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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान

पाठक अभी भूले न होंगे कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह कहाँ हैं। हम ऊपर लिख आए हैं कि उस मकान में जो तालाब के अन्दर बना हुआ था, कुँअर इन्द्रजीतसिंह दो औरतों को देखकर ताज्जुब में आ गए। कुमार उन औरतों का नाम नहीं जानते थे मगर पहिचानते ज़रूर थे, क्योंकि उन्हें राजगृही में माधवी के यहाँ देख चुके थे और जानते थे कि ये दोनों माधवी की लौंडियाँ हैं, परन्तु यह जानने के लिए कुमार व्याकुल हो रहे थे कि ये दोनों यहाँ क्योंकर आयीं, क्या इस औरत से जो इस मकान की मालिक है और उस माधवी से कोई संबंध है? इसी समय उन दोनों औरतों के पीछे-पीछे वह औरत भी आ पहुँची, जिसने इन्द्रजीतसिंह के ऊपर अहसान किया था और जो उस मकान की मालिक थी। अभी तक इस औरत का नाम मालूम नहीं हुआ मगर आगे इससे काम बहुत पड़ेगा, इसलिए जब तक इसका असल नाम मालूम न हो कोई बनावटी नाम रख दिया जाए तो उत्तम होगा। मेरी समझ में कमलिनी नाम कुछ बुरा न होगा। जिस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह उन दोनों औरतों पर पड़ी। वे हैरान होकर उनकी तरफ़ देखने लगे, उसी समय दौड़ती हुई कमलिनी भी आयी और दूर से ही बोली—

कमलिनी : कुमार, इन दोनों हरामखोरियों का कोई मुलाहिज़ा न कीजिएगा और न किसी तरह की ज़ुबान ही दीजिएगा, अपनी जान बचाने के लिए ही दोनों आपके पास आयी हैं।

 इन्द्रजीत : क्या मामला है, ये दोनों कौन हैं

कमलिनी : ये दोनों माधवी की लौडियाँ हैं, आपकी जान लेने आयी थीं, मेरे आदमियों के हाथ गिरफ़्तार हो गयीं।

इन्द्रजीत : तुम्हारे आदमी कहाँ हैं? मैंने तो इस मकान में सिवाय तुम्हारे किसी को भी नहीं देखा!

कमलिनी : बाहर निकलकर देखिए मेरे सिपाही मौजूद हैं, जिन्होंने इसे गिरफ़्तार किया।

इन्द्रजीत : अगर ये गिरफ़्तार होकर आयी हैं तो इनके हाथ-पैर खुले क्यों हैं?

कमलिनी : इसके लिए कोई हर्ज़ नहीं, ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, जब तक कि मैं जागती हूँ या अपने होश में हूँ।

इन्द्रजीत : (उन दोनों की तरफ़ देखकर) तुम क्या कहती हो?

एक : (कमलिनी की तरफ़ इशारा करके) ये जो कुछ कहती हैं, ठीक है परन्तु आप वीर पुरुष हैं, आशा है कि हम लोगों का अपराध क्षमा करेंगे!

कुँअर इन्द्रजीतसिंह इन बातों को सुनकर सोच में पड़ गए। उन्हें उन दोनों औरतों की और कमलिनी की बातों का विश्वास न हुआ, बल्कि यकीन हो गया कि ये लोग किसी तरह का धोखा दिया चाहती हैं। आधी घड़ी तक सोचने के बाद कुमार बँगले के बाहर निकले तो देखा क्या कि तालाब के बाहर लगभग बीस सिपाही खड़े आपुस में कुछ बातें कर रहे और घड़ी-घड़ी इसी तरफ़ देख रहे हैं। कुमार वहाँ से लौट आए और कमलिनी का तरफ़ देखकर बोले—

इन्द्रजीत : ख़ैर जो तुम्हारे जी में आए करो, हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते।

कमलिनी : करना क्या है, इन दोनों का सिर काटा जाएगा।

इन्द्रजीत : खुशी तुम्हारी। मैं ज़रा इस तालाब के बाहर जाना चहता हूँ।

कमलिनी : क्यों?

इन्द्रजीत : यह समय मज़ेदार है, ज़रा मैदान की हवा खाऊँगा और उस घोड़े की भी खबर लूँगा जिस सवार होकर आया था।

कमलिनी : इस मकान की छत पर चढ़ने से अच्छी और साफ़ हवा आपको मिल सकती है, घोड़े के लिए चिंता न करें, या फिर ऐसा ही है तो सवेरे जाइएगा!

