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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

तीसरा बयान

रात पहर-भर से ज़्यादे जा चुकी है। तेजसिंह उसी दो नम्बर वाले कमरे के बाहर सहन में तकिया लगाये सो रहे हैं। चिराग बालने का कोई सामान यहाँ मौजूद नहीं, जिससे रोशनी करते, पास में कोई आदमी नहीं, जिससे दिल बहलाते, बाग से बाहर निकलने की उम्मीद नहीं कि कुमारों को छुड़ाने के लिए कोई बन्दोबस्त करते, लाचार तरह-तरह के तरद्दुदों में पड़े उन पेड़ों पर नज़र दौड़ा रहे हैं, जो सहन के सामने बहुतायत से लगे हुए थे।

यकायक पेड़ की आड़ में रोशनी मालूम पड़ी। तेजसिंह घबड़ाकर ताज्जुब के साथ उसी तर देखने लगे। थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि कोई आदमी हाथ में चिराग लिये तेजी के साथ कदम बढ़ाता उनकी तरफ़ आ रहा है। देखते-ही-देखते वह आदमी तेजसिंह के पास आ पहुँचा और चिराग एक तरफ़ रखकर सामने खड़ा होके बोला, "जय माया की!"

यह आदमी सिपाहियाना ठाठ में था। छोटी-छोटी स्याह दाढ़ी से इसके चेहरे का ज़्यादे हिस्सा ढँका हुआ था। मेयाना कद और शरीर से ह्रष्ट-पुष्ट था। तेजसिंह ने भी यह समझकर कि कोई ऐयार है, जवाब में कहा, "जय माया की!"

सिपाही : (जो अभी आया है) ओस्ताद तुमने चालाकी तो खूब की थी मगर जल्दी काम करके बिगाड़ दिया।

तेज : चालाकी क्या और जल्दी कैसी?

सिपाही : इसमें तो कोई संदेह नहीं कि मायारानी के बाग में रूप बदलकर आनेवाला ऐयार पागल बने बिना किसी दूसरी रीति से काम चला ही नहीं सकता था, परन्तु आपने जल्दी कर दी, दो-चार दिन और पागल बने रहते तो ठीक था, असली बिहारीसिंह की बातों का जवाब आपको देना न पड़ता और इस बाग के तीसरे या चौथे हिस्से का भेद भी आपसे पूछा न जाता, अब तो सभों को मालूम हो गया कि आप असली बिहारीसिंह नहीं, बल्कि कोई ऐयार हैं।

तेज : सब लोग जो चाहे समझें, मगर तुम मेरे पास क्यों आये हो?

सिपाही : इसलिए कि आपका हाल जानूँ और जहाँ तक हो सके, आपकी मदद करूँ।

तेज : मैं अपना हाल सिवाय इसके और क्या कहूँ कि मैं वास्तव में बिहारीसिंह हूँ।

सिपाही : (हँसकर) क्या खूब, अभी तक आपका मिजाज ठिकाने नहीं हुआ! मगर मैं फिर कहता हूँ कि मुझ पर भरोसा कीजिए और अपना ठीक-ठीक नाम बताइए।

तेज : जब तुम यह समझते ही हो कि मैं ऐयार हूँ तो क्या यह नहीं जानते कि ऐयार लोग किसी ऐसे बतोलिए पर जैसे कि आप हैं यकायकी कैसे भरोसा कर सकते हैं?

सिपाही : हाँ, आपका कहना ठीक है, ऐयारों को यकायक किसी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मेरे पास एक ऐसी चीज़ है कि आपको झख मारकर मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा।

तेज : (ताज्जुब से) वह ऐसी कौन-सी अनोखी चीज़ तुम्हारे पास है, जिसमें इतना बड़ा असर है कि मुझे झख मारकर तुम पर भरोसा करना पड़ेगा?

सिपाही : नेमची रिक्तगन्थ!* (* नेमची रिक्तगन्थ–यह ऐयारी भाषा का शब्द है, इसका अर्थ है–खून से लिखी किताब का घर।)

'नेमची रिक्तगन्थ' इस शब्द में न मालूम कैसा असर था कि सुनते ही तेजसिंह के रोंगटे खड़े हो गये, सिर नीचे कर लिया और न जाने क्या सोचने लगे। थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम होता था कि वह तेजसिंह नहीं, है बल्कि पत्थर की कोई मूरत हैं। आख़िर वे एक लम्बी साँस लेकर उठ खड़े हुए और सिपाही का हाथ पकड़कर बोले, "अब कहो तुम्हें मैं अपने साथियों में से कोई समझूँ या अपना पक्का दुश्मन जानूँ?"

सिपाही : दोनों में से कोई नहीं।

तेज : यह और भी ताज्जुब की बात है! (कुछ सोचकर) हाँ, ठीक है, यदि तुम चोर होते तो इतनी दिलावरी के साथ मुझसे बातें न करते, बल्कि मेरे सामने ही न आते, लेकिन यह तो मालूम होना चाहिए कि तुम हो कौन? क्या रिक्तगन्थ तुम्हारे पास है?

सिपाही : जी नहीं, यदि वह मेरे पास होता तो अब तक राजा बीरेन्द्रसिंह के पास पहुँच गया होता।

सिपाही : फिर यह शब्द तुमने कहाँ से सुना?

सिपाही : यह वही शब्द है, जिसे आप लोग समय पड़ने पर आपस में कहकर इस बात का परिचय देते हैं कि हम राजा बीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्त में से कोई हैं।

तेज : हाँ, बेशक यह वही शब्द है, तो क्या तुम राजा बीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्तों में से कोई हो।

सिपाहीः नहीं, हाँ, होगे।

तेज : (चिढ़कर) तुम अजब मसखरे हो जी, साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते कि तुम कौन हो?

सिपाही : (हँसकर) क्या उस शब्द के कहने पर भी आप मुझपर भरोसा न करेंगे?

तेज : (मुँह बनाकर और बात पर ज़ोर देकर) हाय हाय, कह तो दिया कि भरोसा किया! भरोसा किया!! भरोसा किया!!! झख मारा और भरोसा किया! अब भी कुछ कहोगे या नहीं? अपना नाम बताओगे या नहीं?

सिपाही : अच्छा तो आप ही पहिले अपना परिचय दीजिए।

तेज : मैं तेजसिंह हूँ–बस हुआ? अब भी तुम अपना कुछ परिचय दोगे या नहीं?

सिपाही : हाँ हाँ, अब मैं अपना परिचय दूँगा, मगर पहिले एक बात का जवाब दे दीजिए।

तेज : अभी एक आँच की कसर रह गयी, अच्छा पूछिए!

सिपाही : यदि कोई ऐसा आदमी आपके सामने आवे जो आपसे मुहब्बत रक्खे, आपके काम में दिलोजान से मदद करे, आपकी भलाई के लिए जान तक देने को लिए तैयार रहे, मगर उसके बाप-दाद-चाचा-भाई इत्यादि में से कोई एक आदमी आपके साथ पूरी-पूरी दुश्मनी कर चुका हो तो आप उसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे?

तेज : जो मेरे साथ नेकी करेगा, उसके साथ मैं दोस्ती का बर्ताव करूँगा, चाहे उसके बाप-दादे मेरे साथ पूरी दुश्मनी क्यों न कर चुके हों।

सिपाही : ठीक है ऐसा ही करना चाहिए, अच्छा तो फिर सुनिये–मेरा नाम नानक है और मकान काशीजी।

तेज : नानक!

सिपाही : जी हाँ और मेरा किस्सा बहुत ही अनूठा और आश्चर्यजनक है।

तेज : मैंने यह नाम कहीं सुना है, मगर याद नहीं पड़ता कि कब और क्यों सुना। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा हाल आश्चर्य और अद्भुत घटनाओं से भरा होगा। मेरी तबीयत घबड़ा रही है, जहाँ तक जल्दी हो सके अपना ठीक-ठीक हाल कहो।

नानक : दिल लगाकर सुनिए मैं कहता हूँ, यद्यपि उस काम में देर हो जायगी, जिसके लिए मैं आया हूँ तथापि मेरा किस्सा सुनकर आप अपना काम बहुत आसानी से निकाल सकेंगे और यहाँ की बहुत-सी बातें भी आपको मालूम हो जाँयगी।      

नानक का किस्सा

लड़कपन में बड़े चैन से गुजरती थी। मेरे घर में किसी चीज़ की कमी न थी। खाने के लिए अच्छी-से-अच्छी चीज़ें, पहिरने के लिए एक-से-एक बढ़के कपड़े और वे सब चीज़ें मुझे मिला करतीं, जिनकी मुझे ज़रूरत होती या जिनके लिए मैं ज़िद किया करता। माँ से मुझे बहुत ज़्यादे मुहब्बत थी और बाप से कम, क्योंकि मेरा बाप किसी दूसरे शहर में किसी राजा के यहाँ नौकर था, चौथे-पाँचवें महीने और कभी-कभी साल-भर पीछे घर में आता और दस-पाँच दिन रहकर चला जाता था। उसका पूरा हाल आगे चलकर आपको मालूम होगा। मेरा बाप, मेरी माँ को बहुत चाहता था और जब घर आता था तो बहुत-सा रुपया और अच्छी-अच्छी चीज़ें उसे दे जाया करता था और इसलिए हम लोग अमीरी ठाठ के साथ अपना दिन बिताते थे।

