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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

।। आठवाँ भाग ।।

पहिला बयान

मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गयी तो उसके घण्टे-भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था, जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया, जिनकी बदौलत दो घण्टे पहिले वह बहुत ही परेशान थी। न वह बैठकर आराम पा सकती थी और न कोई उपन्यास इत्यादि पढ़कर ही अपना जी बहला सकती थी। उसने अपनी आलमारी में से नाटक की किताब निकाली और शमादान के पास जाकर पढ़ना शुरू किया, पर नान्दी पढ़ते-पढ़ते ही उसकी आँखों पर पलकों का पर्दा पड़ गया और फिर आधे घण्टे तक वह गम्भीर चिन्ता में डूबी रह गयी, इसके बाद किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया और वह घूमकर दरवाज़े की तरफ़ देखने लगी। धनपति उसके सामने आकर खड़ी हो गयी और बोली–

धनपति : मेरी प्यारी रानी, मैं देखती हूँ कि इस समय तू बहुत ही उदास और किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी हुई है, शायद अभी तक तेरी आँखों में निद्रादेवी का डेरा नहीं पड़ा।

माया : बेशक ऐसा ही है, मगर तेरे चेहरे पर भी...

धनपति : मैं तो बहुत घबरा गयी हूँ, क्योंकि अब यह बात लोगों को मालूम हुआ चाहती है, मैं खूब जानती हूँ कि तुम्हारी कट्टर रिआया उसे जी जान से...

माया : बस बस, आगे कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी सोच ने तो मुझे बेकाम कर दिया है।

धनपति : मैं थोड़े दिनों के लिए तुमसे जुदा होना उचित समझती हूँ और यही कहने के लिए मैं यहाँ तक आयी हूँ।

माया : (घबड़ाकर) तुझे क्या हो गया है? मुँह से बात भी सम्हालकर नहीं निकालती!

धनपति : हाँ हाँ, मुझसे भूल हो गयी, इस समय तरद्दुद और डर ने मुझे बेकाम कर रक्खा है।

माया : अच्छा तो तू मुझसे जुदा होकर कहाँ जायेगी?

धनपति : जहाँ कहो।

माया : (कुछ सोचकर) अभी जल्दी न करो, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह कब्जे में आ ही चुके हैं, सूर्योदय के पहिले ही मैं उनका काम तमाम कर दूँगी।

धनपति : मगर उसका क्या बन्दोबस्त किया जायगा, जिसके विषय में चण्डूल ने तेरे कान में...

माया : आह, उसकी तरफ़ से भी अब मुझे निराशा हो गयी, वह बड़ा ज़िद्दी है।

धनपति : तो क्यों नहीं उसकी तरफ़ से भी निश्चिन्त हो जाती हो?

माया : हाँ, अब यही होगा।

धनपति : फिर देर करने की क्या ज़रूरत है?

माया : मैं अभी जाती हूँ, क्या तू भी मेरे साथ चलेगी!

धनपति : मैं चलने को तैयार हूँ, मगर न मालूम उसे (चण्डूल को) यह बात क्योंकर मालूम हो गयी।

माया : ख़ैर अब चलना चाहिए।

अब मायारानी का ध्यान कैदख़ाने की ताली पर गया। अपनी कमर में ताली न देखकर बहुत हैरान हुई। थोड़ी देर के लिए वह अपने को बिल्कुल ही भूल गयी पर आख़िर एक लम्बी साँस लेकर धनपति से बोली, "आफ़त आने की यह दूसरी निशानी है!"

धनपति : सो क्या? मेरी समझ में कुछ भी न आया कि यकायक तेरी अवस्था क्यों बदल गयी और किस नयी घटना ने आकर तुझे घेर लिया।

माया : कैदख़ाने की ताली, जिसे मैं सदा अपनी कमर में रखती थी, गायब हो गयी।

धनपति : (घबड़ाकर) कहीं दूसरी जगह न रख दी हो।

माया : नहीं नहीं, ज़रूर मेरे पास ही थी। चल लाडिली से पूछूँ, शायद वह इस विषय में कुछ कह सके।

मायारानी धनपति को साथ लिये लाडिली के कमरे में गयी, मगर वहाँ लाडिली थी कहाँ, जो मिलती। अब उसकी घबराहट का कोई हद्द न रहा। एकदम बोल उठी, "बेशक लाडिली ने धोखा दिया।"

धनपति : उसे ढूँढ़ना चाहिए।

माया : (आसमान की तरफ़ देखकर और लम्बी साँस लेकर) आह, यह पहर-भर के लगभग जो रात बाकी है, मेरे लिए बड़ी ही अनमोल है। इसे मैं लाडिली की खोज में व्यर्थ नहीं खोया चाहती। इतने ही समय में मुझे उस ज़िद्दी के पास पहुँचना है और उसका सर काटकर लौट आना है। कैदियों से भी ज़्यादे तरद्दुद मुझे उसका है। हाय, अभी तक वह आवाज़ मेरे कान में गूँज रही है, जो चण्डूल ने कही थी, ख़ैर, वहाँ जाते-जाते कैदख़ाने को भी देखती चलूँगी (जोश में आकर) कैदी चाहे कैदख़ाने के बाहर हो जाँय, मगर इस बाग की चहारदीवारी को नहीं लाँघ सकते। जा, बिहारीसिंह और हरनामसिंह को बहुत जल्द बुला ला।

