लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

आठवाँ बयान

बहुत दिनों से कामिनी का हाल कुछ भी मालूम न हुआ, आज उसकी सुध लेना भी मुनासिब है। आपको याद होगा कि जब कामिनी को साथ लेकर कमला अपने चाचा शेरसिंह से मिलने के लिए उजाड़ खण्डहर और तहख़ाने में गयी थी तो वहाँ से विदा होते समय शेरसिंह ने कमला से कहा था कि 'कामिनी को मैं ले जाता हूँ, अपने एक दोस्त के यहाँ रख दूँगा, जब सब तरह का फसाद मिट जायगा तब यह भी अपनी मुराद को पहुँच जायगी।' अब हम उसी जगह से कामिनी का हाल लिखना शुरू करते हैं।

गयाजी से थोड़ी दूर पर लालगंज नाम से मशहूर एक गाँव फलगू नदी के किनारे ही पर है। उसी जगह के एक नामी जमींदार के यहाँ जो शेरसिंह का दोस्त था, कामिनी रक्खी गयी थी। वह जमींदार बहुत ही नेक और रहमदिल था तथा उसने कामिनी को बड़ी हिफाजत से अपनी लड़की के समान खातिर करके रक्खा, मगर उस जमींदार का एक नौजवान और खूबसूरत लड़का भी था, जो कामिनी पर आशिक हो गया। उसके हाव-भाव और कटाक्ष को देखकर कामिनी को उसकी नीयत का हाल मालूम हो गया। वह कुँअर आनन्दसिंह के प्रेम में अच्छी तरह रँगी हुई थी, इसलिए उसे इस लड़के की चाल-ढाल बहुत ही बुरी मालूम हुई। ऐसी अवस्था में उसने अपने दिल का हाल किसी से कहना मुनासिब न समझा, बल्कि इरादा कर लिया कि जहाँ तक जल्द हो सके, इस मकान को छोड़ ही देना मुनासिब है और अन्त में लाचार होकर, उसने ऐसा ही किया।

एक दिन मौका पाकर आधी रात के समय कामिनी उस घर से बाहर निकली और सीधे रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुई। इस समय वह तरह-तरह की बातें सोच रही थी। एक दफे उसके दिल में आया कि बिना कुछ सोचे-विचारे बीरेन्द्रसिंह के लश्कर में चले चलना ठीक होगा, मगर साथ ही यह भी सोचा कि यदि कोई सुनेगा तो मुझे अवश्य ही निर्लज्ज कहेगा और आनन्दसिंह की आँखों में मेरी कुछ इज्जत न रहेगी।

इसके बाद उसने सोचा कि जिस तरह हो कमला से मुलाकात करनी चाहिए मगर कमला से मुलाकात क्योंकर हो सकती है? न मालूम अपने काम की धुन में वह कहाँ-कहाँ घूम रही होगी? हाँ, अब याद आया, जब मैं कमला के साथ शेरसिंह से मिलने के लिए उस तहख़ाने में गयी थी तो शेरसिंह ने उससे कहा था कि मुझसे मिलने की जब ज़रूरत हो तो इसी तहख़ाने में आना। अब मुझे भी उसी तहख़ाने में चलना चाहिए, वहाँ कमला या शेरसिंह से ज़रूर मुलाकात होगी और वहाँ दुश्मनों के हाथ से भी निश्चिन्त रहूँगी। जब तक कमला से मुलाकात न हो, वहाँ टिके रहने में भी कोई हर्ज़ नहीं है, वहाँ खाने के लिए जंगली फल और पीने के लिए पानी की भी कोई कमी नहीं।

इन सब बातों को सोचती हुई बेचारी कामिनी उसी तहख़ाने की तरफ़ रवाना हुई और अपने को छिपाती हुई जंगल-ही-जंगल चलकर तीसरे दिन पहर रात जाते-जाते वहाँ पहुँची। रास्ते में जंगली फल और चश्मे के पानी सिवाय और कुछ उसे न मिला और न उसे किसी चीज़ की इच्छा ही थी।