जिस बुड्ढी दाई की गोद में मैं खेला करता था, वह बहुत ही नेक थी और उसकी बहिन एक जमींदार के यहाँ जिसका घर मेरे पड़ोस में था, रहती और उसकी लड़की को खिलाया करती थी। मेरी दाई कभी मुझे लेकर उस जमींदार के घर जा बैठा करती और कभी उसकी बहिन उस लड़की को लेकर, जिसके खिलाने पर वह नौकर थी, मेरे घर आ बैठा करती इसलिए मेरा और उस लड़की का रोज साथ रहता तथा धीरे-धीरे हम दोनों में मुहब्बत दिन-दिन बढ़ने लगी। उस लड़की का नाम जो मुझसे उम्र में दो वर्ष कम थी रामभोली था और मेरा नाम नानक, मगर घरवाले मुझे ननकू कहके पुकारा करते। वह लड़की बहुत खूबसूरत थी मगर जन्म की गूँगी-बहरी थी तथापि हम दोनों की मुहब्बत का यह हाल था कि उसे देखे बिना मुझे और मुझे देखे बिना उसे चैन न पड़ता था। गुरु के पास बैठकर पढ़ना मुझे बहुत बुरा मालूम होता और उस लड़की से मिलने के लिए तरह-तरह के बहाने करने पड़ते।

धीरे-धीरे मेरी उम्र दस वर्ष की हुई और मैं अपने-पराये को अच्छी तरह समझने लगा। मेरे पिता का नाम रघुबरसिंह था। बहुत दिनों पर उसका घर आया करना मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ और मैं अपनी माँ से उसका हाल खोद-खोद के पूछने लगा। मालूम हुआ कि वह अपना हाल बहुत छिपाता है, यहाँ तक कि मेरी माँ भी उसका पूरा-पूरा हाल नहीं जानती, तथापि यह मालूम हो गया कि मेरा बाप ऐयार है और किसी राजा के यहाँ नौकर है। यह भी सुना कि वहाँ मेरी एक सौतेली माँ भी रहती है, जिससे एक लड़का और एक लड़की भी है।

मेरा बाप जब आता तो महीने-दो-महीने या कभी-कभी केवल आठ-ही-दस दिन रहकर चला जाता और जितने दिन रहता मुझे ऐयारी सिखाने में विशेष ध्यान देता। मुझे भी पढ़ने-लिखने से ज़्यादे खुशी ऐयारी सीखने में होती, क्योंकि रामभोली से मिलने तथा अपना मतलब निकालने के लिए ऐयारी बड़ा काम देती थी। धीरे-धीरे लड़कपन का जमाना बहुत कुछ निकल गया और वे दिन आ गये कि जब लड़कपन नौजवानी के साथ ऊधम मचाने लगा और मैं अपने को नौजवान और ऐयार समझने लगा।

एक रात मैं अपने घर में नीचे के खण्ड में कमरे के अन्दर चारपाई पर लेटा हुआ रामभोली के विषय में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। इश्क के चपेट में नींद हराम हो गयी थी, दीवार के साथ लटकती हुई तस्वीरों की तरफ़ टकटकी बाँधकर देख रहा था, यकायक ऊपर की छत पर धमधमाहट की आवाज़ आने लगी। मैं यह सोचकर निश्चिन्त हो रहा कि शायद कोई लौंडी ज़रूर काम के लिए उठी होगी, उसी के पैर की धमधमाहट मालूम होती है, मगर थोड़ी देर बाद ऐसा मालूम हुआ कि सीढ़ियों की राह कोई आदमी उतरा चला आता है। पैर की आवाज़ भारी थी, जिससे साफ़ मालूम हुआ कि यह कोई मर्द है। मुझे ताज्जुब मालूम हुआ कि इस समय मर्द इस मकान में कहाँ से आया क्योंकि मेरा बाप घर में न था, उसे नौकरी पर गये दो महीने से ज़्यादे हो चुके थे।

मैं आहट लेने और कमरे से बाहर निकलकर देखने की नीयत से उठ बैठा। चारपाई की चरमराहट और उठने की आहट पाकर यह आदमी फुर्ती से उतरकर चौक में पहुँचा और जब तक मैं कमरे के बाहर होकर उसे देखूँ, तब तक वह सदर दरवाज़ा खोलकर मकान के बाहर निकल गया। मैं हाथ में खंजर लिये हुए मकान के बाहर निकला और उस आदमी को जाते हुए देखा। उस समय मेरे नौकर और सिपाही जो दरवाज़े पर रहा करते थे, बिल्कुल गाफिल सो रहे थे, मगर मैं उन्हें सचेत करके उस आदमी के पीछे रवाना हुआ।

मैं नहीं कह सकता कि उस आदमी को जो स्याह कपड़ा ओढ़े मेरे घर से निकला था, यह ख़बर थी या नहीं कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूँ क्योंकि वह बड़ी बेफिक्री से कदम बढ़ाता हुआ मैदान की तरफ़ जा रहा था।

थोड़ी दूर जाने के बाद मुझे यह भी मालूम हुआ कि यह आदमी अपनी पीठ पर एक गठरी लादे हुए है, जो एक स्याह कपड़े के अन्दर है। अब मुझे विश्वास हो गया कि यह चोर है और इसने ज़रूर मेरे यहाँ चोरी की है। जी में तो आया कि गुल मचाऊँ, जिसमें बहुत-से आदमी इकट्ठे होकर उसे गिरफ़्तार कर लें, मगर कई बातें सोचकर चुप हो रहा और उसके पीछे-पीछे जाना उचित समझा।

घण्टे-भर तक बराबर मैं उस आदमी के पीछे-पीछे चला गया, यहाँ तक कि वह शहर के बाहर मैदान में एक ऐसी जगह जा पहुँचा, जहाँ इमली के बड़े-बड़े पेड़ इतने ज़्यादे लगे हुए थे कि उनके सबब से मामूली से विशेष अन्धकार हो रहा था। जब मैं उन घने पेड़ों के बीच पहुँचा तो मालूम हुआ कि यहाँ लगभग दस-बारह आदमी और भी हैं, जो एक समाधि के बगल में बैठे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वह आदमी उसी जगह पहुँचा और उन लोगों में से दो ने बढ़कर पूछा, "कहो अबकी दफे किसे लाये?" इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, "नानक की माँ को।"

आप खयाल कर सकते हैं कि इस शब्द को सुनकर मेरे दिल पर कैसी चोट लगी होगी। अब तक मैं यही समझ रहा था कि वह चोर मेरे यहाँ से माल असबाब चुराकर लाया है, जिसकी मुझे विशेष परवाह न थी और मैं उसका पूरा-पूरा हाल जानने की नीयत से चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया था, मगर जब यह मालूम हुआ कि वह कम्बख्त मेरी माँ को चुरा लाया है, तो मुझे बड़ा ही रंज हुआ और मैं इस बात पर अफसोस करने लगा कि उसे यहाँ तक आने का मौका क्यों दिया, क्योंकि अब इस समय यहाँ मेरे किये कुछ भी नहीं हो सकता था। चारों तरफ़ ऐसा सन्नाटा था कि अगर गला फाड़कर चिल्लाता तो भी मेरी आवाज़ किसी के कान तक न पहुँचती, इसके अतिरिक्त वे लोग गिनती में भी ज़्यादे थे, किसी तरह उनका मुकाबला नहीं कर सकता था, लाचार उस समय बड़ी मुश्किल से मैंने अपने दिल को सम्हाला और चुपचाप एक पेड़ की आड़ में खड़े रहकर उन लोगों की कार्रवाई देखने और यह सोचने लगा कि क्या करना चाहिए।

वह समाधि जो औंधी हाँड़ी की तरह थी, बहुत बड़ी तथा मजबूत बनी हुई थी और मुझे उसी समय यह भी मालूम हो गया कि उसके अन्दर जाने के लिए कोई रास्ता भी है, क्योंकि मेरे देखते-देखते, वे सब-के-सब उसी समाधि के अन्दर घुस गये और जब तक मैं रहा बाहर न निकले।

घण्टे-भर तक राह देखकर मैं उस समाधि के पास गया और उसके चारों तरफ़ घूम-घूमकर अच्छी तरह देखने लगा, मगर कोई दरवाज़ा या छेद ऐसा न दिखायी दिया, जिस राह से कोई उसके अन्दर जा सकता और न मैंने उस जगह कोई दरवाज़े का निशान ही पाया। मैं उस समाधि को अच्छी तरह जानता था, उसके बारे में कभी कोई बुरा खयाल किसी के दिल में न हुआ होगा। देहाती लोग वहाँ तरह-तरह की मन्नतें मानते और प्रायः पूजा करने के लिए आया करते थे, परन्तु मुझे आज मालूम हुआ कि वह वास्तव में समाधि नहीं, बल्कि खूनियों का अड्डा है।