धनपति दौड़ी हुई गयी और थोड़ी ही देर में दोनों ऐयारों को साथ लिये हुए लौट आयी। वे दोनों ऐयारी के सामान से दुरुस्त और हरएक काम के लिए मुस्तैद थे। यद्यपि बिहारीसिंह के चेहरे का रंग अच्छी तरह साफ़ नहीं हुआ था, तथापि उसकी कोशिशों ने उसके चेहरे की सफाई आधी से ज़्यादे कर दी थी, आशा थी कि दो ही एक दिन में वह आइने में अपनी असली सूरत देख लेगा।

कैदख़ाने का रास्ता पाठकों को मालूम है, क्योंकि तेजसिंह जब बिहारी की सूरत में यहाँ आये थे, तो मायारानी के साथ कैदियों को देखने गये थे।

लाडिली के कमरे में से दस-बारह तीर और कमान ले के धनपति तथा दोनों ऐयारों को साथ लिये हुए मायारानी सुरंग में घुसी। जब कैदख़ाने के दरवाज़े पर पहुँची तो दरवाज़ा ज्यों-का-त्यों बन्द पाया। कैदख़ाने की ताली और लाडिली के गायब होने का हाल कहके बिहारीसिंह और हरनामसिंह की ताकीद कर दी कि जब तक मैं लौटकर न आऊँ, तब तक तुम दोनों बड़ी होशियारी से इस दरवाज़े पर पहरा दो। इसके बाद धनपति को साथ लिये हुए मायारानी बाग के तीसरे दर्जे में उसी रास्ते से गयी, जिस राह से तेजसिंह भेजे गये थे।

हम पहिले लिख आये हैं कि बाग के तीसरे दर्जे में एक बुर्ज है और उसके चारों तरफ़ बहुत से मकान, कमरे और कोठरियाँ हैं। बाग में एक छोटा-सा चश्मा बह रहा था, जिसमें हाथ-भर से ज़्यादे पानी कहीं नहीं था। मायारानी उसी चश्मे के किनारे-किनारे थोड़ी दूर तक गयी, यहाँ तक कि वह एक मौलसिरी के पेड़ के नीचे पहुँची, जहाँ संगमरमर का एक छोटा-सा चबूतरा बना हुआ था, और उस चबूतरे पर पत्थर की मूरत आदमी के बराबर की बैठी हुई थी। रात पहर भर से कम बाकी थी। चन्द्रमा धीरे-धीरे निकलकर अपनी सुफेद रोशनी आसमान पर फैला रहा था। मायारानी ने उस मूरत की कलाई पकड़कर उमेठी, साथ ही मूरत ने मुँह खोल दिया। मायारानी ने उसके मुँह में हाथ डालकर कोई पेंच घुमाना शुरू किया। थोड़ी देर में चबूतरे के सामने की तरफ़ का एक बड़ा-सा पत्थर हलकी आवाज़ के साथ हटकर अलग हो गया और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखायी दीं। अपने पीछे-पीछे धनपति को आने का इशारा करके उस तहख़ाने में उतर गयी यद्यपि तहख़ाने में अँधेरा था, मगर ने टटोलकर मायारानी ने एक आले पर से लालटेन और उसके बालने का सामान उतारा और बत्ती जलाकर चारों तरफ़ देखने लगी। पूरब तरफ़ सुरंग का एक छोटा-सा दरवाज़ा खुला हुआ था; दोनों उसके अन्दर घुसीं और सुरंग में चलने लगीं। लगभग सौ कदम के जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई, और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ दिखायी दीं। दोनों औरतें ऊपर चढ़ गयीं और उस बुर्ज के निचले हिस्से में पहुँची, जो बहुत से मकानों से घिरा हुआ था। यहाँ भी उसी तरह का चबूतरा और उस पर पत्थर का आदमी बैठा हुआ था। वह भी किसी सुरंग का दरवाज़ा था, जिसे मायारानी ने पहिली रीति से खोला। यह सुरंग चौथे दर्जे में जाने के लिए थी।

दोनों औरतें उस सुरंग में जा घुसीं। दो सौ कदम के लगभग जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नज़र आयीं। दोनों औरतें ऊपर चढ़कर एक कोठरी में पहुँची, जिसका दरवाज़ा खुला हुआ था। कोठरी के बाहर निकलकर धनपति और मायारानी ने अपने को बाग के चौथे हिस्से में पाया। इस बाग का पूरा-पूरा नक्शा हम आगे चलकर खैंचेंगे, यहाँ केवल मायारानी की कार्रवाई का हाल लिखते हैं।

