मूल्य रहित पुस्तकें >> चन्द्रकान्ता सन्तति - 2 चन्द्रकान्ता सन्तति - 2देवकीनन्दन खत्री
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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...
सातवाँ बयान
रोहतासगढ़ फतह होने की ख़बर लेकर भैरोसिंह चुनार पहुँचे और उसके दो ही तीन दिन बाद राजा दिग्विजयसिंह की बेईमानी की ख़बर लिए हुए कई सवार भी आ पहुँचे। इस समाचार के पहुँचते ही चुनारगढ़ में खलबली पड़ गयी। फौज के साथ-ही-साथ रिआया भी राजाबीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान को दिल से चाहती थी, क्योंकि उनके जमाने में अमीर और गरीब सभी खुश रहते थे। आलिम और कारीगरों की कदर की जाती थी, अदना-से-अदना भी अपनी फरियाद राजा के कान तक पहुँचा सकता था, उद्योगियों और व्यापरियों को दर्बार से मदद मिलती थी, ऐयार और जासूस लोग छिपे-छिपे रिआया के दुःख-सुःख का हाल मालूम करते और राजा के हर तरफ़ की ख़बर पहुँचाते थे। शादी ब्याह में इज्जत के माफिक हरएक को मदद मिलती थी और इसी से रिआया भी तन-मन-धन राजा के लिए अर्पण करने को तैयारी मिलती थी। राजा बीरेन्द्रसिंह क़ैद हो गये, इस खबर को सुनते ही रियाना जोश में आ गयी और इस फिक्र में हुई कि जिस तरह हो राजा को छुड़ाना चाहिए।
रोहतासगढ़ के बारे में क्या करना चाहिए और दुश्मनों पर क्योंकर फतह पानी चाहिए, यह सब सोचने विचारने के पहिले महाराज सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने भैरोसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल को हुक्म दिया कि तुम लोग तुरन्त रोहतासगढ़ जाओ और जिस तरह हो सके अपने को किले के अन्दर पहुँचाकर राजा बीरेन्द्रसिंह को रिहा करो, हम दोनों में से भी कोई आदमी मदद लेकर शीघ्र पहुँचेगा।
हुक्म पाते ही तीनों ऐयार तेज़ और मज़बूत घोड़ों पर सवार हो रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए और दूसरे दिन शाम को अपनी फौज में पहुँचे। राजा बीरेन्द्रसिंह की आधी फौज अर्थात पच्चीस हज़ार फौज तो पहाड़ी के नीचे किले के दरवाजे की तरफ़ खड़ी हुयी थी और बाकी आधी फौज पहाड़ी के चारों तरफ़ इसलिए फैला दी गयी थी कि राजा दिग्विजयसिंह को बाहर से किसी तरह की मदद न पहुँच पाये। पाँच-पाँच सात-सात सौ बहादुरों को लेकर नाहरसिंह कई दफे पहाड़ी पर चढ़ा और किले के दरवाजे तक पहुँचना चाहा, मगर किले के बुर्जों पर आये हुए तोप के गोलों ने उन्हें वहाँ तक पहुँचने न दिया और हर दफे लौटना पड़ा ज़ाहिर में तो वे लोग सामने की तरफ़ अड़े हुए थे और घड़ी-घड़ी हमला करते थे, मगर नाहर सिंह के हुक्म से पाँच-पाँच सात-सात करके जंगल-ही-जंगल रात के समय छिपे हुए रास्तों से बहुत से सिपाही जासूस और सुरंग खोदने वाले पहाड़ पर चढ़ गये थे तथा बराबर चढ़े जाते थे और उम्मीद पायी जाती थी कि दो-ही-तीन दिन में हज़ार-दो-हज़ार आदमी पहाड़ के ऊपर हो जाएँगे। तब नाहरसिंह छिपकर अकेला पहाड़ पर चढ़ जाएगा और अपने आदमियों को बटोरकर किले के दरवाज़े पर हमला करेगा। पहाड़ पर पहुँचकर सुरंग खोदने वाले सुरंग खोदकर बारूद के ज़ोर से किले का फाटक तोड़ने की धुन में लगे हुए थे और इन बातों की ख़बर राजा दिग्विजयसिंह को बिल्कुल न थी।
भैरोसिंह ने पहुँचकर यह सब हाल सुना और खुश होकर सेनापतियों की तारीफ़ की तथा कहा कि 'यद्यपि पहाड़ के ऊपर का घना जंगल ऐसा बेढब है कि मुसाफ़िरों को जल्दी रास्ता नहीं मिल सकता तथापि हमारे आदमी यदि उँचाई की तरफ़ ध्यान न देकर चढ़ना शुरू करेंगे तो लुढ़कते-पुड़कते किले के पास पहुँच ही जाएँगे। ख़ैर, आप लोग जिस काम में लगे हैं, लगे रहिए, हम तीनों ऐयार पहाड़ पर जाते हैं और किसी तरह किले के अन्दर पहुँचने का बन्दोबस्त करते हैं।
पहर रात बीत गयी थी जब भैरोसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगे। भैरोसिंह कई दफे उस पहाड़ी पर जा चुके थे और उस जंगल में अच्छी तरह घूम चुके थे, इसलिए इन्हें भूलने और धोखा खाने का डर न था। ये लोग बेधड़क पहाड़ पर चले गये और रोहतासगढ़ के रास्ते वाले कब्रिस्तान में ठीक उस वक्त पहुंचे जिस समय कमला धड़कते हुए कलेजे के साथ उस राक्षसी के सामने खड़ी थी, जिसके हाथ में बिजली की तरह चमकता हुआ नेजा था। जिस समय वह नेजा चमकता था, देखने वालों की आँखें चौंधिया जाती थीं। भैरोसिंह ने दूर से चमकते नेजे को देखा और उसके साथी दोनों ऐयार भी डरकर खड़े हो गये। भैरोसिंह चाहते थे कि जब वह औरत वहाँ से चली जाय तो कब्रिस्तान में जायँ, मगर वे ऐसा न कर सके क्योंकि नेजे की चमक में उन्होंने कमला की सूरत देखी, जो इस समय जान से हाथ धोकर उस राक्षसी के सामने खड़ी थी।
हम ऊपर कई जगह इशारा कर आये हैं कि भैरोसिंह कमला को चाहते थे और वह भी इनसे मुहब्बत रखती थी। इस समय कमला को एक राक्षसी के सामने देख, उसकी मदद न करना भैरोसिंह से कब हो सकता था? वे लपककर कमला के पास पहुँचे। दो ऐयारों को साथ लिए भैरोसिंह को अपने साथ मौजूद देखकर कमला का जी ठिकाने हुआ और उसने जल्दी से भैरोसिंह का हाथ पकड़कर कहा–"खूब पहुँचे!"