मैंने बहुत सर पीटा मगर कुछ काम न निकला, लाचार यह सोचकर घर की तरफ़ लौटा कि पहिले लोगों को इस मामले की ख़बर करूँ और इसके बाद आदमियों को साथ लाकर इस समाधि को खुदवा अपनी माँ और बदमाशों का पता लगाऊँ।

रात बहुत थोड़ी रह गयी थी, जब मैं घर पहुँचा। मैं चाहता था कि अपनी परेशानी का हाल नौकरों से कहूँ, मगर वहाँ तो मामला ही दूसरा था। वह बूढ़ी दाई जिसने मुझे गोद में खिलाया था और अब बहुत ही बूढ़ी और कमजोर हो रही थी, इस समय दरवाज़े पर बैठी नौकरों पर खफा हो रही थी और कह रही थी कि आधी रात के समय तुमने लड़के को अकेले क्यों जाने दिया? तुम लोगों में से कोई आदमी उसके साथ क्यों न गया? इतने ही में मुझे देख नौकरों ने कहा, "लो ननकू बाबू आ गया, खफा क्यों होती हो!"

मैंने पास जाकर कहा, "क्या है जो हल्ला मचा रही हो?"

दाई : है क्या, चुपचाप न जाने कहाँ चले गये, न किसी से कुछ कहा, न सुना! तुम्हारी माँ बेचारी रो-रोकर जान दे रही है! ऐसा जाना किस काम कि एक आदमी भी साथ न ले गये, जा के अपनी माँ का हाल तो देखो।

मैं : माँ कहाँ है!

दाई : घर में और कहाँ है, तुम जाओ तो सही!

दाई की बात सुनकर मैं बड़ी हैरानी में पड़ गया। वहाँ उस चोर ऐयार की जुबानी जो कुछ सुना था, उससे तो साफ़ मालूम होता था कि वह मेरी माँ को गिरफ़्तार करके ले गया है, मगर घर पहुँचकर सुनता हूँ कि माँ यहाँ मौजूद है। ख़ैर, मैंने अपने दिल का हाल किसी से न कहा और चुपचाप मकान के अन्दर उस कमरे में पहुँचा, जिसमें मेरी माँ रहती थी। देखा कि वह चारपाई पर पड़ी रो रही है, उसका सिर फटा हुआ है और उसमें से खून बह रहा है, एक लौंडी हाथ में कपड़ा लिये खून पोंछ रही है। मैंने घबड़ाकर पूछा, "यह क्या हाल है! सिर कैसे फट गया?"

माँ : मैंने जब सुना कि तुम घर में नहीं हो तो तुम्हें ढूँढ़ने के लिए घबराकर नीचे उतरी, अकस्मात सीढ़ी पर गिर पड़ी। तुम कहाँ गये थे?

मैं : हाँ, घर में से एक चोर को कुछ असबाब लेकर बाहर जाते देख मैं उसके पीछे-पीछे चला गया था।

माँ : (कुछ घबड़ाकर) क्या यहाँ से किसी चोर को बाहर जाते देखा था?

मैं : हा, कहा तो कि उसके पीछे-पीछे मैं गया था।

माँ : तुम उसके पीछे-पीछे कहाँ तक गये थे? क्या उसका घर देख आये?

मैं : नहीं, थोड़ी दूर जाने के बाद गलियों में घूम-फिरकर न मालूम वह कहाँ गायब हो गया, मैंने बहुत ढूँढा़ मगर पता न लगा, आख़िर लाचार होकर लौट आया। (लौंडी की तरफ़ देखखर) कुछ मालूम हुआ घर में से क्या चीज़ चोरी गयी?

लौंडी : (ताज्जुब में आकर और चारों तरफ़ देखकर) यहाँ से तो कोई चीज़ चोरी नहीं गयी?

यह जवाब सुनकर मैं चुपचाप नीचे उतर आया और घर में चारों-तरफ़ घूम-घूमकर देखने लगा। जिस घर में खजाना रहता था, उसमें भी ताला बन्द पाया और कई कीमती चीज़ें जो मामूली तौर पर भण्डेरियों और खुली आलमारियों में पड़ी रहा करती थीं ज्यों-की-त्यों मौजूद पायीं, लाचार मैं अपनी चारपाई पर लेट रहा और तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उस समय रात बीत चुकी थी और सुबह की सुफेदी घर में घुसकर कह रही थी कि अब थोड़ी ही देर में सूर्य भगवान निकला चाहते हैं।

इस बात को कई महीने बीत गये। मैंने अपने दिल का हाल और वे बातें जो देखी सुनी थीं किसी से न कहीं, हाँ, छिपे-छिपे तहकीकात करता रहा कि असल मामला क्या है। चाल-चलन, बातचीत और मुहब्बत की तरफ़ ध्यान देने से मुझे निश्चय हो गया कि मेरी माँ जो घर में है, वह असल में मेरी माँ नहीं है बल्कि कोई ऐयारा है। मैं छिपे-छिपे अपनी माँ की खोज करने लगा और इस विषय पर ध्यान देने लगा कि वह ऐयारा घर में मेरी माँ बनकर क्यों रहती है और उसकी नीयत क्या है? इसके अलावे मैं अपनी जान की हिफ़ाज़त भी अच्छी तरह करने लगा। इस बीच में रामभोली ने मुझसे मुहब्बत ज़्यादे बढ़ा दी। यद्यपि उसकी चाल-चलन में भी मुझे कुछ फर्क मालूम होता था, परन्तु मुहब्बत ने मुझे अन्धा कर रक्खा था और मैं पूरा उसका आशिक बन गया था।

एक पढ़ी-लिखी बुद्धिमान नौजवान औरत ने जिम्मा लिया हुआ था कि यद्यपि रामभोली गूँगी-बहरी है, परन्तु वह उसे इशारे ही में समझा-बुझाकर पढ़ना-लिखना सिखा देगी और वास्तव में उस औरत ने बड़ी चालाकी से रामभोली को पढ़ना-लिखना सिखा दिया। उसी औरत के हाथ रामभोली की लिखी चीठी मेरे पास आती थी और मैं उसी के हाथ जवाब भेजा करता था। ऊपर कही वारदात के कुछ दिन बाद जो चीठियाँ रामभोली की मेरे पास आने लगीं उनके अक्षरों का ढंग और गढ़न कुछ निराले ही तौर का था परन्तु मैंने उस समय उस पर विशेष ध्यान न दिया।

अब ऊपर वाले मामले को छः महीने से ज़्यादे गुजर गये। इस बीच में मेरा बाप कई दफे घर में आया और थोड़े-थोड़े दिन में रहकर चला गया। घर की बातों में सिर्फ इतना फर्क पड़ा कि मेरा बाप मेरी माँ से मुहब्बत ज़्यादे करने लगा, मगर मेरी नकली माँ तरह-तरह की बेब फरमाइशों से उसे तंग करने लगी।

एक दिन जब मेरा बाप घर ही में था, आधी रात के समय मेरे बाप और मेरी माँ में कुछ खटपट होने लगी। उस समय मैं जागता था। मेरे जी में आया कि किसी तरह इस झगड़े का सबब मालूम करना चाहिए। आख़िर ऐसा ही किया, मैं चुपके से उठा और धीरे-धीरे उस कमरे के पास गया, जिसके अन्दर वे दोनों जली-कटी बातें कर रहे थे। उस कमरे में तीन दरवाज़े थे, जिनमें से एक खुला हुआ, मगर उसके आगे पर्दा गिरा हुआ था और दो दरवाज़े बन्द थे। मैं एक बन्द दरवाज़े के आगे जाकर (जो खुले दरवाज़े के ठीक दूसरी तरफ़ था) लेट रहा और न दोनों की बातें सुनने लगा। जो कुछ मैंने सुना उसे ठीक-ठीक बयान करता हूँ–

माँ : जब तुम्हें मेरा विश्वास नहीं तो किस मुँह से कहते हो कि मैंने तेरे लिए यह किया और वह किया?

बाप : बेशक, मैंने तेरे लिए अपनी जान खतरे में डाली और जनम भर के लिए अपने नाम पर धब्बा लगाया और अब तू चाहती है कि मैं न मरने लायक रहूँ और न जीते रहकर किसी को मुँह दिखा सकूँ।

माँ : अपने मुँह से तुम जो चाहो कहो, मगर मैं ऐसा नहीं चाहती जो तुम कहते हो। क्या मैं वह किताब खा जाऊँगी या किसी दूसरे को दे दूँगी? जाओ, अपनी किताब ले जाओ और अपनी चहेती बेगम को नज़र कर दो!