न मालूम क्या सोचकर इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे। कमलिनी ने उन दोनों औरतों का हाथ पकड़ा और धमकाती हुई न जाने कहाँ ले गयी, इसका हाल कुमार को न मालूम हुआ और न उन्होंने जानने का उद्योग ही किया।

यद्यपि इस औरत अर्थात कमलिनी ने कुमार की जान बचायी थी तथापि उन्हें विश्वास हो गया कि कमलिनी ने दोस्ती की राह पर यह काम नहीं किया बल्कि किसी मतलब से किया है। उस मकान में गुलदस्ते के नीचे से जो चीठी कुमार ने पायी थी उसके पढ़ने से कुमार होशियार हो गए थे तथा समझ गये थे कि यह मुझे मकर में लाया चाहती है और किशोरी के साथ भी किसी तरह की बुराई किया चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि कुमार इसे चाहने लगे थे और जान बचाने का बदला चुकाने की फिक्र में थे मगर उस चीठी के पढ़ते ही उनका रंग बदल गया और वे किसी दूसरी ही धुन में लग गये।

कुमार चाहते तो शायद यहाँ से निकल भागते क्योंकि उस औरत की तरफ़ से होशियार हो चुके थे मगर इस काम में उन्होंने यह समझकर जल्दी न की थी कि इस औरत का कुछ हाल मालूम करना चाहिए और जानना चाहिए कि यह कौन है। पर कमलिनी को कुमार के दिल की क्या खबर थी, उसने तो सोच रखा था कि मैंने कुमार पर अहसान किया है और वे किसी तरह मुझसे बदगुमान न होंगे।

कुमार के पास इस समय सिवाय कपड़ों के कोई चीज़ ऐसी न थी जिससे वे अपनी हिफ़ाज़त करते या समय पड़ने पर मतलब निकाल सकते।

कुछ दिन बाकी था, जब कुमार उस मकान की छत पर चढ़ गये और चारों तरफ़ के पहाड़, जंगल तथा मैदान की बहार देखने लगे। कुमार को यह जगह बहुत ही पसंद आयी और उन्होंने दिल में कहा कि यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर किशोरी के साथ कुछ दिनों तक इस मकान में ज़रूर रहेंगे। थोड़ी देर तक प्रकृति की शोभा देखकर दिल बहलाते रहे, जब सूर्य अस्त हो गया तो कमलिनी भी वहाँ पहुँची और कुमार के पास खड़ी होकर बातचीत करने लगी।

कमलिनी : यहाँ से अच्छी बहार दिखाई देती है।

कुमार : ठीक है, मगर यह छटा मेरे दिल को किसी तरह नहीं बदल सकती।

कमलिनी : सो क्यों?

कुमार : तरह-तरह की फ़िक्रों और तरद्दुदों ने मुझे दुःखी कर रक्खा है, बल्कि यहाँ आने और तुम्हारे मिलने से तरद्दुद और भी ज़्यादे हो गया।

कमलिनी : यहाँ आकर कौन-सी फ़िक्र बढ़ गयी?

कुमार : यह तो तब कह सकता हूँ, जब कुछ तुम्हारा हाल मालूम हो, अभी तो मैं यह भी नहीं जानता कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो और इस मकान में आके रहने का सबब क्या है।

कमलिनी : कुमार, मुझे आप से बहुत कुछ बातें कहनी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मेरे बारे में आप तरह-तरह की बातें सोचते होंगे, कभी मुझे ख़ैर ख्वाह तो कभी बदख्वाह समझते होंगे, बल्कि बदख्वाह समझने का मौक़ा ही ज़्यादे मिलता होगा। अक्सर उन लोगों ने जो मुझे जानते हैं मुझे शैतान और ख़ूनी समझ रक्खा है, और इसमें उनका कोई कसूर भी नहीं है। मैं उन लोगों का ज़िक्र इस समय केवल इसीलिए करती हूँ कि शायद उन लोगों ने जो केवल दो-तीन ऐयार मात्र हैं, कुछ चर्चा आपसे की हो।

कुमार : नहीं, मैंने किसी से कभी तुम्हारा जिक्र नहीं सुना।

कमलिनी : ख़ैर, ऐसा मौक़ा न पड़ा होगा पर मेरा मतलब यह है कि जब तक मैं अपने मुँह से कुछ न कहूँगी, मेरे बारे में कोई भी अपनी राय ठीक नहीं कर सकता और...

