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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवां बयान

राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़े-दौड़े बिना मुकाम किये दो रोज़ में चुनार के पास पहुंचे। शाम के वक़्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ थे इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुंचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि जाकर मुलाकात के लिए बातचीत करे।

फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कर कुछ ही दूर गये होंगे कि सामने से महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े, जिन्हें देख अटक गये, कलेजा धक-धक करने लगा। जब वे लोग पास आ गये तो पूछा, ‘‘क्या हाल है, जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?’’

एक सरदार : कुछ मत पूछो, बड़ी आफत आ पड़ी है।

फतहसिंह : (घबराकर) सो क्या?

दूसरा सरदार : राजा साहब के पास चलो, वहीं सब कुछ कहेंगे।

इन सभी को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये। कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘आज बहुत सवेरे किले के अन्दर से तोप की आवाज़ आई जिसे सुन खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में गया। दरवाज़े पर पहरे वालों को बेहोश पड़े हुए देख कर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अन्दर चला गया। अन्दर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराजजी ने कहा कि इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरन्त ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गये मगर अभी तक कुछ भी खबर न मिली।’’

यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा, ‘‘अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी युक्ति से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि खास महाराज के खाने-पीने की चीज़ों में बेहोशी की दवा दी गई है। अगर उनका रसोइया आये तो पूरा पता लग सकता है।’’

कई चोबदार दौड़ गये। बहुत दूर जाने की ज़रूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ-ही-साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्दी लौट आयें कि रसोइया कोई भी नहीं है। उसी वक़्त कई आदमियों ने आकर यह खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहां लिये आते हैं।

दीवान जीतसिंह ने कहा, ‘‘सब डोलियां बाहर रक्खी जायें सिर्फ एक रसोइए की डोली यहां लाई जाये।’’

बेहोश रसोइया खेमे के अन्दर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलखा सुंघाकर उसे होश में लाये और उसके बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा ‘‘कि पहर रात गये हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिये हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज़ और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था, हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुध न रही, इसके बाद क्या हुआ मालूम नहीं।’’

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, ‘‘बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे पर जाओ। इसके बाद थोड़ा-सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी विदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघा कर आप उन लोगों को होश में लाइये जो बेहोश हैं, और दीवान हरदायलसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी विदा कर दिये गये। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह : (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

जीतसिंह : क्या फिक्र की जाये, कोई ऐयार भी यहां नहीं है जिससे कुछ काम लिया जाये, तेज़सिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गये हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

राजा : तुम ही कुछ तरकीब करो।

जीतसिंह : भला मैं क्या कर सकता हूं, मुद्दत हुई, ऐयारी छोड़ दी। जिस दिन तेज़सिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नज़र किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है तो ताबेदार को यकीन नहीं कि काम को कर पाऊँगा या नहीं। मेरे पास तो अब ऐयारी का बटुआ तक नहीं है।

राजा : तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक़्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसकी कुछ-न-कुछ सामान ज़रूर अपने साथ लाये होगे!

जीतसिंह : (मुस्कुराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सुर में!

राजा : तब फिर क्या सोचते हो, इस वक़्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जीतसिंह को छुड़ाओ।

जीतसिंह : जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक़्त हुई हैं छिपाये रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज रात भर लड़ाई बन्द न होने पाये, यह काम आपके ज़िम्में रहा।

हरदयालसिंह : बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

जीतसिंह : आप जाकर लड़ाई का इन्तज़ाम कीजिए, मैं भी महाराज से विदा हो अपने डेरे में जाता हूं, क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से विदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा-बुझा के विदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गये। पहले पूजा-भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बुड्ढा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके चलने का इन्तज़ाम इसी बुड्ढे के सुपुर्द किया था। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब इन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि ऐयार लोग कुमार की खोज में गये हैं, शायद कोई ज़रूरत पड़ जाये तब बहुत सी बातों को सोच उन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ लेना मुनासिब समझा था। उसी बुड्ढे खिदमतगार से ऐयारी का सन्दूक मंगवाया और सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था उसे भी एक शीशी में बन्द कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहा तब सब सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान में जाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम, दवात और काग़ज़ निकाला और कुछ लिखने लगे, जिसका मतलब यह था

‘‘तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अन्दर घुस ही आया। देखो, क्या ही आफत मचाता हूं। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।’’

इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई, अस्तु किले के इधर-उधर घूमने लगे। जब खूब अंधरे हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर, जो नीची और टूटी हुई थी, कमन्द लगाकर चढ़ गये। अन्दर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रक्खी थी, दनादन तोपों की आवाज़ें आ रही थी, किले की फौज़ बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थे और बहुत-से आदमी भी दरवाज़े की तरफ खड़े घबराये हुए लड़ाई का नतीज़ा देख रहे थे; इस सबब से जीतसिंह को घूमने का कुछ मौका मिला।

उन पुर्जों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था इधर-उधर दीवारों और दरवाज़ों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर अपना काम करते, यहां तक कि सब काग़ज़ों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं, सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सरताज जीतसिंह किले के अन्दर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लम्बे-चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहां क़ैद हैं इस बात का पता लगायें और फिर उन्हें छुड़ाये और साथ ही शिवदत्त के ऐयारों को भी गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पाये जो फंसे हुए ऐयारों की फिक्र करे या छुड़ाये।

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