बाप : मेरी वह ज़ोरू, जिसे तुम ताना देकर बेगम कहती हो, तुम्हारे ऐसी ज़िद्दी नहीं। उसने मुझे राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ चोरी करने के लिए नहीं कहा था और न ही वह तिलिस्म का तमाशा ही देखा चाहती है।

माँ : उसको इतना दिमाग ही नहीं, कंगाल की लड़की का हौसला ही कितना!

बाप : हाँ, बेशक उसका इतना बड़ा हौसला नहीं कि मेरी जान की ग्राहक बन बैठे।

इसके बाद थोड़ी-सी बातें बहुत ही धीरे-धीरे हुईं, जिन्हें मैं अच्छी तरह सुन न सका। अन्त में मेरा बाप इतना कहकर चुप हो रहा-"खार, फिर जो कुछ भाग्य में बदा है, वह भोगूँगा। लो यह खूनी किताब तुम्हारे हवाले करता हूँ, पाँच रोज में लौट के आऊँगा तो तिलिस्म का तमाशा दिखा दूँगा और फिर यह किताब राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ किसी ढंग से पहुँचा दूँगा।"

मैं यह सोचकर कि अब मेरा बाप बाहर निकलना ही चाहता है, उठ खड़ा हुआ और चुपचाप नीचे उतर अपने कमरे में चला आया। मगर मेरे दिल की अजब हालत थी, मैं खूब जानता था कि वह मेरी माँ नहीं है और अब तो मालूम हो गया कि उस कम्बख्त के फेरे में पड़कर मेरा बाप अपने ऊपर कोई आफ़त लाया चाहता है, इसलिए यह सोचने लगा कि किसी तरह अपने बाप को इसके फरेब से बचाना और असली माँ का पता लगाना चाहिए।

दो घण्टे भीत गये मगर मेरा बाप नीचे न उतरा। मेरी चिन्ता और भी बढ़ गयी। मैं सोचने लगा कि शायद फिर कुछ खटपट होने लगी। आख़िर मुझसे न रहा गया, मैं अपने कमरे से बाहर निकल के बाप को आवाज़ दी। आवाज़ सुनते ही वे मेरे पास चले आये और धीरे से बोले, "क्यों बेटा क्या हाल है?"

मैं : आपसे एक बात कहा चाहता हूँ, मगर बहुत छिपाकर।

बाप : कहो, यहाँ तो कोई ऐसा सुननेवाला नहीं है, ऐसा ही डर है तो ऊपर चले चलो।

मैं : (धीरे से) नहीं, मैं उस दुष्टा के सामने कुछ भी कहा नहीं चाहता, जिसे आप मेरी माँ समझते हैं।

बाप : (ताज्जुब में आकर) क्या वह तुम्हारी माँ नहीं है!

मैं : नहीं!

बाप : आज क्या है, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो? क्या उसने तुम्हें कुछ तकलीफ दी है?

मैं : आप इस जगह मुझसे कुछ न पूछिए, निराले में जब मेरी बातें सुनियेगा तो असल भेद मालूम हो जायगा!

इतना सुनते ही मेरे बाप ने घबड़ाकर मेरा हाथ पकड़ लिया और मकान के बाहर एक खास बैठक में ले जाकर दरवाज़ा बन्द करने के बाद पूछा, "कहो क्या बात है?" मैंने वे कुल बातें जो देखी सुनी थीं और जो ऊपर बयान कर चुका हूँ, कह सुनायी जिनके सुनते ही मेरे बाप की अजब हालत हो गयी, चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की निशानी मालूम होने लगी, थोड़ी देर तक चुप रहने और कुछ ग़ौर करने के बाद बोले, "बेशक धोखा हो गया! अब जो ग़ौर करता हूँ तो इस कम्बख्त की बातचीत और चाल-चलन में बेशक बहुत कुछ फर्क पाता हूँ। मगर अफसोस तुमने इतने दिनों तक न मालूम क्या समझकर यह बात छिपा रक्खी और अपनी माँ की तरफ़ से भी गाफिर रहे! न जाने वह बेचारी जीती भी है, या इस दुनिया से ही उठ गयी!'

मैं : ज़रा-सा ग़ौर करने पर आप खुद समझ सकते हैं कि इस बात को इतने दिनों तक मैं क्यों छिपाये रहा। माँ की तरफ़ से भी गाफिल न रहा, जहाँ तक हो सका पता लगाने के लिए परेशान हुआ मगर अभी तक कोई अच्छा नतीजा न निकला। तथापि मुझे विश्वास है कि वह इस दुनिया में जीती-जागती मौजूद है।

बाप : तुम्हारा खयाल ठीक है और इसका सबूत इससे बढ़कर और क्या होगा कि एक ऐयारा उसकी सूरत बनाकर अपना काम निकाला चाहती है और इस घर में अभी तक मौजूद है, जब तक इसका काम न निकलेगा बेशक, उसकी जान बची रहेगी। मगर अफसोस, मैंने बड़ा धोखा खाया और अपने को किसी लायक न रक्खा। अच्छा यह कहो कि इस समय तुम्हें क्या सूझी जो यह सब कहने को तैयार हो गये?

मैं : खुटका तो बहुत दिनों से लगा हुआ था, मगर इस समय कुछ तकरार की आहट पाकर मैं ऊपर चढ़ गया और थोड़ी देर तक छिपकर आप लोगों की बातें सुनता रहा, ज़्यादे तो समझ में न आया, मगर इतना मालूम हो गया कि आप उसकी खातिर राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ से कोई किताब चुरा लाये हैं और अब कोई ऐसा काम किया चाहते हैं, जो आपके लिए बहुत बुरा नतीजा पैदा करेगा, अस्तु, ऐसे समय में चुप रहना मैंने उचित न जाना। अब आप कृपा करके यह कहिए कि वह किसाब जो आप चुरा लाये हैं, कैसी है?

बाप : इस समय खुलासा हाल कहने का मौका तो नहीं है, परन्तु संक्षेप में कुछ हाल कह तुम्हें होशियार कर देना भी बहुत ज़रूरी है, क्योंकि अब मेरी जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं, हाँ, अगर यह औरत तुम्हारी माँ होती तो कोई हर्ज़ न था। वह एक प्राचीन समय की किसी के खून से लिखी हुई किसाब है, जो राजा बीरेन्द्रसिंह को विक्रमी तिलिस्म से मिली थी। उस तिलिस्म के स्याह पत्थर के दालान में एक सिंहासन के ऊपर छोटा-सा पत्थर का सन्दूक था, जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था।

मैं : हाँ, यह किस्सा आप पहिले भी मुझसे कह चुके हैं, बल्कि आपने यह भी कहा था कि सिंहासन के ऊपर जो पत्थर था और जिसके छून से आदमी बेहोश हो जाता था। वास्तव में वह एक सन्दूक था और उसके अन्दर से कोई नायाब चीज़ राजा बीरेन्द्रसिंह को मिली थी।

बाप : ठीक है, ठीक है, इस समय मेरी अक्ल ठिकाने नहीं, इसी से बहुत-सी बातें भूल रहा हूँ, हाँ, तो उसी पत्थर के टुकड़े में से जिसे छोटा सन्दूक कहना चाहिए, यह किसाब और हीरे का एक सरपेंच निकला था।

मैं : उस किताब में क्या बात लिखी है?

बाप : उस किताब में उस तिलिस्म के भेद लिखे हुए हैं, जो राजा बीरेन्द्रसिंह के हाथ से न टूट सका और जिसके विषय में मशहूर है कि राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़के उस तिलिस्म को तोड़ेंगे।

मैं : यदि उस पुस्तक में उस भारी तिलिस्म के भेद लिखे हुए थे तो राजा बीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म को क्यों छोड़ दिया?

बाप : केवल उस किताब की सहायता से यह तिलिस्म टूट नहीं सकता, हाँ, जिसके पास वह पुस्तक हो उसे तिलिस्म का कुछ हाल ज़रूर मालूम हो सकता है और यदि वह चाहे तो तिलिस्म में जाकर वहाँ की सैर भी कर सकता है। इस कम्बख्त औरत ने यही कहा कि मुझे तिलिस्म की सैर करा दो। उसी ज़िद्द ने मुझसे यह अपराध कराया, लाचार मैंने वह किसाब चुरायी। मैंने सोच लिया था कि इसकी इच्छा पूरी करने के बाद मैं वह पुस्तक जहाँ-की-तहाँ रख आऊँगा, मगर जब यह औरत कोई दूसरी ही है तो बेशक मुझे धोखा दिया गया तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह औरत उस तिलिस्म से कोई सम्बन्ध रखती है और यदि ऐसा है तो अब उस पुस्तक का मिलना मुश्किल है। अफसोस, जब मैं किताब चुराकर राजा बीरेन्द्रसिंह के शीशमहल से बाहर निकल रहा था तो उनके ऐयार ने मुझे देख लिया था। मैं मुश्किल से निकल भागा और यह सोचे हुए था कि यदि मैं पुस्तक फिर वहीं रख आऊँगा तो फिर मेरी खोज न होगी, मगर हाय, यहाँ तो कोई दूसरा ही रंग निकला।

मैं : आपने उस पुस्तक को पढ़ा भी था?

