पतला महराबदार खम्भा निकला हुआ जरूर दिखायी दे रहा था, जिसका दूसरा सिरा उसके पासवाले कूँए के अन्दर गया हुआ था। उस मकान के चारों तरफ़ जो पीतल की दीवार थी, उसी में एक बन्द दरवाजा भी दिखायी देता था, जिसके दोनों तरफ़ पीतल के दो-दो आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिये खड़े थे।

पश्चिम तरफ़ वाले मकान के दरवाज़े पर हड्डियों का एक बड़ा ढेर था, और उसके बीचोबीच में लोहे की एक जंजीर गड़ी थी, जिसका दूसरा सिरा उसके पासवाले कूँए के अन्दर गया हुआ था।

उत्तर तरफ़ वाला मकान गोलाकार स्याह पत्थर का बना हुआ था, और उसके चारों तरफ़ चर्खियाँ और तरह-तरह के कल-पुर्जे लगे हुए थे। इसी मकान के पासवाले कूँए के अन्दर मायारानी अपने पति का काम तमाम करने के लिए गयी थी।

दक्खिन की तरफ़ वाले मकान के ऊपर चारों कोनों पर चार बुर्जियाँ थीं, और उनके ऊपर लोहे का जाल पड़ा हुआ था। उन चारों बुर्जियों पर (जाल के अन्दर) चार मोर न मालूम किस चीज़ के बने हुए थे, जो हर वक्त नाचा करते थे।

आज उसी देवमन्दिर के कमरे में दोनों कुमार, कमलिनी, लाडिली और ऐयार लोग बैठे आपुस में कुछ बातें कर रहे हैं। रिक्तगन्थ अर्थात् किसी के खून से लिखी हुई किताब, कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथों में है, और वह बड़े प्रेम से उसकी जिल्द देख रहे हैं, मगर अभी तक उस किताब को पढ़ने की नौबत नहीं आयी है। कमलिनी मुहब्बत की निगाह से इन्द्रजीतसिंह को देख रही है, और उसी तरह लाडिली भी छिपी निगाहें आनन्दसिंह पर डाल रही है।

कमलिनी : (इन्द्रजीतसिंह से) अब आपको चाहिए कि जहाँ तक जल्द हो सके, यह रिक्तगन्थ पढ़ जाँय।

इन्द्रजीत : हाँ, मैं भी यही चाहता हूँ, परन्तु पहिले उन कामो से छुट्टी पा लेना चाहिए, जिनके लिए तेजसिंह चाचा और ऐयारों को हम लोग यहाँ तक साथ लाये हैं।

कमलिनी : मैं इन लोगों को केवल रास्ता दिखाने के लिए यहाँ तक लायी थी, सो काम तो हो ही चुका, अब इन लोगों को यहाँ से जाना और कोई नया काम करना चाहिए, और आपको भी रिक्तगन्थ पढ़ने के बाद तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगा देना चाहिए।

इन्द्रजीत : राजा गोपालसिंह ने कहा था कि किशोरी और कामिनी को छुड़ाकर जब हम आ जाँय, तब तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाना। इसके अतिरिक्त तेजसिंह चाचा से मुझे राजा गोपालसिंह के छुड़ाने का हाल सुनना भी बाक़ी है।

तेज : उस बारे में कुछ हाल तो मैं आपसे कह भी चुका हूँ?

आनन्द : जी हाँ, वहाँ तक कह चुके हैं, जब (कमलिनी की तरफ़ देखकर) ये चण्डूल की सूरत बनकर आपके पास आयी थीं, मगर यह न मालूम हुआ कि इन्होंने हरनामसिंह, बिहारीसिंह और मायारानी के कान में क्या कहा, जिसे सुन सभों की अवस्था बदल गयी थी। जहाँ तक मैं समझता हूँ शायद इन्होंने राजा गोपालसिंह के ही बारे में कोई इशारा किया होगा।

कमलिनी : जी हाँ, यही बात है। राजा गोपालसिंह के कैद करने में हरनामसिंह और बिहारीसिंह ने भी मायारानी का साथ दिया था और धनपत इस काम का जड़ है!

इन्द्रजीत : (हँसकर) धनपति इस काम ‘का’ जड़ है!