इतने ही में सीढ़ी पर किसी के पैर की धमधमाहट मालूम हुई, जिसे सुनकर दोनों चौंके और उसी तरफ़ देखने लगे।

कुमार : इस मकान में तो केवल तुम्हीं रहती हो।

कमलिनी : नहीं और भी कई आदमी रहते हैं, मगर वे लोग उस समय नहीं थे, जब आप आये थे।

दो लौड़ियाँ आते हुए दिखाई पड़ीं। एक के हाथ में छोटा-सा गालीचा था, दूसरी के हाथ में शमादान और तीसरी पान दान लिए हुए थी। गालीचा बिछा दिया गया, शमादान और पानदान रखकर, लौडियाँ हाथ जोड़े सामने खड़ी हो गईं। कमलिनी के कहने से कुमार गालीचे पर बैठ गए और कमलिनी भी पास बैठ गई। इसी समय इन तीनों लौडियों का वहाँ पहुँचकर बातचीत में बाधा डालना कुमार को बहुत बुरा मालूम हुआ क्योंकि वे बड़े ही गौर से कमलिनी की बातें सुन रहे थे और इस बीच में उनके दिल की अजीब हालत थी। कुमार ने कमलिनी की तरफ़ देखके कहा, "हाँ, तुम अपनी बातों का सिलसिला मत तोड़ो।"

कमलिनी : (लौडियों की तरफ़ देखकर) अच्छा! तुम लोग जाओ बहुत जल्द खाने का बन्दोबस्त करो।

कुमार : अभी खाने के लिए जल्दी न करो।

कमलिनी : ख़ैर, ये लोग काम पूरा रक्खें, आप जब चाहे भोजन करें।

कुमार : अच्छा हाँ तब?

कमलिनी : (डिब्बे से पान निकालकर) लीजिए पान खाइए।

कुमार ने पान हाथ में रख लिया और पूछा, "हाँ तब?"

कमलिनी : पान खाइए, आप डरिए मत, इसमें बेहोशी की दवा नहीं मिली है। हाँ, अगर आप ऐसा ख़याल करें भी तो कोई बेमौक़ा नहीं!

कुमार : (हँसकर) इसमें कोई शक नहीं कि इतनी ख़ैरख्वाही करने पर भी मैं तुम्हारी तरफ़ से बदगुमान हूँ, मगर तुम्हारी बातें अजब ढंग पर चल रही हैं। (पान खाकर) अब जो हो, जब तुमने मेरी जान बचायी है तो कब हो सकता है कि तुम अपने हाथ से मुझे ज़हर दो।

कमलिनी : (हँसकर) कुमार, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि आप मुझ पर शक करें। माधवी की दोनों लौंडियों का मामला भी जो अभी थोड़ी देर पहले हुआ आप देख चुके हैं, मुझ पर शक करने का मौक़ा आपको देगा। मगर नहीं, आप पूरा विश्वास रखिए कि मैं आप के साथ कभी बुराई नहीं करूँगी। कई आदमी मेरी शिकायत आप से करेंगे, आप ही के कई ऐयार असल हाल न जानने के कारण, मेरे दुश्मन हो जाएँगे, मगर सिवाय कसम खाकर कहने के और किस तरह आपको विश्वास दिलाऊँ कि मैं ख़ैरख्वाह हूँ। आप यह भी सोच सकते हैं कि मैं आपके साथ ख़ैरख्वाही क्यों कर रही हूँ।

 दुनिया का कायदा है कि बिना मतलब कोई किसी का काम नहीं करता और मैं भी दुनिया के बाहर नहीं हूँ, अस्तु, मैं भी आपसे बहुत कुछ उम्मीद करती हूं, मगर उसे जुबान से कह नहीं सकती। अभी आपको मुझसे वर्षों तक काम पड़ेगा, जब आप हर तरह से निश्चिंत हो जाएंगे, आपकी किशोरी, जो इस समय रोहतास गढ़ में कैद है, आपको मिल जाएगी, इसके अतिरिक्त एक और भी भारी काम आपके हाथ से हो लेगा, तब कहीं मेरी मुराद पूरी होगी अर्थात उस समय मुझे कुछ आपसे माँगना होगा माँगूँगी। आप मेरी बात याद रखिएगा कि आपही के ऐयार मेरे दुश्मन होंगे और अन्त में झखमार कर मुझसे ही दोस्ती के तौर पर उन्हें सलाह लेनी पड़ेगी। आप यह भी न समझिये कि मैं आज-ही-कल से आपकी तरफ़दार बनी हूँ; नहीं, बल्कि मैं महीनों से आपका काम कर रही हूँ और इस सबब से सैकड़ों आदमी मेरे दुश्मन हो रहे हैं। दुश्मनों ही के डर से मैं इस तालाब में छिपकर बैठी रहती हूँ, क्योंकि जिन्हें इसका भेद मालूम नहीं है, वे इस मकान के अन्दर पैर नहीं रख सकते। आप मुझे अकेली समझते होंगे, मगर मैं अकेली नहीं हूँ। लौंडी, सिपाही और ऐयार मिलाकर इस गयी गुज़री हालत में भी पचास आदमी मेरी ताबेदारी कर रहे हैं।