वह खण्डहर कैसा था और उसके अन्दर तहख़ाने में जाने के लिए छिपा हुआ रास्ता किस ढंग का बना हुआ था यह पहिले लिखा जा चुका है, पुनः यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। कमला या शेरसिंह से मिलने की उम्मीद में उसी खण्डहर और तहख़ाने को कामिनी ने अपना घर बनाया और तपस्विनियों की तरह कुँअर आनन्दसिंह के नाम की माला जपती हुई दिन बिताने लगी। बहुत-सी ज़रूरी चीज़ों के अतिरिक्त ऐयारी के सामान से भरा हुआ एक बाँस का पेटारा शेरसिंह का रक्खा हुआ उस तहख़ाने में मौजूद था, जो कामिनी के हाथ लगा। यद्यपि कामिनी कुछ ऐयारी भी जानती थी परन्तु इस समय उसे ऐयारी के सामान की विशेष ज़रूरत न थी, हाँ शेरसिंह की जायदाद में से एक कुप्पी तेल की कामिनी ने बेशक खर्च की क्योंकि चिराग जलाने की नित्य ही आवश्यकता पड़ती थी।

कमला और शेरसिंह से मिलने की उम्मीद में कामिनी ने उस तहख़ाने में रहना स्वीकार किया परन्तु कई दिन बीत जाने पर भी किसी से मुलाकात न हुई। एक दिन सूरत बदल कर कामिनी तहख़ाने से निकली और खण्डहर के बाहर हो सोचने लगी कि किधर जाये और क्या करे। एकाएक कई आदमियों के बातचीत की आवाज़ उसके कानों में पड़ी और मालूम हुआ कि वे लोग आपस में बातचीत करते हुए इसी खण्डहर की तरफ़ आ रहे हैं। थोड़ी ही देर में चार आदमी भी दिखायी पड़े। उस समय कामिनी अपने को बचाने के लिए खण्डहर के अन्दर घुस गयी और राह देखने लगी कि वे लोग आगे बढ़ जायँ तो फिर निकलूँ, मगर ऐसा न हुआ क्योंकि बात-की-बात में वे चारों आदमी एक लाश उठाये हुए इसी खण्डहर के अन्दर आ पहुँचे।

इस खण्डहर में अभी तक कई कोठरियाँ मौजूद थीं। यद्यपि उनकी अवस्था बहुत ही खराब थी, किवाड़ के पल्ले तक उनमें न थे, जगह-जगह पर कंकड़ पत्थर कतवार के ढेर लगे हुए थे, परन्तु मसाले की मज़बूती पर ध्यान दे आँधी-पानी अथवा तूफान में भी बहुत आदमी उन कोठरियों में रहकर अपनी जान की हिफ़ाज़त कर सकते थे। खण्डहर के चारों तरफ़ की दीवार यद्यपि कहीं-कहीं से टूटी हुई थी तथापि बहुत ही मज़बूत और चौड़ी थी। कामिनी एक कोठरी में घुस गयी और छिपकर देखने लगी कि वे चारों आदमी उस खण्डहर में आकर क्या करते और उस लाश को कहाँ रखते हैं।

लाश उठाये हुए चारों आदमी इस खण्डहर में जाकर इस तरह घूमने लगे जैसे हर एक कोठरी-दालान बल्कि यहीं की बित्ता-बित्ता-भर ज़मीन उन लोगों की देखी हुई हो। चूने पत्थर के ढेरों में घूमते और रास्ता निकालते हुए वे लोग एक कोठरी के अन्दर घुस गये, जो उस खण्डहर-भर में सब कोठरियों से छोटी थी और दो घण्टे तक बाहर न निकले, इसके बाद जब वे लोग बाहर आये तो खाली हाथ थे अर्थात् लाश न थी, शायद उस कोठरी में गाड़ या रख आये हों।