बाप : (आँखों में आँसू भरकर) उसका पहला पृष्ठ देख सका था, जिसमें इतना ही लिखा था कि जिसके कब्जे में यह पुस्तक रहेगी उसे तिलिस्मी आदमियों के हाथ से दुःख नहीं पहुँच सकता। जो हो, परन्तु अब इन सब बातों का समय नहीं है, यदि हो सके तो उस औरत के हाथ से किताब ले लेना चाहिए, उठो और मेरे साथ चलो।

इतना कहकर मेरा बाप उठा और मकान के अन्दर चला, मैं भी उसके पीछे-पीछे था। अन्दर से मकान का दरवाज़ा बन्द कर लिया, मगर जब मेरा बाप ऊपर के कमरे में जाने लगा, जहाँ मेरी माँ रहा करती थी तो मुझे सीढ़ी के नीचे खड़ा कर गया और कहता गया कि जब मैं पुकारूँ तो तुरत चले आना।

घण्टे-भर तक में खड़ा रहा। इसके बाद छत पर धमधमाहट मालूम होने लगी, मानों कई आदमी आपस में लड़ रहे हैं। अब मुझसे रहा न गया, हाथ में खंजर लेकर मैं ऊपर चढ़ गया और बेधड़क उस कमरे में घुस गया, जिसमें मेरा बाप था। इस समय धमधमाहट की आवाज़ बन्द हो गयी थी और कमरे के अन्दर सन्नाटा था। भीतर की अवस्था देखकर मैं घबड़ा गया। वह औरत जो मेरी माँ बनी हुई थी, वहाँ न थी। मेरा बाप ज़मीन पर पड़ा हुआ था, और उसके बदन से खून बह रहा था। मैं घबड़ाकर उसके पास गया और देखा कि वह बेहोश पड़ा है और उसके सर और बायें हाथ में तलवार की गहरी चोट लगी हुई है, जिसमें से अभी तक खून निकल रहा है। मैंने धोती फाड़ी और पानी से जख्म धोकर बाँधने के बाद बाप को होश में लाने की फिक्र करने लगा। थोड़ी देर बात वह होश में आया और उठ बैठा।

मैं : मुझे ताज्जुब है कि एक औरत के हाथ से आप चोट खा गये!

बाप : केवल औरत ही नहीं थी, यहाँ आने पर मैंने कई आदमी देखे, जिनके सबब से यहाँ तक नौबत आ पहुँची। अफसोस, वह किसाब हाथ न लगी और मेरी जिंदगी मुफ्त में बर्बाद हुई!

मैं : ताज्जुब है कि इस मकान में लोग किस राह से आकर अपना काम कर जाते हैं, पहिले भी कई दफे यह बात देखने में आयी!

बाप : ख़ैर, जो हुआ सो हुआ, अब मैं जाता हूँ गुमनाम रहकर अपने किये का फल भोगूँगा, यदि वह किताब हाथ लग गयी और अपने माथे से बदनामी का टीका मिटा सका तो फिर तुमसे मिलूँगा, नहीं तो हरि-इच्छा। तुम इस मकान को मत छोड़ना और जो कुछ देख-सुन चुके हो, उसका पता लगाना। तुम्हारे घर में जो कुछ दौलत है, उसे हिफ़ाज़त से रखना और होशियारी से रहकर गुजारा करना तथा बन पड़े तो अपनी माँ का भी पता लगाना।

बाप की बातें सुनकर मेरी अजब हालत हो गयी, दिल घड़कने लगा, गला भर आया, आँसुओं ने आँखों के आगे पर्दा डाल दिया। मैं बहुत कुछ कहा चाहता था, मगर कह न सका। मेरे बाप ने देखते-देखते मकान के बाहर निकल कर न मालूम किधर का रास्ता लिया। उस समय मेरे हिसाब से दुनिया उजड़ गयी थी और मैं बिना माँ-बाप के मुर्दे से भी बदतर हो रहा था। मेरे घर में जो उपद्रव हुआ था, उसका कुछ हाल नौकरों और लौंडियों को मालूम हो चुका था, मगर मेरे समझाने से उन लोगों ने छिपा लिया और बड़ी कठिनाई से मैं उस मकान में रहने और बीती बातों का पता लगाने लगा।

प्रतिदिन आधी रात के समय मैं ऐयारी के सामान से दुरुस्त होकर उस समाधि के पास जाया करता, जहाँ पहिले दिन उस आदमी के पीछे-पीछे गया था, जो मेरी माँ को चुराकर ले गया था। अब यहाँ से मैं अपने किस्से को बहुत ही संक्षेप में कहा चाहता हूँ, क्योंकि समय बहुत कम है।

एक दिन आधी रात के समय उस समाधी के पास एक इमली के पेड़ पर चढ़कर मैं बैठा हुआ था और अपनी बदकिस्मती पर रो रहा था कि इतने में उस समाधि के अन्दर में से एक आदमी निकला और पूरब की तरफ़ रवाना हुआ। मैं झटपट पेड़ से उतरा और पैर दबाता हुआ, उसके पीछे-पीछे जाने लगा, इसलिए उसे मेरे आने की आहट कुछ भी मालूम न हुई। उस आदमी के हाथ में एक कपड़े का लिफाफा था। उस लिफाफे की सूरत ठीक उस खलीते की तरह थी, जैसा प्रायः राजे और बड़े जमींदार लोग राजों-महाराजों के यहाँ चीठी भेजते समय लिफाफे की जगह काम में लाते हैं। यकायक मेरे जी में आया कि किसी तरह यह लिफाफा इसके हाथ से ले लेना चाहिए, इससे मेरा मतलब कुछ-न-कुछ ज़रूर निकलेगा।

वह लिफाफा अँधेरी रात के सबब मुझे दिखायी न देता, मगर राह चलते-चलते वह एक ऐसी दूकान के पास से होकर निकला, जो बाँस की जाफरीदार टट्टी से बन्द थी, मगर भीतर जलते हुए चिराग की रोशनी बाहर सड़क पर आने-जाने वालों के ऊपर बखूबी पड़ती थी। उसी रोशनी ने मुझे दिखा दिया कि इसके हाथ में एक लिफाफा या खलीता मौजूद है। मैंने उसके हाथ से किसी तरह लिफाफा ले लेने के बारे में अपनी राय पक्की कर ली और कदम बढ़ाकर उसके पास जा पहुँचा। मैंने उसे धोखे में इस ज़ोर से धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और मुँह के बल ज़मीन पर गिर पड़ा। लिफाफा उसके हाथ से छूटकर दूर जा रहा, जिसे मैंने फुर्ती से उठा लिया और वहाँ से भागा। जहाँ तक हो सका मैंने भागने में तेजी की। मुझे मालूम हुआ कि वह आदमी भी उठकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़ा पर मुझे पा न सका। गलियों में घूमता और दौड़ता हुआ अपने घर पहुँचा और दरवाज़े पर खड़ा होकर दम लेने लगा। उस समय मेरे दरवाज़े पर रामधनीसिंह नामी मेरा एक सिपाही पहरा दे रहा था। यह सिपाही नाटे कद का बहुत मजबूत और चालाक था, थोड़े ही दिनों से चौकीदारी के काम पर मेरे बाप ने इसे नौकर रक्खा था।

मुझे उम्मीद थी कि रामधनीसिंह दौड़ते हुए आने का कारण मुझसे पूछेगा, मगर उसने कुछ भी न पूछा। दरवाज़ा खुलवाकर मैं मकान के अन्दर गया और दरवाज़ा बन्द करके अपने कमरे में पहुँचा। शमादान अभी तक जल रहा था। उस लिफाफे को खोलने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा था, आख़िर शमादान के पास जाकर लिफाफा खोला। उस लिफाफे में एक चीठी और लोहे की एक ताली थी। वह ताली विचित्र ढंग की थी, उसमें छोटे-छोटे कई छेद और पत्तियाँ बनी हुई थीं, वह ताली जेब में रख लेने के बाद मैं चीठी पढ़ने लगा, यह लिखा हुआ था–

"श्री १॰८ मनोरमाजी की सेवा में,

महीने की मेहनत आज सफल हुई। जिस काम पर आपने मुझे तैनात किया था वह ईश्वर की कृपा से पूरा हुआ। रिक्तगन्थ मेरे हाथ लगा। आपने लिखा था–'कि हारीत* सप्ताह में मैं रोहतासगढ़ के तिलिस्मी तहख़ाने में रहूँगी, इस बीत में यदि रिक्तगन्थ (खून से लिखी हुई किताब) मिल जाय तो उसी तहख़ाने के बलि मण्डप में मुझसे मिलकर मुझे देना'। आज्ञानुसार रोहतासगढ़ के तहख़ाने में गया, परन्तु आप न मिलीं। रिक्तगन्थ लेकर लौटने की हिम्मत न पड़ी, क्योंकि तेजसिंह की गुप्त अमलदारी तहख़ाने में हो चुकी थी और उनके साथी ऐयार लोग चारों तरफ़ ऊधम मचा रहे थे। (* ऐयारी भाषा में 'हारीत' देवीपूजा को कहते हैं।)