कमलिनी : जी हाँ, मैं बोलने में भूलती नहीं, धनपति वास्तव में औरत नहीं बल्कि मर्द है। उसकी खूबसूरती ने मायारानी को फँसा लिया और उसी की मुहब्बत में पड़कर उसने यह अनर्थ किया था। ईश्वर ने धनपति का चेहरा ऐसा बनाया है कि वह मुद्दत तक औरत बनकर रह सकता है, एक तो वह नाटा है, दूसरे अठारह वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी दाढ़ी-मोंछ की निशानी नहीं आयी। लेकिन जनानी सूरत होने पर भी उसमें ताकत बहुत है।

इन्द्रजीत : (ताज्जुब से) यह तो एक नयी बात तुमने सुनायी। अच्छा तब?

लाडिली : क्या धनपति मर्द है?

कमलिनी : हाँ, और यह हाल मायारानी, बिहारीसिंह और हरनामसिंह के सिवाय और किसी को मालूम नहीं है। कुछ दिन बाद मुझे मालूम हो गया था, मगर आज के पहिले यह हाल मैंने भी किसी से नहीं कहा था। इसी तरह राजा गोपालसिंह का हाल भी उन चारों के सिवाय और कोई नहीं जानता था, और मुझे भी इत्तिफाक ही से इस बात का पता लग गया। उन लोगों को यही विश्वास था कि राजा गोपालसिंह का हाल सिवाय हम चारों के और कोई भी नहीं जानता, और जब कोई पाँचवाँ आदमी उस भेद को जानेगा तो बेशक हम चारों की जान जायगी, और यही सबब उस समय उन लोगों की बदहवासी का था, जब मैंने चण्डूल बनकर, उन तीनों के कानों में पते की बात कही थी, मगर उस समय इसके साथ-साथ ही मैंने यह भी कह दिया था कि राजा गोपालसिंह का हाल हजारों आदमी जान गये हैं और राजा बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में भी यह बात मशहूर हो गयी है।

आनन्द : ठीक है, मगर बिहारीसिंह ने मायारानी से यह हाल क्यों नहीं कहा?

कमलिनी : इसका एक खास सबब है

इन्द्रजीत : वह क्या?

कमलिनी : बिहारी और हरनाम ने मायारानी के दो प्रेमी-पात्रों का खून किया है, जिसका हाल मायारानी को भी मालूम नहीं है, उसका भी इशारा मैंने उन दोनों के कानों में किया था।

इन्द्रजीत : (हँसकर) तुम्हारी बहिन बड़ी ही शैतान है! मगर देखा चाहिए, तुम कैसी निकलती हो, खून का साथ देती हो या नहीं!

कमलिनी : (हाथ जोड़कर) बस, माफ कीजिए, ऐसा कहना हम दोनों बहिनों (लाडिली की तरफ़ इशारा करके) के लिए उचित नहीं! इसका एक सबब भी है।

इन्द्रजीत : वह क्या?

कमलिनी : मेरे पिता की दो शादियाँ हुई थीं। मैं और लाडिली एक माँ के पेट से हुई और कमबख्त मायारानी दूसरी माँ के पेट से, इस लिए हम दोनों का खून उसके संग नहीं मिल सकता।

इन्द्रजीत : (हँसकर) शुक्र है। खैर, यह कहो कि चण्डूल बनने के बाद तुमने क्या किया?

कमलिनी : चण्डूल बनने के बाद मैंने नानक को बाग के बाहर कर दिया और तेजसिंह को राजा गोपालसिंह के पास ले जाकर, दोनों की मुलाकात करायी, इसके बाद वहाँ रहने का स्थान, राजा गोपालसिंह के छुड़ाने की तरकीब और उन्हें साथ लेकर बाग के बाहर हो जाने का रास्ता बताकर, मैं तेजसिंह से बिदा हुई, और आप लोगों को कैद से छुड़ाने का उद्योग करने लगी। इसके बाद जो कुछ हुआ आप जान ही चुके हैं। हाँ, राजा गोपालसिंह को छुड़ाने के समय तेजसिंह ने क्या-क्या किया, सो आप इन्हीं से पूछिए।

अब पाठक समझ ही गये होंगे कि राजा गोपालसिंह को कैद से छुड़ानेवाले तेजसिंह थे, और जब राजा गोपालसिंह को मारने के लिए मायारानी कैदखाने में गयी थीं, तो तेजसिंह ही ने आवाज़ देकर उसे परेशान कर दिया था। दोनों कुमारों के पूछने पर तेजसिंह ने अपना पूरा-पूरा हाल बयान किया, जिसे सुनकर कुमार बहुत प्रसन्न हुए।

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