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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सातवां बयान


विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चन्द्रकान्ता की कोई खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती-जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अन्दर गये हैं। इन सब बातों को सुन-सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चन्द्रकान्ता की जुदाई में खाना-पीना बिलकुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दुःखी रहा करती थीं।

एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह ज़रूरी अर्ज़ियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा-सा लिखा हुआ काग़ज़ लेकर हाज़िर हुआ।

इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, ‘‘यह कैसा काग़ज़ लाया है और क्या कहता है?’’

जासूस ने अर्ज़ किया, ‘‘इस तरह के लिखे हुए काग़ज़ शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी-बड़ी सड़कों पर इसी तरह के काग़ज़ नज़र पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक काग़ज़ उखाड़ कर दरबार में ले आया हूं। बाज़ार में इन काग़ज़ों को पढ़-पढ़कर लोग बहुत घबरा रहे हैं।’’

जासूस के हाथ से काग़ज़ लेकर हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। लिखा हुआ था :

‘‘नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आज तक बड़े जोश में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चिन्त हो गये, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले नहीं समाते होंगे, आज कल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को नहीं मालूम कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजाओं, सरदारों और बड़े-बड़े सेठ साहूकारों को चुन-चुन कर मारूंगा, दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि। हमारे यहां बड़े-बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे-ऐसे ऐयारों को कुछ नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं मगर मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी-अपनी जान की हिफाज़त चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार! खबरदार!’’

ऐयारों का गुरुघंटाल–‘‘जालिम खां।’’

इसको सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सभी को ढांढस देने के लिए महाराज ने गम्भीर भाव से कहा, ‘‘हम ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते। कोई घबराने की ज़रूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाये कि जालिम खां के गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार की तरफ से की जाती है, वह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबरा कर या डर कर अपना मकान न छोड़े। मुनादी के बाद शहर में पूरा-पूरा पहरे का इन्तज़ाम किया जाये और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किये जाये।’’

थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गये।

दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गये और एकान्त में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच-विचार कर हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना ज़रूरी है।’’ महाराज जयसिंह ने कहा, ‘‘तुम इसी वक़्त एक चिट्ठी यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो। वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो जो जासूस लाया था।’’

महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने चिट्ठी लिखकर तैयार की और जासूस को देखकर उसे पोशीदा तौर पर नैगढ़ की तरफ रवाना किया, इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को विदा किया।

इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गये। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बड़ी घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इसी चिन्ता में गुज़र गई।

दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और काग़ज़ लाकर पेश किया और कहा, ‘‘आज तमाम शहर में इसी तरह के काग़ज़ चिपके दिखाई देते हैं।’’ दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह काग़ज़ ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, जिसमें लिखा था-

‘‘वाह! वाह!! वाह!!! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खत्म कर दिया। किसी को भेजिये, उसकी लाश उठा लाये। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।

–वही ज़ालिमखाँ।

इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सभी के छक्के छूट गये, सबको अपनी-अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गये, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाये, हलचल-सी मच गई। हज़ारों आदमियों की भीड़ लग गई। सभी की जुबानी पर जालिम खां सवार था। नाम से लोगों के रोएं खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो चिट्ठी वह ले गया था वह उसके बाजू में बंधी हुई थी।

जाहिर में महाराज ने सभी को ढांढस दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, ‘‘शहर में मुनादी करा दी कि जो कोई इस ज़ालिमखां को गिरफ्तार करेगा, उसे सरकार से दस हज़ार रुपया इनाम मिलेगा, और यहां से सारे हाल-चाल की चिट्ठी पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाये।’’

यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो चिट्ठी लेकर नौगढ़ रवाना हुए डर के मारे कांप रहे थे। डर था कि अपनी जान से हाथ न धो बैठें। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका।

दूसरे दिन सवेरे ही फिर इश्तिहार लिये एक पहरेदार दरबार में हाज़िर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, लिखा था :

‘‘उन सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुज़री कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। लो, अब खूब सम्हल कर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि ज़ालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हज़ार इनाम पायेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हज़ार इनाम दूंगा!’’

–ज़ालिमखां

आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की जो स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक चिट्ठी के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि ज़ालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है। ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी।

महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों के लिये रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी, मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते! लाचार जाना पड़ रहा था।

पांचों आदमियों की लाशें आईं। उन सभी के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है क्योंकि गर्दन में रस्सी के दाग थे।

इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये।

आज पंडित बद्रीनाथ का ठाट देखने लायक था। पोर-पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाट से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर कमान लगा, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमन्द पीठ पर लगाये, पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा-सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।

महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालल वगैरह ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं।

ऐसे वक़्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के लिए ऐसा हुआ जैसे मरते हुए पर अमृत का बरसना। देखते ही खुश हो गये, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये।

जय० : आज आप बड़े मौके पर पहुंचे।

बद्रीनाथ : जी हाँ, अब आप कोई चिन्ता न करें। दो ही दिन में ज़ालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा।

जय० : आपको ज़ालिमखां की खबर कैसे लगी?

बद्री० : इसकी खबर तो नौगढ़ में ही लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक़्त कहूँगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था, उसे बराबर ढाढ़स देता था कि ‘‘घबराओ मत, अब मैं आ पहुंचा हूं। बाकी हाल एकान्त में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक़्त एकान्त में ही आप के और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान पूजा भी नहीं किया। उससे छुट्टी पाकर तभी कोई काम करूंगा।’’

अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ‘‘पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिये और इनके आराम की सारी चीज़ों का बन्दोबस्त कीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।’’

बद्री : शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक़्त मेरी बातचीत होगी।

जय० : जिस वक़्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी।

महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयलासिंह अपने मकान पर आये और उनकी ज़रूरत की चीज़ों का पूरा-पूरा इन्तज़ाम कर दिया।

कुछ दिन बाकी था जो पंडित बद्रीनाथ ने ज़ालिमखां के गिरफ्तार करने का उपाय सोचने में गुज़ारा। शाम के वक़्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये। मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं तो वे दोनों बाग में गये।

उस समय वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग विदा कर दिये गये। सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयालसिंह महाराज के पास रह गये।

पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि ‘‘नौगढ़ में ज़ालिमखां की खबर कैसे पहुंची?’’

बद्रीनाथ : नौगढ़ में भी उसने इसी तरह के इश्तिहार चिपकाये हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में भी उपद्रव मचायेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजा है।

महाराज : इस दुष्ट ज़ालिमखां ने वहां किसी की जान न ली?

बद्रीनाथ : नहीं, अभी उसका दावं नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।

महाराज : यहाँ तो उसने कई खून किये।

बद्रीनाथ : शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायेगा।

महाराज : अगर ज्योतिषी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।

बद्रीनाथ : महाराज, ज़रा इसकी बहादुरी की तरफ खयाल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट पर काम रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या ज़रूरत है?

महाराज : देखें, वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहा है।

बद्रीनाथ : घबराइए नहीं, सुबह-शाम में किसी-न-किसी को गिरफ्तार करता हूं।

महाराज : क्या ये लोग कई आदमी हैं?

बद्रीनाथ : ज़रूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की हिम्मत करे।

महाराज : अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गया नहीं तो बड़ी फिक्र लगी हुई थी।

बद्रीनाथ : अब मैं रुखसत होऊंगा, बहुत कुछ काम करना है।

हर० : क्या आप डेरे की तरफ नहीं जायेंगे?

बद्रीनाथ : कोई ज़रूरत नहीं, मैं पूरे बन्दोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा।

कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से विदा हो बद्रीनाथ जामलिखां की टोह में रवाना हुए।

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