कुमार : वे लोग कहाँ हैं?

कमलिनी : उनमें से कई आदमियों को तो आप इसी जगह बैठे देखेंगे, बाकी सभों को मैंने काम पर भेजा है। जब मैं आपकी खैरख्वाह हूँ तो किशोरी की मदद भी ज़रूर ही करनी पड़ेगी, इसलिए मेरी एक ऐयारा रोहतासगढ़ किले के अन्दर भी घुसकर बैठी है और किशोरी के हाल-चाल की खबर दिया करती है, अभी कल ही उसने एक चीठी भेजी थी, (कमर से चीठी निकालकर और कुमार के हाथ में देकर) लीजिए यही चीठी है ; पहिले आप इसे पढ़ लीजिए फिर और कुछ कहूँगी।

कुमार हाथ में चीठी लेकर गौर से पढ़ने लगे। यह वही चीठी थी, जिस पर पहिले कुमार की निगाह पड़ चुकी थी और जिसे एक गुलदस्ते के नीचे से निकाल कर कुमार पढ़ चुके थे। कुमार ने चोरी से उस चीठी को पढ़ने का हाल कमलिनी से कहना मुनासिब न समझा और उसे इस तौर पर पढ़ गये, जैसे पहली दफे वह चीठी उनके हाथ में पड़ी हो। परन्तु इस समय इस तरह कमलिनी के हाथ से इस चीठी को पाकर कुमार का खयाल बिल्कुल बदल गया और कमलिनी उनकी दुश्मन नहीं है, इस बात को वे अच्छी तरह समझ गये, मगर साथ-ही-साथ उनके दिल में एक दूसरी ही तरह की उत्कण्ठा बढ़ गयी और वे यह जानने के लिए व्याकुल हो गये कि कमलिनी और इसकी ऐयार ने रोहतासगढ़ किले में पहुँचकर क्या किया!

पाठक, शायद आप इस चीठी की मजमून भूल गये होंगे, मगर आप उसे याद करें या पुनः पढ़ जाँय, क्योंकि उसके एक-एक शब्द का मतलब इस समय कमलिनी से कुमार पूछना चाहते हैं।

कुमार : मैं नहीं कह सकता और न मुझे मालूम ही है कि तुम इतनी भलाई मेरे साथ क्यों कर रही हो, तो भी मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम इस समय मुझे चिन्ता में डालकर दुःख न दोगी, बल्कि जो मैं पूछूँगा उसका ठीक-ठीक जवाब दोगी।

कमलिनी : आप मेरी तरफ से किसी तरह का बुरा खयाल न रक्खें। आज मैं इस बात पर मुस्तैद हूँ कि अगर आपको कष्ट न हो तो रात-भर जाग के बहुत कुछ हाल जो अब तक आपको मालूम नहीं है और आपके मतलब का है, आपसे कहूँ और जो-जो सवाल आप करें, उसका जवाब दूँ।

कुमार : मुझे तुम्हारे इस कहने से बड़ी खुशी हुई, अच्छा पहिले इस बात का जवाब दो कि तुम्हारी वह ऐयारा जो रोहतासगढ़ में है और इस चीठी के पढ़ने से जिसका नाम तारा मालूम होता है, रोहतासगढ़ में किस तौर पर है? जहाँ तक मैं सोचता हूँ, वह भेष बदलकर नौकरी करती होगी?

कमलिनी : नहीं, उसने नौकरी नहीं की, बल्कि वहाँ इस तौर पर छिपकर रहती है कि वहाँ के किसी आदमी को उसका पता लग जाना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है।

कुमार : अच्छा तो उसने यह क्या लिखा है कि-'किशोरी का आशिक भी यहाँ मौजूद है!'