मैंने यह सोचकर कि यहाँ से निकलते समय शायद किसी ऐयार के पाले पड़ जाऊँ और यह रिक्तगन्थ छिन जाय तो मुश्किल होगी, रिक्तगन्थ को चौबीस नम्बर की कोठरी में, जिसकी ताली आपने मुझे दे रक्खी थी रख दिया और खाली हाथ बाहर निकल आया। ईश्वर की कृपा से किसी ऐयार से मुलाकात न हुई, परन्तु दस्त की बीमारी ने मुझे बेकार कर दिया, मैं आपके पास आने लायक न रहा, लाचार अपने दोस्त के हाथ जिससे अचानक मुलाकात हो गयी यह ताली आपके पास भेझता हूँ। मुझे उम्मीद है कि वह आदमी चौबीस नम्बर की कोठरी को कदापि नहीं खोल सकता, जिसके पास वह ताली न हो, अस्तु, अब आपको जब समय मिले रिक्तगन्थ मँगवा लीजियेगा और बाकी हाल पत्र ले जाने वाले के मुँह से सुनियेगा। मुझमें अब कुछ लिखने की ताकत नहीं, अब साधोराम आपके चरणों को नहीं देख सकता। यदि आराम हुआ तो पटने से हुआ सेवा में उपस्थित होऊँगा, यदि ऐसा न हुआ तो समझ लीजिएगा साधोराम नहीं रहा। इस पत्र को पाते ही नानक की माँ को निपटा दीजिएगा।

                  आपका—साधोराम।"

इस चीठी के पाते ही मेरे दिल की मुरझायी कली खिल गयी। निश्चय हो गया कि मेरी माँ अभी जीती है, यदि वह चीठी ठिकाने पहुँच जाती तो उस बेचारी का बचना मुश्किल था। अब मैं यह सोचने लगा कि जिसके हाथ से यह चीठी मैंने ली है, वह साधोराम था या उसका कोई मित्र! परन्तु मेरी विचार शक्ति ने तुरन्त ही उत्तर दिया कि नहीं वह साधोराम नहीं था, यदि वह होता तो अपने लिखे अनुसार उस सड़क से आता, जो पटने की तरफ़ से आती है। साधोराम के मरने का दूसरा सबूत यह भी है कि यह चीठी और ताली काले खलीते (कपड़े के लिफाफे) के अन्दर है।

चीठी के ऊपर मनोरमा का नाम लिखा था, इससे निश्चय हो गया कि यह बिल्कुल बखेड़ा मनोरमा का ही मचाया हुआ है। मैं मनोरमा को अच्छी तरह जानता था। त्रिलोचनेश्वर महादेव के पास उसका आलीशान मकान देखने यही मालूम होता था कि वह किसी राजा की लड़की होगी ऐसा नहीं था, हाँ, उसका खर्च हद से ज़्यादे बढ़ा हुआ था और आदमी का ठिकाना कुछ मालूम नहीं होता था। दूसरी बात यह कि वह प्रचलित रीति पर ध्यान न देकर बेपर्दे खुले आम पालकी ताम-झाम और कभी-कभी घोड़े पर सावर होकर बड़े ठाठ से घूमा करती थी और इसीलिए काशी के छोटे-बड़े सभों मनुष्य उसे पहिचानते थे। उस चीठी के पढ़ने से मुझे विश्वास हो गया कि मनोरमा ज़रूर तिलिस्म से कुछ सम्बन्ध रखती है और मेरी माँ उसी के कब्जे में है।

इस सोच में कि किस तरह अपनी माँ को छुड़ाना और रिक्तगन्थ पर कब्ज़ा करना चाहिए, कई दिन गुजर गये और इस बीच में उस ताली को मैं अपने मकान के बाहर किसी दूसरे ठिकाने हिफ़ाज़त से रख आया।

यहाँ तक अपना हाल कहकर नानक चुप हो रहा और झुककर बाहर की तरफ़ देखने लगा।

तेज : हाँ हाँ, कहो फिर क्या हुआ! तुम्हारा हाल बड़ा ही दिलचस्प है, बिल्कुल बातें हमारे ही सम्बन्ध की हैं।

नानक : ठीक, परन्तु अफसोस, इस समय मैं जो कुछ आपसे कह रहा हूँ उससे मेरे बाप का कसूर और...

तेज : मैं समझ गया जो तुम कहा चाहते हो, मगर मैं सच्चे दिल से कहता हूँ कि यद्यपि तुम्हारे बाप ने भारी जुर्म किया है और उसके विषय में हमारे तरफ़ से विज्ञापन दिया गया है कि जो कोई रिक्तगन्थ के चोर को गिरफ़्तार करेगा, उसे मुँह माँगा इनाम दिया जायगा, तथापि तुम्हारे इस किस्से को सुनकर, जिसे तुम सचाई के साथ कह रहे हो, मैं वादा करता हूँ कि उसका कसूर माफ कर दिया जायगा और तुम जो कुछ नेकी हमारे साथ किया चाहते हो, या करोगे, उसके लिए धन्यवाद के साथ पूरा-पूरा इनाम दिया जायगा। मैं समझता हूँ कि तुम्हें अपना किस्सा अभी बहुत कुछ कहना है और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जो कुछ तुम कहोगे मेरे मतलब की बात होगी, परन्तु इस बात का जवाब मैं सबसे पहिले सुना चाहता हूँ कि वह रिक्तगन्थ तुम्हारे कब्जे में है या नहीं? अथवा हम लोग उसके पाने की आशा कर सकते हैं या नहीं?

इसके पहिले कि तेजसिंह की आख़िरी बात का कुछ जवाब नानक दे, बाहर से यह आवाज़ आयी–"यद्यपि रिक्तगन्थ नानक के कब्जे में अब नहीं है, तथापि तुम उसे उस अवस्था में पा सकते हो, जब अपने को उसके पाने योग्य साबित करो!" इसके बाद खिलखिलाकर हँसने की आवाज़ आयी।

इस आवाज़ ने दोनों ही को परेशान कर दिया, दोनों ही को दुश्मन का शक हुआ। नानक ने सोचा कि शायद मायारानी का कोई ऐयार आ गया और उसने छिपकर मेरा किस्सा सुन लिया, अब यहाँ से निकलना और जान बचाकर भागना बहुत मुश्किल है, तेजसिंह को भी यह निश्चय हो गया कि नानक द्वारा जो कुछ भलाई की आशा हुई थी, अब निराशा के साथ बदल गयी।

दोनों ऐयार उसे ढूँढ़ने के लिए उठे, जिसकी आवाज़ ने यकायक उन दोनों को चौंका और होशियार कर दिया था। दो कदम भी आगे न बढ़े थे कि फिर आवाज़ आयी, "क्यों कष्ट करते हो, मैं स्वयं तुम्हारे पास आता हूँ।" साथ ही इसके एक आदमी इन दोनों की तरफ़ आता हुआ दिखायी पड़ा। जब यह पास पहुँचा तो बोला, "ए तेजसिंह और नानक, तुम दोनों मुझे अच्छी तरह देख और पहिचान लो, मैं तुमसे कई दफे मिलूँगा, देखो भूलना मत।"

तेजसिंह और नानक ने उस आदमी को अच्छी तरह देखा। उसका कद नाटा और रंग साँवला था। घनी और स्याह दाढ़ी और मूँछों ने उसका आधा चेहरा छिपा रक्खा था। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी मगर बहुत ही सुर्ख और चमकीली थीं, हाथ-पैर से मजबूत और फुर्तीला जान पड़ता था। माथे पर सफेद चार अंगुल जगह घेरे हुए रामानन्दी तिलक था, जिस पर देखने वाले की निगाह सबसे पहिले पड़ सकती थी, परन्तु ऐसी अवस्था होने पर भी उसका चेहरा नमकीन और खूबसूरत था तथा देखने वाले का दिल उसकी तरफ़ खिंचा जाना कोई ताज्जुब न था। उसकी पोशाक बेशकीमती और चुस्त मगर कुछ भूँडी थी। स्याह पायजामा, सुर्ख अंगा, जिसमें बड़े-बड़े कई जेब किसी चीज़ से भरे हुए थे, और सब्ज़ रंग के मुँड़ासे की तरफ़ ध्यान देने से हँसी आती थी, एक खंजर बगल में और दूसरा हाथ में लिये हुआ था।

तेजसिंह ने बड़ा ग़ौर से उसे देखा और पूछा, "क्या तुम अपना नाम बता सकते हो?" जिसके जवाब में उसने कहा, "नहीं, मगर चण्डूल के नाम से आप मुझे बुला सकते हैं।"

तेज : जहाँ तक मैं समझता हूँ, आप इस नाम के योग्य नहीं हैं।

चण्डूल : चाहे न हों।

तेज : ख़ैर, यह भी कह सकते हो कि तुम्हारा आना यहाँ क्योंकर हुआ?