कोठरी से आठ-दस कदम की दूरी पर पक्का मगर सूखा कूँआ था, जिसके अन्दर लोहे की मोटी जंजीर लटक रही थी। कूएँ के ऊपर डोल और रस्सा पड़ा था। डोल में लालटेन रखकर कूएँ के अन्दर ढीला और जब वह तह में पहुँच गया तो दोनों औरतें जंजीर थामकर कूएँ के अन्दर उतर गयी। नीचे कूएँ की दीवार के साथ छोटा-सा दरवाज़ा था जिसे खोलकर धनपति को पीछे आने का इशारा करके मायारानी हाथ में लालटेन लिये हुए अंदर घुसी। वहाँ पर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं। बिचली कोठरी में, जिसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था, एक आदमी हाथ में फौलादी ढाल लिये टहलता हुआ दिखायी पड़ा। यहाँ बिल्कुल अन्धेरा था, मगर मायारानी के हाथवाली लालटेन ने उस कोठरी की हर एक चीज़ और उस आदमी की सूरत बखूबी दिखा दी। इस समय उस आदमी की उम्र का अन्दाज करना मुश्किल है, क्योंकि रंज और गम ने उसे सुखाकर काँटा कर दिया है, बड़ी-बड़ी आँखों के चारों तरफ़ स्याही दौड़ गयी है उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं, तो भी हरएक हालत पर ध्यान देकर कह सकते हैं कि वह किसी जमाने में बहुत ही हसीन और नाजुक रहा होगा, मगर इस समय क़ैद ने उसे मुर्दा बना रक्खा है। उसके बदन के कपड़े बिल्कुल फटे और मैले थे और वह बहुत ही मजहूल हो रहा था। कोठरी के एक तरफ़ ताँबे का घड़ा, लोटा और बहुत कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था, ओढ़ने और बिछाने के लिए दो कम्बल थे। कोठरी की पिछली दीवार में खिड़की थी, जिसके अन्दर से बदबू आ रही थी।

मायारानी और धनपति को देखकर वह आदमी ठहर गया, और इस अवस्था में भी लाल-लाल आँखें करके उन दोनों की तरफ़ देखने लगा।

माया : यह आख़िरी दफे मैं तेरे पास आयी हूँ।

कैदी : ईश्वर करे ऐसा ही हो और फिर तेरी सूरत दिखायी न दे।

माया : अब भी अगर वह भेद मुझे बता दे तो तुझे छोड़ दूँगी।

कैदी : हरामजादी, कमीनी औरत। दूर हो मेरे सामने से।

माया : मालूम होता है, वह भेद तू अपने साथ ले जायेगा?

कैदी : बेशक, ऐसा ही है।

माया : यह ढाल तेरे हाथ में कहाँ से आयी?

कैदी: तुझ चाण्डालिन की इस बात का जवाब मैं क्यों दूँ?

माया : मालूम होता है कि तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है और अब तू मौत के पंजे में पड़ा चाहता है!

कैदी : बेशक, पहिले मुझे अपनी जान प्यारी न थी, पाँच दिन पीछे भोजन करना मुझे पसन्द न था, कभी-कभी तेरी सूरत देखने की बनिस्बत मौत को हजार दर्जे समझता था, मगर अब मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूँ।

माया : (हँसकर) तुझे मेरे हाथ से बचाने वाला कौन है?

कैदी : (ढाल दिखाकर) यह!

धनपति : (मायारानी के कान में) न मालूम यह ढाल इसे क्योंकर मिल गयी! क्या चण्डूल यहाँ पहुँच तो नहीं गया?

माया : (धनपति से) कुछ समझ में नहीं आता। यह ढाल भविष्य बुरा बता रही है!

धनपति : मेरा कलेजा डर के मारे काँप रहा है।

माया : (कैदी से) यह तुझे किसी तरह बचा नहीं सकती और मैं तेरी जान लिये बिना नहीं जा सकती।

कैदी : ख़ैर, जो कुछ तू कर सके कर ले।

माया : तू ज़िद्दी और बेहया है।

कैदी : हरामजादी की बच्ची, बेहया तो तू है, जो घड़ी-घड़ी मेरे सामने आती है।

इस बात के जवाब में मायारानी ने एक तीर कैदी को मारा, जिसे उसने बड़ी चालाकी से ढाल पर रोक लिया, दूसरा तीर चलाया, वह भी बेकार हुआ, तीसरा तीर चलाया, उससे भी कोई काम न चला। लाचार मायारानी कैदी का मुँह देखने लगी।

कैदी : तेरे किये कुछ भी न होगा।

माया : ख़ैर, देखूँगी तू कब तक अपनी जान बचाता है।

कैदी : मेरी जान कोई भी नहीं ले सकता, बल्कि मुझे निश्चय हो गया कि अब तेरी मौत आ गयी।

इसका जवाब मायारानी कुछ दिया ही चाहती थी कि एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया। कैदी की बात पूरी होने के साथ ही किसी ने कहा, "बेशक मायारानी की मौत आ गयी!"

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