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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

बाईसवां बयान


बाबाजी वहां से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुंचे और वहां घूम-फिरकर तमाम बाग, इमारत, खज़ाना और सब असबाबों को दिखलाने लगे जो तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।

महाराज जयसिंह उन सब चीज़ों को देखते ही एक दम बोल उठे, ‘‘वाह-वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होंने दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना सारा राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!’’

सबसे ज़्यादा खज़ाना और जवाहरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नज़र पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।

तीसरे और चौथे भाग के शुरू में इस पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का सारा हाल हम लिख चुकें हैं। दो-तीन दिनों में सिद्धबाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे, उस वक़्त महाराज जयसिंह ने सिद्धबाबा से कहा–

‘‘आपने जो कुछ मदद कुमारी चन्द्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल बतलाकर हम लोगों की चिन्ता को दूर कीजिये, अब सब्र नहीं किया जाता।’’

महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्धबाबा मुस्कराकर बोले, ‘‘मैं अभी अपना हाल आप लोगों पर ज़ाहिर करता हूं, ज़रा सब्र कीजिये।’’ इतना कह ज़ोर की जफील (सीटी) बजाई। उसी वक़्त तीन-चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धबाबा ने हुक्म दिया, ‘‘हमारे नहाने के लिए जल और पहनने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो! आज मैं इस मृगछाले और लम्बी दाढ़ी से इस्तीफा दूंगा।’’

थोड़ी ही देर में सिद्धबाबा के हुक्म की तामील हुई। तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उस कोठरी में चले गये जिसमें उनके नहाने का जल और पहनने के कपड़े रक्खे हुए थे।

थोड़ी ही देर में नहा-धो और कपड़े पहन कर सिद्धबाबा उस कोठरी के बाहर निकले! अब तो उनको सिद्धाबाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेज़सिंह के पिता जीतसिंह कहना ठीक है।

अब पूछने या हाल-चाल मालूम करने की फुरसत कहां, महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह कर कि तुम मेरे भाई से भी हज़ार दर्जे बढ़कर हो’ गले लगा लिया और कहा, ‘‘जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी।* (*देखिये दूसरा भाग, पांचवा बयान।) आज तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्त-दर-पुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने एहसान का बोझ रक्खा।’’ देर तक गले लगाये रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्ज़ा देकर गले लगाया। तेज़सिंह और देवीसिंह ने भी बड़ी खुशी से उनकी पूजा की।

अब मालूम हुआ कि कुमारी चन्द्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले, आज तक अच्छे-अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंवर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्ध बाबा योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।

इस वक़्त की खुशी का क्या अन्दाज़ा है! अपने-अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे थे। कि त्रिभुवन की सम्पत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंवर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चन्द्रकान्ता से मिलने की खुशी भी जैसी थी आप खुद ही सोच-समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का बाबा तो कुछ थे ही नहीं।

इस वक़्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़-चढ़ रहा है, वे ही जानते होंगे। कुमारी चन्द्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक़्त कुमारी चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़ कर राजा सुरेन्द्रसिंह के पैरों में डाल दिया और डबडबाई आंखो को पोंछकर कहा, ‘‘आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात-बिरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंवर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।’’

राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैरों से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, ‘‘जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायें क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होंगी।’’

इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अब क्या करना चाहिए?

जीतसिंह : अब सभी को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल-असबाब और खजाने को ले चलने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि अब तो यह माल-असबाब सिवाय कुमारी चन्द्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले ही से इनके कब्जे में ही रही है, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इसके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसन्द है, जहां तक मैं समझता हूं कुमारी चन्द्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन ज़रूर रहेंगी इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चन्द्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।

बहादुर और चतुर ऐयार जीतसिंह की राय को सभी ने पसन्द किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।

जीतसिंह ने कुछ लौंडियों को, जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिये वहां लाये थे, बुलाकर कहा, ‘‘तुम लोग अपने-अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रक्खी है।’’

जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौड़ियां जो गिनती में बीस होंगी, दूसरे बाग में चली गई और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कन्धे पर लिए हाज़िर हुईं।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह ने उन लौड़ियों को पहचाना। तेज़सिंह बोले, ‘‘वाह वाह, अपने घर की लौंड़ियां को आज तक मैंने न पहचाना! मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा।’’

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