चण्डूलः इसलिए कि तुम दोनों को होशियार कर दूँ कि कल शम के वक्त आठ आदमियों के खून से इस बाग की क्यारियाँ रँगी जाँयगी जो फँस कर यहाँ आ चुके हैं।

तेज: क्या उनके नाम भी बता सकते हो?

चण्डूल : हाँ, सुनो-राजा बीरेन्द्रसिंह एक, रानी चन्द्रकान्ता दो, इन्द्रजीतसिंह तीन, आनन्दसिंह चार, किशोरी पाँच, कामिनी छः, तेजसिंह सात, नानक आठ।

तेजसिंह : (घबड़ाकर) यह तो मैं जानता हूँ कि दोनों कुमार और उनके ऐयार मायारानी के फन्दे में फँसकर यहाँ आ चुके हैं, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता तो...

चण्डूल : हाँ हाँ, वे दोनों भी फँसकर यहाँ आ चुके हैं, पूछो नानक से!

नानक : (तेजसिंह की तरफ़ देखकर) हाँ, ठीक है, अपना किस्सा कहने के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता का हाल आपसे कहने ही वाला था, मगर मुझे यह बात अच्छी तरह मालूम नहीं है कि वे लोग क्योंकर मायारानी के फन्दे में फँसे!

चण्डूल : (नानक से) अब विशेष बातों का मौका नहीं है, तेजसिंह से जो कुछ बातें करते बनेगा कर लेगें, मैं इस समय तुम्हारे लिए आया हूँ, आओ और मेरे साथ चलो।

नानक : मैं तुम पर विश्वास करके तुम्हारे साथ क्योंकर चल सकता हूँ?

चण्डूल : (कड़ी निगाह से नानक की तरफ़ देखके और हुकूमत के साथ) लुच्चा कहीं का! अच्छा सुन, एक बात मैं तेरे कान में कहा चाहता हूँ।

इतना कहकर चण्डूल चार-पाँच कदम पीछे हट गया। उसकी डपट और बात ने नानक के दिल पर कुछ ऐसा असर किया कि वह अपने को उसके पास जाने से रोक न सका। नानक चण्डूल के पास गया मगर अपने को हर तरह से सम्हाले और अपना दाहिना हाथ खंजर के कब्जे पर रक्खे हुए था। चण्डूल ने झुककर नानक के कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही नानक दो कदम पीछे हट गया और बड़े ग़ौर से उसकी सूरत देखने लगा। थोड़ी देर तक यही अवस्था रही, इसके बाद नानक ने तेजसिंह की सरफ देखा और कहा, "माफ कीजिएगा, लाचार होकर मुझे इनके साथ जाना ही पड़ा, अब मैं बिल्कुल इनके कब्जे में हूँ यहाँ तक कि मेरी जान भी इनके हाथ में है।" इसके बाद नानक ने कुछ न कहा। वह चण्डूल के साथ चला गया। और पेड़ों की आड़ में घूम-फिरकर देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।

अब तेजसिंह फिर अकेले पड़ गये। तरह-तरह के ख्यालों ने चारों तरफ़ से आकर उन्हें घेर लिया। नानक की जुबानी जो कुछ उन्होंने सुना था, उससे बहुत-सी भेद की बातें मालूम हुई थीं और अभी बहुत कुछ मालूम होने की आशा थी, परन्तु नानक अपना किस्सा पूरा कहने भी न पाया था कि इस चण्डूल ने आकर दूसरा ही रंग मचा दिया, जिससे तरद्दुद और घबराहट सौगुनी ज़्यादे बढ़ गयी। बिछावन पर पड़े-पड़े वे तरह-तरह की बातें सोचने लगे।

'नानक की बातों से विश्वास होता है कि उसने अपना हाल जो कुछ कहा, सही-सही कहा, मगर उसके किस्से में कोई ऐसा पात्र नहीं आया, जिसके बारे में चण्डूल होने का अनुमान किया जाय। फिर यह चण्डूल कौन है, जिसकी थोड़ी-सी बात से जो भी उसने झुककर नानक के कान में कही, नानक घबड़ा गया और उसके साथ जाने पर मजबूर हो गया! हाय यह कैसी भयानक ख़बर सुनने में आयी कि शीघ्र ही राजा बीरेन्द्रसिंह, रानी चन्द्रकान्ता तथा दोनों कुमार और ऐयार लोग इस बाग में मारे जाँयगे!

....ओफ न मालूम अब ईश्वर क्या किया चाहता है! मगर हिम्मत न हारनी चाहिए, आदमी की हिम्मत और बुद्धि की जाँच ऐसी ही अवस्था में होती है ऐयारी का बटुआ और खंजर अभी मेरे पास मौजूद है, कोई-न-कोई उद्योग करना चाहिए, और वह भी जहाँ तक हो सके शीघ्रता के साथ।'

इन्हीं सब विचारों और गम्भीर चिन्ताओं में तेजसिंह डूब रहे थे और सोच रहे थे कि अब क्या करना उचित है कि इतने ही में सामने से आती हुई मायारानी दिखायी पड़ी। इस समय वह असली बिहारीसिंह (जिसकी सूरत तेजसिंह ने बदल दी थी और अभी तक खुद जिसकी सूरत में थे) और हरनामसिंह तथा और भी कई ऐयारों और लौंडियों से घिरी हुई थी। इस समय सवेरा अच्छी तरह हो चुका था और सूर्य की लालिमा ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की डालियों पर फैल चुकी थी।

मायारानी तेजसिंह के पास आयी और असली बिहारीसिंह ने आगे बढ़कर तेजसिंह से कहा, "धर्मावतार बिहारीसिंहजी, मिजाज दुरुस्त है या अभी तक आप पागल ही हैं?"

तेज : अब मुझे बिहारीसिंह कहकर पुकारने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि आप जान ही गये हैं कि यह पागल असल में राजा बीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार है और अब आपको यह जानकर हद्द दर्जे की खुशी होगी कि यह पागल बिहारीसिंह वास्तव में ऐयारों के गुरुघण्टाल तेजसिंह हैं, जिनकी बढ़ी हुई हिम्मतों का मुकाबला करने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है और जो इस क़ैद की अवस्था में भी अपनी हिम्मत और बहादुरी का दावा करके कुछ कर गुजरने की नीयत रखता है।

बिहारी : ठीक है, मगर अब आप ऐयारों के गुरुघण्टाल की पदवी नहीं रख सकते, क्योंकि आपकी अनमोल ऐयारी यहाँ मिट्टी में मिल गयी और अब शीघ्र ही हथकड़ी-बेड़ी भी आपके नज़र की जायगी।

तेज : अगर तुम मेरी ऐयारी चौपट कर चुके थे तो ऐयारी का बटुआ और खंजर भी लेलिये होते! गुरुघण्टाल ही का काम था कि पागल होने पर भी ऐयारी का बटुआ और खंजर किसी के हाथ में न जाने दिया। बाकी रही बेड़ी सो मेरा चरण कोई छू नहीं सकता, जब तक हाथ में खंजर मौजूद है! (हाथ में खंजर लेकर और दिखाकर) वह कौन-सा हाथ है जो हथकड़ी लेकर इसके सामने आने की हिम्मत रखता है।

बिहारी : मालूम होता है कि इस समय तुम्हारी आँखें केवल मुझी को देख रही हैं, उन लोगों को नहीं जो मेरे साथ हैं अतएव सिद्ध हो गया कि तुम पागल होने के साथ-साथ अन्धे भी हो गये, नहीं तो..

बिहारीसिंह की बात पूरी न हुई थी कि बगल की एक कोठरी का दरवाज़ा खुला और वही चण्डूल फुर्ती के साथ निकलकर सभों के बीच में आ खड़ा हुआ, जिसे देखते ही मायारानी और उसके साथियों की हैरानी का कोई ठिकाना न रहा। केवल इतना ही नहीं, बल्कि यह भी मालूम हुआ कि उस कोठरी में और भी कई आदमी हैं, जिसके अन्दर से चण्डूल निकला था, क्योंकि उस कोठरी का दरवाज़ा चण्डूल ने खुला ही छोड़ दिया था और उसके अन्दर के आदमी कुछ-कुछ दिखायी पड़ रहे थे।

चण्डूल : (मायारानी और उसके साथियों की तरफ़ देखकर) यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं कि मैं कौन हूँ, हाँ, अपने आने का सबब ज़रूर कहूँगा। मुझे एक लौंडी और एक गुलाम की ज़रूरत है, कहो तुम लोगों में से किसे चुनूँ? (मायारानी की तरफ़ इशारा करके) मैं समझता हूँ इसी को अपनी लौंडी बनाऊँ, और (बिहारीसिंह की तरफ़ इशारा करके) इसे गुलाम की पदवी दूँ।

बिहारी : तू कौन है, जो इस बेअदबी के साथ बातें कर रहा है? (मायारानी की तर इशारा करके) तू जानता नहीं कि ये कौन हैं?