जब वे आदमी खण्डहर से बाहर हो मैदान की तरफ़ चले गये बल्कि बहुत दूर निकल गये, तब कामिनी भी कोठरी में से निकली और चारों तरफ़ देखने लगी। उसे आज तक यह विश्वास था कि इस खण्डहर का हाल शेरसिंह कमला मेरे और उस लम्बे आदमी के सिवाय जो शेरसिंह से मिलने के लिए यहाँ आया था किसी पाँचवें को मालूम नहीं है, मगर आज की कैफियत देखकर उसका खयाल बदल गया और वह तरह-तरह के सोच-विचार में पड़ गयी। थोड़ी देर बाद वह उसी कोठरी की तरफ़ बढ़ी, जिसमें वे लोग लाश छोड़ गये थे, मगर उस कोठरी में ऐसा अन्धकार था कि अन्दर जाने का साहस न पड़ा। आख़िर अपने तहख़ाने में गयी और शेरसिंह के पेटारे में से एक मोमबत्ती निकालकर और बाल-कर बाहर निकली। पहिले उसने रोशनी के आगे हाथ की आड़ देकर चारों तरफ़ देखा और फिर उस कोठरी की तरफ़ रवाना हुई। जब कोठरी के दरवाज़े पर पहुँची तो उसकी निगाह एक आदमी पर पड़ी, जिसे देखते ही चौंकी और डरकर दो कदम पीछे हट गयी, मगर उसकी होशियार आँखों ने तुरन्त पहिचान लिया कि वह आदमी असल में मुर्दे से भी बढ़कर है अर्थात् पत्थर की एक खड़ी मूरत है, जो सामने की दीवार के साथ चिपकी हुई है। आज के पहिले इस कोठरी के अन्दर कामिनी नहीं आयी थी, इसलिए वह हर एक तरफ़ अच्छी तरह गौर से देखने लगी परन्तु उसे इस बात का खटका बराबर लगा रहा कि कहीं वे चारों आदमी फिर न आ जाँय।

कामिनी को उम्मीद थी कि इस कोठरी के अन्दर वह लाश दिखायी देगी जिसे चारों आदमी उठाकर लाये थे, मगर कोई लाश दिखायी न पड़ी, आख़िर उसने खयाल किया कि शायद वे लोग लाश की जगह मूरत को लाये हो, जो सामने दीवार के साथ खड़ी है। कामिनी उस कोठरी के अन्दर घुसकर मूरत के पास जा खड़ी हुई और उसे अच्छी तरह देखने लगी। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ जब उसने अच्छी तरह जाँच करने पर निश्चय कर लिया कि वह मूरत दीवार के साथ है अर्थात् इस तरह पर जड़ी हुई है कि बिना टुकड़े-टुकड़े हुए किसी तरह दीवार से अलग नहीं हो सकती। कामिनी की चिन्ता और बढ़ गयी। अब उसे इसमें किसी तरह का शक न रहा कि वे चारों आदमी ज़रूर किसी की लाश को उठा लाये थे इस मूरत को नहीं, मगर वह लाश गयी कहाँ? क्या ज़मीन खा गयी या किसी चूने के ढेर के नीचे दबा दी गयी! नहीं मिट्टी या चूने के नीचे वह लाश दाबी नहीं गयी, अगर ऐसा होता तो ज़रूर देखने में आता, उन लोगों ने जो कुछ किया इसी कोठरी के अन्दर किया।

कामिनी उस, मूरत के पास खड़ी देर तक सोचती रही, आख़िर वहाँ से लौटी और धीरे-धीरे अपने तहख़ाने में आकर बैठ गयी, वहाँ एक ताक (आले) पर चिराग जल रहा था इसलिए मोमबत्ती बुझाकर बिछौने पर जा लेटी और फिर सोचने लगी।