भैरो : तुम यहाँ क्यों खड़ी हो और तुम्हारे सामने यह औरत कौन है?
कमला : मैं इसे नहीं पहिचानती।
राक्षसी : मेरा हाल कमला से क्यों पूछते हो, मुझसे पूछो। इस समय तुम्हें देखकर मैं बहुत खुश हुई, मैं भी इसी फिक्र में थी कि किसी तरह भैरोसिंह से मुलाक़ात हो।
भैरो : तुमने मुझे क्योंकर पहिचाना, क्योंकि आज तक मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा!
इतना सुनकर वह औरत बड़ी ज़ोर से हँसी और उसने नेजे को हिलाया। हिलाने के साथ ही नेजे में चमक पैदा हुई और उसकी डरावनी हँसी से कब्रिस्तान गूँज उठा, "इसके बाद उस औरत ने कहा–
राक्षसी : ऐसा कौन है, जिसे मैं नहीं पहिचानती हुऊँ? ख़ैर, इन बातों से कोई मतलब नहीं, यह कहो कि अपने मालिकों के क्या फिक्र कर रहे हो? दिग्विजयसिंह दो-ही-तीन दिन में तुम्हारे मालिक को मारकर निश्चिन्त हुआ चाहता है।
भैरोसिंह उस राक्षसी से बातें करने को तैयार थे, परन्तु यह नहीं जानते थे कि वह उनकी दोस्त है या दुश्मन और उससे अपने भेदों को छिपाना चाहिए कि नहीं। यह सोच ही रहे थे कि इसकी बातों का क्या जवाब दिया जाए कि इतने में कई आदमियों की आहट मालूम हुई। उस औरत ने घूमकर देखा तो चार आदमियों को इसी तरफ़ आते पाया। उन पर निगाह पड़ते ही वह क्रोध में आकर गरजी और नेजे को हिलाते हुए उसी तरफ़ लपकी। नेजे की चमक ने उन चारों की आँखें बन्द कर दीं। औरत ने बड़ी फुर्ती से उन चारों को नेजे से घायल किया। हिलने के साथ-ही-साथ उस नेजे में ग़ज़ब की चमक पैदा होती थी, मालूम होता था कि आँखों के आगे बिजली दौड़ गयी। वे बेचारे देख भी न सके कि उनको मारनेवाला कौन या कहाँ पर है। मालूम होता है कि वह नेजा ज़हर में बुझाया हुआ था क्योंकि वे चारों जख़्मी होकर ज़मीन पर ऐसा गिरे कि फिर उठने की नौबत न आयी।
इस तमाशे को देखकर भैरोसिंह डरे और सोचने लगे कि इस औरत के हाथ में तो बड़ा विचित्र नेजा है। इससे तो यह बात-की-बात में सैकड़ों आदमियों का नाश कर सकती है, कहीं ऐसा न हो कि हम लोगों को भी सतावे।
उन चारों को जख़्मी करने के बाद वह औरत फिर भैरोसिंह की तरफ़ लौटी। अब उसने अपने नेजे को आड़ा किया अर्थात् उसे इस तरह थामा कि उसका एक सिरा बायीं तरफ़ और दाहिनी तरफ़ रहे, तब तीनों ऐयारों और कमला को नेजे का धक्का देकर, एक साथ पीछे की तरफ़ हटाना चाहा। यह नेजा एक साथ चारों के बदन में लगा, उसके छूते ही बदन में एक तरह की झनझनाहट पैदा हुई और सब आदमी बदहवास होकर ज़मीन पर गिर पड़े।
जब उन चारों अर्थात् भैरोसिंह, रामनारायण, चुन्नीलाल और कमला की आँखें खुलीं तो उन्होंने अपने को किले के अन्दर राजमहल के पिछवाड़े की तरफ़ एक दीवार की आड़ में पड़े पाया। उस समय सुबह की सुफेदी आसमान पर धीरे-धीरे अपना दखल जमा रही थी।
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