कमलिनी : यह कटाक्ष माधवी के दीवान अग्निदत्त पर है, क्योंकि हम लोगों के हिसाब से वह किशोरी पर आशिक है। सच्चा आशिक आपकी तरह नहीं है, मगर बेईमान ऐयारों की तरह पर ज़रूर आशिक है।

कुमार : नहीं-नहीं, उसे तो हमारे आदमियों ने गिरफ़्तार करके चुनार भेज दिया है!

कमलिनी : आपका यह खयाल गलत है। वह चुनार नहीं पहुँचा, न मालूम किस तरह उसने अपनी जान बचा ली है। इसका हाल आपको लश्कर में जाने या किसी को चुनारगढ़ भेजने से मालूम होगा।

कुमार : तो क्या वह भी रोहतासगढ़ पहुँच गया?

कमलिनी : पहुँच ही गया होगा, तभी तो तारा ने लिखा है।

कुमार : अच्छा तो ये लाली और कुन्दन कौन हैं?

कमलिनी : आपकी और मेरी दुश्मन, इन दोनों को मामूली दुश्मन न समझियेगा।

कुमार : इसमें किशोरी के आशिक के बारे में लिखा है कि 'उसे किशोरी से बहुत कुछ उम्मीद भी हैं–इसका मतलब क्या है?

कमलिनी : सो ठीक अभी मालूम नहीं हुआ।

कुमार : यह जवाब तुमने बड़े खुटके का दिया।

कमलिनी : (हँसकर) आप चिन्ता न करें, किशोरी तन-मन-धन आपको समर्पण कर चुकी है, वह किसी दूसरे की न होगी।

कुमार : खैर, जब खुलासा हाल मालूम ही नहीं है तो जोकुछ सोचा जाये मुनासिब है। इसमें लिखा है कि 'किशोरी ने भी पूरा धोखा खाया'–सो क्या?

कमलिनी : इसका भी हाल अभी नहीं मालूम हुआ। शायद आजकल में कोई दूसरी चीठी आवेगी तो मालूम होगा, बल्कि और जोकुछ लिखा है, इशारा ही भर है, असल में क्या बात है, सो मैं नहीं कह सकती।

कुमार : अच्छा, अब मैं तुम्हारा पूरा हाल जानना चाहता हूँ और इसी के साथ रोहतासगढ़ में रहने वाली लाली और कुन्दन का वृत्तान्त भी तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता था।

कमलिनी : मैं सब हाल आपसे कहूँगी और इसके अलावा एक ऐसे भेद की खबर भी आपको दूँगी कि आप खुश हो जायंगे, मगर इसके लिए आपको तीन-चार दिन और सब्र करना चाहिए, इसी बीच में तारा भी रोहतासगढ़ से आ जायगी या मैं खुद खुद बुलवा लूँगी।

कुमार : इन सब बातों को जानने के लिए मैं बहुत बेचैन हो रहा हूँ, कृपा करके जो कुछ तुम्हें कहना हो अभी कहो।

कमलिनी : नहीं-नहीं, आप जल्दी न करें, मेरा दो-चार दिन के लिए टालना भी आपही के फायदे के लिए है। आप यह न समझें कि मैं आपको जान-बूझकर यहाँ अटकाया चाहती हूँ। आप यदि मुझ पर भरोसा रक्खें और मुझे अपना दुश्मन न समझें तो यहाँ रहें। मैं लौंडिया की तरह आपकी ताबेदारी करने को तैयार हूँ, और यदि मुझपर ऐतबार न हो तो अपने लश्कर चले जायें, चार-पाँच दिन के बाद मैं स्वयं आपसे मिलकर सब हाल कहूँगी।

कुमार : बेशक मैं तुम्हारे बारे में तरह-तरह की बातें सोचता था और तुम पर विश्वास करना मुनासिब नहीं समझता था, मगर अब तुम्हारी तरफ से मुझे किसी तरह का खुटका नहीं है। तुम्हारी बातों का मेरे दिल पर बड़ा ही असर हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम सिवाय भलाई के मेरे साथ बुराई कभी न करोगी। मैं ज़रूर यहाँ रहूँगा और जब तक अपने दिल का शक अच्छी तरह न मिटा लूँगा, न जाऊँगा।

कमलिनी : अहोभाग्य! (हँसकर) मगर ताज्जुब नहीं कि इसी बीच में आपके ऐयार लोग यहाँ पहुँचकर मुझे गिरफ़्तार कर लें!

कुमार : क्या मजाल!

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