इसमें कोई शक नहीं कि वे लोग कोई लाश उठाकर लाये थे, मगर वह लाश कहाँ गयी। ख़ैर, इससे कोई मतलब नहीं, मगर अब यहाँ रहना भी कठिन हो गया क्योंकि यहाँ कई आदमियों की आमदरफ़्त शुरू हो गयी, शायद कोई मुझे देख ले तो मुश्किल होगी, अब होशियार हो जाना चाहिए क्योंकि मुझे बहुत-कुछ काम करना है। कमला या शेरसिंह भी अभी तक न आये, अब उनसे भी मुलाकात होने की कोई उम्मीद न रही, अच्छा दो-तीन दिन और यहाँ रहकर देखा चाहिए कि वे लोग फिर आते हैं या नहीं।

कामिनी इन सब बातों को सोच ही रही थी कि एक आवाज़ उसके कान में आयी। उसे मालूम हुआ कि किसी औरत ने दर्दनाक आवाज़ में यह कहा, "क्या दुःख ही भोगने के लिए मेरा जन्म हुआ था।" यह आवाज़ ऐसी दर्दनाक थी कि कामिनी का कलेजा काँप गया। इस छोटी ही उम्र में वह भी बहुत तरह के दुःख भोग चुकी थी और उसका कलेजा जख़्मी हो चुका था इसलिए बर्दाश्त न कर सकी, आँखें भर आयीं और आँसू की बूँदें टपाटप गिरने लगीं। फिर आवाज़ आयी, "हाय मौत को भी मौत आ गयी!" अबकी दफे कामिनी बेतरह चौंकी और यकायक बोल उठी, "इस आवाज़ को तो मैं पहिचानती हूँ, ज़रूर उसी की आवाज़ है!"

कामिनी उठ खड़ी हुई और सोचने लगी कि यह आवाज़ किधर से आयी? बन्द कोठरी में आवाज़ आना असम्भव है, कहीं खिड़की, सुराख या दीवार में दरार हुए बिना आवाज़ किसी तरह नहीं आ सकती। वह कोठरी में हर तरफ़ घूमने और देखने लगी। यकायक उसकी निगाह एक तरफ़ की दीवार के ऊपरी हिस्से पर जा पड़ी और वहाँ एक सूराख, जिसमें आदमी का हाथ बखूबी जा सकता था, दिखायी पड़ा। कामिनी ने सोचा कि बेशक इसी सूराख में से आवाज़ आयी है। वह सूराख की तरफ़ देखने लगी, फिर आवाज़ आयी–"हाय, न मालूम मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है!"

अब कामिनी को विश्वास हो गया कि यह आवाज़ उसी सूराख में से आयी है। वह बहुत ही बेचैन हुई और धीरे-धीरे कहने लगी, "बेशक यह उसी की आवाज़ है। हाय मेरी प्यारी बहिन किशोरी, मैं तुझे क्योंकर देखूँ और किस तरह मदद करूँ? इस कोठरी के बगल में ज़रूर कोई दूसरी कोठरी है, जिसमें तू क़ैद है, मगर न मालूम उसका रास्ता किधर से है? मैं क्योंकर तुझ तक पहुँचूँ और इस आफ़त से तुझे छुड़ाऊँ? इस कोठरी की कम्बख्त संगीन दीवार भी ऐसी मजबूत है कि मेरे उद्योग से सेंध भी नहीं लग सकती। हाय, अब मैं क्या करूँ? भला पुकार के देखूँ तो सही कि आवाज़ भी उसके कानों तक पहुँचती है या नहीं?"

कामिनी ने मोखे (सूराख़) की तरफ़ मुँह करके कहा, "क्या मेरी प्यारी बहिन किशोरी की आवाज़ आ रही है?"

जवाब : हाँ, क्या तू कामिनी है? बहिन कामिनी, क्या तू भी मेरी ही तरह इस मकान में क़ैद है?

कामिनी : नहीं, बहिन मैं क़ैद नहीं हूँ, मगर…

कामिनी और कुछ कहा ही चाहती थी कि धमधमाहट की आवाज़ सुनकर रुक गयी और डरकर सीढ़ी की तरफ़ देखने लगी। उसे मालूम हुआ कि कोई यहाँ आ रहा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book