चण्डूल : (हँसकर) मेरी शान में चाहे कोई कैसी ही कड़ी बात कहे मगर मुझे क्रोध नहीं आता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि सिवा ईश्वर के कोई दूसरा मुझसे बड़ा नहीं है, और मेरे सामने खड़ा होकर जो बातें कर रहा है वह गुलाम के बराबर भी हैसियत नहीं रखता! मैं क्या जानूँ कि (मायारानी की तरफ़ इशारा करके) यह कौन है? हाँ, यदि मेरा हाल जानना चाहते हो तो मेरे पास आओ और कान में सुनो मैं क्या कहता हूँ।

बिहारी : हम ऐसे बेवकूफ नहीं हैं कि तुम्हारे चकमें में आ जायँ।

चण्डूल : क्या तू समझता है कि मैं उस समय तुझपर वार करूँगा, जब तू कान झुकाये मेंरे पास आकर खड़ा होगा?

बिहारी : बेशक ऐसा ही है।

चण्डूल : नहीं नहीं, यह काम हमारे ऐसे बहादुरों की नहीं है, अगर डरता है तो किनारे चल, मैं दूर ही से जो कुछ कहना है, कह दूँ, जिसमें कोई दूसरा न सुने!

बिहारी : (कुछ सोचकर) ओफ, मैं तुझ ऐसे कमजोर से डरनेवाला नहीं, कह क्या कहता है।

यह कहकर बिहारीसिंह उसके पास गया और झुककर सुनने लगा कि यह क्या कहता है।

न मालूम चण्डूल ने बिहारीसिंह के कान में क्या कहा, न मालूम उन शब्दों में कितना असर था, न मालूम वह बात कैसे-कैसे भेदों से भरी हुई थी, जिसने बिहारीसिंह को आपे से बाहर कर दिया। वह घबड़ाकर चण्डूल को देखने लगा, उसके चेहरे का रंग जर्द हो गया और बदन में थरथराहट पैदा हो गयी।

चण्डूल : क्यों अगर अच्छी तरह न सुन सका हो तो ज़ोर से पुकार के कहूँ, जिसमें और भी लोग सुन लें।

बिहारी : (हाथ जोड़कर) बस बस, क्षमा कीजिए, मैं आशा करता हूँ कि आप अब दोहराकर उन शब्दों को श्रीमुख से न निकालेंगे, मुझे यह जानने की भी कोई आवश्यकता नहीं कि आप कौन हैं, चाहे जो भी हों।

माया : (बिहारी से) उसने तुम्हारे कान में क्या कहा, जिससे तुम घबड़ा गये?

बिहारी : (हाथ जोड़कर) माफ कीजिएगा, मैं इस विषय में कुछ भी नहीं कह सकता।

माया : (कड़ी आवाज़ में) क्या मैं वह बात सुनने योग्य नहीं हूँ?

बिहारी : कह तो चुका की उन शब्दो को अपने मुँह से नहीं निकाल सकता?

माया : (आँखें लाल करके) क्या तुझे अपनी ऐयारी पर घमण्ड हो गया? क्या तू अपने को भूल गया या इस बात को भूल गया कि मैं क्या कर सकती हूँ और मुझमें कितनी ताकत है?

बिहारी : मैं आपको और अपने को खूब जानता हूँ, मगर इस विषय में कुछ नहीं कह सकता। आप व्यर्थ खफा होती हैं, इसमें कोई काम न निकलेगा।

माया : मालूम होता है कि तू भी असली बिहारीसिंह नहीं है। ख़ैर क्या हर्ज़ है, समझ लूँगी! (चण्डूल की तरफ़ देखके क्या तू भी दूसरे को वह बात नहीं कह सकता?

चण्डूल : जो मेरे पास आवेगा, उसके कान में मैं कुछ कहूँगा, मगर इसका वादा नहीं कर सकता कि वही बात कहूँगा या हरएक को नयी-नयी बात का मजा चखाऊँगा।

माया : क्या यह भी नहीं कह सकता कि तू कौन है और इस बाग में किस राह से आया है?

चण्डूल : मेरा नाम चण्डूल है, आने के विषय में तो सिर्फ इतना ही कह देना काफी है कि मैं सर्वव्यापी हूँ, जहाँ चाहूँ पहुँच सकता हूँ, हाँ, कोई नयी बात सुनना चाहती हो तो मेरे पास आओ और सुनो।

हरनाम : (मायारानी से) पहिले मुझे उसके पास जाने दीजिए, (चण्डूल के पास जाकर) अच्छा लो कहो क्या कहते हो?

चण्डूल ने हरनामसिंह के कान में भी कोई बात कही। उस समय हरनामसिंह चण्डूल की तरफ़ कान झुकाये ज़मीन को देख रहा था। चण्डूल कान में कुछ कहके दो कदम पीछे हट गया, मगर हरनामसिंह ज्यों-का-त्यों झुका हुआ खड़ा ही रह गया। यदि उस समय, कोई नया आदमी देखता तो यही समझता कि यह पत्थर का पुतला है। मायारानी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, कई सायत बीत जाने पर भी जब हरनामसिंह वहाँ से न हिला तो उसने पुकारा, "हरनाम!" उस समय वह चौंका और चारों तरफ़ देखने लगा, जब चण्डूल पर निगाह पड़ी तो मुँह फेर लिया और बिहारीसिंह के पास जा सिर पर हाथ रखकर बैठ गया।

माया : हरनाम, क्या तू भी बिहारी सा साथी हो गया? वह बात मुझसे न कहेगा जो अभी तूने सुनी है?

हरनाम : मैं इसी वास्ते यहाँ आ बैठा हूँ कि आख़िर तुम रंज होकर मेरा सिर काट लेने का हुक्म दोगी कि क्योंकि तुम्हारा मिजाज बड़ा क्रोधी है, मगर लाचार हूँ, मैं वह बात कदापि नहीं कह सकता।

माया : मालूम होता है कि यह आदमी कोई जादूगर है, अस्तु, मैं हुक्म देती हूँ कि यह फौरन गिरफ़्तार किया जाय!

चण्डूल : गिरफ़्तार होने के लिए तो मैं आया ही हूँ, कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है? लीजिए स्वयं मैं आपके पास आता हूँ, हथकड़ी-बेड़ी कहाँ है, लाइए।

इतना कहकर चण्डूल तेजी के साथ मायारानी के पास गया और जब तक वह अपने को सम्हाले झुककर उसके कान में न मालूम क्या कह दिया कि उसकी अवस्था बिल्कुल ही बदल गयी। बिहारीसिंह और हरनामसिंह तो बात सुनने के बाद इस लायक भी न रहे थे कि किसी की बात सुनें और उसका जवाब दें, मगर मायारानी इस लायक भी न रही। उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी तथा वह घूमकर ज़मीन पर गिर पड़ी और बेहोश हो गयी। बिहारी और हरनामसिंह को छोड़कर बाकी जितने आदमी उसके साथ आये थे, सभों में खलबली मच गयी और सभों को इस बात का डर बैठ गया कि चण्डूल उनके कान में भी कोई ऐसी बात न कह दे, जिससे मायारानी की-सी आवस्था हो जाय।

घण्टा-भर बीत गया पर मायारानी को होश न आया। चण्डूल, तेजसिंह के पास गया और उसके कान में भी कोई ऐसी बात कही, जिसके जवाब में तेजसिंह ने केवल इतना ही कहा, "मैं तैयार हूँ!"

तेजसिंह का हाथ पकड़े हुए चण्डूल उसी कोठरी में चला गया, जिसमें से बाहर निकला था। अन्दर जाने के बाद दरवाज़ा बखूबी बन्द कर लिया। मायारानी के साथियों में से किसी की भी हिम्मत न पड़ी कि चण्डूल को या तेजसिंह को जाने से रोके। जिस समय चण्डूल यकायक कोठरी का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला था, उस समय मालूम होता था कि उस कोठरी के अन्दर और भी कई आदमी हैं, मगर उस समय तेजसिंह ने वहाँ सिवाय अपने और चण्डूल के और किसी को न पाया। उधर मायारानी जब होश में आयी तो बिहारीसिंह, हरनामसिंह तथा अपने और साथियों को लेकर खास महल में चली गयी। उसके दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने मालिक के वैसे ही ताबेदार और ख़ैरखाह बने रहे, जैसे थे, मगर चण्डूल की कही हुई बात वे दोनों अपने मुँह से कभी भी निकाल नहीं सकते थे। जब-जब चण्डूल का ध्यान आता बदन के रोंगटे खड़े हो जाते थे और ठीक यही अवस्था मायारानी की भी थी। मायारानी को यह भी निश्चय हो गया कि चण्डूल नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह को छुड़ा ले गया।

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