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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवां बयान

तेजसिंह को तिलिस्म में से खज़ाने के सन्दूकों को निकलवा कर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लग गये क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इन्तजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन बाकी रहता, तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बन्द रही।

एक रात कुमार अपने पलंग पर सोये हुए थे। आधी रात जा चुकी थी, कुमारी चन्द्रकान्ता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी, कभी जागते, कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहां तक जमाया कि सुबह क्या दो घड़ी दिन चढ़े तक आंख खुलने न दी।

जब कुमार की नींद खुली तो अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोए हुए थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था, बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे में पाया। देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है जिसमें तीन तरफ संगमरमर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाज़े हैं जो इस समय बन्द हैं। दीवारों पर कई दीवारगीरें लगी हुई हैं। जिसमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमबत्तियाँ जल रही हैं। उनके ऊपर चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लम्बी दीवार के बीचोबीच में एक तस्वीर आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटें में जड़ी दीवर के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दौड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आकर अटक गई। सोचने लगे, बल्कि धीमी आवाज़ में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने बगल में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो–

‘‘‘अहा! इस तस्वीर से बढ़कर इस दीवारखाने में कोई चीज़ नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है! वाह, क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है!’’

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये। दीवानखाने के दरवाज़े बन्द थे मगर हर दरवाज़े के ऊपर छोटे-छोटे मोटे (सुराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टोटियाँ लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लम्बी चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसके देखने के लिए कुमार पलंग पर से उतर कर उसके पास गये थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चन्द्रकान्ता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को पास खड़ा हो, सुना रहे हों।

‘‘अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी है। इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आंखें हैं जिनमें काग़ज़ की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। आहा, गालों का गुलाबीपन कैसे दिखलाया है, बारीक होंठो में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में बाले, माथे पे बिंदी और नाक में नथ तो पड़ी ही हुई है मगर यह गले का गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच में चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुन्दन की उभाड़ में तो हर दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। गोप क्या, सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों में बाजूबन्द, कंगन, छत्र, पहुंची, अंगूठी, सभी चीज़ें अच्छी बनाई हैं, और देखो, एक बगल चपला और दूसरी तरह चम्पा क्या मजे में अपनी ठुड्डियों पर उंगली रखे खड़ी हैं!’’

‘‘हाय चन्द्रकान्ता कहां होगी!’’ इतना कह एक लम्बी सांस से एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

ऊपर की तरफ कहीं से पायजेब की छन्न से आवाज़ आयी जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियाँ थीं जो सब-की-सब बन्द थी। तब यह आवाज़ कहां से आई? इस घर में कौन औरत है? इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशहवाश में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे–

‘‘हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन मुझे उठा लाया। उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो प्यारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह सब बातें स्वप्न में देखता होऊं? ज़रूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलंग पर सो रहें।

यह सोच फिर उसी पलंग पर आ के लेट गये, आंखें बन्द कर लीं मगर नींद कहां आती है। इतने में फिर पायजेब की आवाज़ ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफे उठते ही सीधे दरवाज़े की तरफ गये और सातों दरवाजों को धक्का दिया, सब खुल गये। एक छोटा-सा हरा-हार बाग दिखाई पड़ा। अनुमान के अनुसार उस समय पहर भर दिन चढ़ चुका होगा।

यहां बाग बिलकुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधे तालाब के पास चले गये जो पूरी तरह पत्थर का बना हुआ था। उसके एक तरफ खूबसूरत सीढ़ियाँ उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुंची हुई थी और पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमरमर के चबूतरे बने हुए थे। बाईं तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोटीदार चांदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तों पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था। बंगल में एक छोटी-सी चांदी की चौकी पर धोती और गमछा पहनने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमरमर के चबूतरे पर चांदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धरा हुआ था। छोटे-छोटे कई जड़ाऊ पंचपात्र, तष्टी, कटोरियां सब साफ की हुई रखी थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहां आ पहुंचे? उन्हें कौन लाया इस जगह? उसका नाम क्या है, तथा वह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक काग़ज़ चिपका हुआ नज़र पड़ा। उसके पास गये, देखा, कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था–

‘‘कुंवर वीरेन्द्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे वास्ते है। इसी बावली में नहाओं और इन चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।’’

कुमार और भी सोच में पड़ गये कि यह क्या, इंतजाम तो इतना लम्बा-चौड़ा किया गया है मगर आदमी कोई भी नज़र नहीं पड़ता। ज़रूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी। मगर दिखाई नहीं पड़ती। अच्छा, इस बाग में पहले घूम कर देख लें कि क्या-क्या है। फिर नहाना–धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाज़ा नज़र पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जायेंगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहां क्यों लाया, जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से जाने को जी कैसे चाहेगा? यही सोचकर कुमार बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आंखे खुली थीं वह बाग के पश्चिमी तरफ था। पूर्वी तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक़्त नेज़े के बराबर ऊंचा आ चुका था। घूमते हुए बाग के उत्तरी तरफ पहुंचे जहां एक और कमरा नज़र पड़ा जो पूर्वी तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें, मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाज़े बन्द थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिणी तरफ पहुंचे। एक छोटी-सी कोठरी पर नज़र पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उस जगह पर लकड़ी की चौकी पर पानी भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज़्यादा चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबराई हुई थी। आखिर सोच-विचार कर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गये, इसके बाद बावली में हाथ-मुंह धोया। सीढ़ियां के ऊपर जामुन के पेड़ के तले चौकी पर बैठकर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमरमर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठकर सन्ध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आये जिसमें सोते से आंख खुली थी और कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर देखी, मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बन्द पाये, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दालान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबरा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठंडी जगह मिले तो आराम किया जाये। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसके किवाड़ पहर भर पहले बन्द पाये थे। वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, वे अन्दर चले गये।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमरमर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई धोकर इसे साफ कर गया है। बीच में एक कश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। उसके आगे कई तरह की भोजन की चीज़े चांदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक चिट्ठी भी पड़ी हुई थी जिसे कुमार ने उठाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था–

‘‘आप किसी तरह घबरायें नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहां हर तरह से आपकी खातिर की जायेगी। इस वक़्त भोजन करके बगल की कोठरी में जहां आपके लिए पलंग बिछा है कुछ देर आराम करें।’’

इसे पढ़कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए? भूख ज़ोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों के खाने का जी नहीं चाहता, और कुछ पता भी नहीं लगता कि मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिपकर हमारी खातिरदारी की चीज़ें तैयार कर रहा है? यह भी मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहां खाने को बनता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते जाते हैं? उन लोगों को जब इसी तरह छिपे रहना मंज़ूर था तो मुझे यहां लाने की ज़रूरत क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहां तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया। आखिर कब तक भूखे रहते, लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोचकर रुक गये और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के हाथ खींचे जाने से बड़े ज़ोर के साथ हंसने की आवाज़ आई जिसे सुनकर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर कई खिड़कियाँ दिखाई पड़ी मगर कोई आदमी नज़र न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ गौर से देख ही रहे थे कि एक आवाज़ आई–

‘‘आप भोजन करने में देर न कीजिए, कोई खतरे की जगह नहीं है।’’ भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार होकर खाने लगे। सब चीज़ें एक-से-एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था। अपने हाथ से लोटा उठा हाथ धोये और बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलंग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेटकर वह तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने में उसने क्या फायदा सोचा है? यों कब तक पड़े रहने होगा वहां लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गये।

दो घण्टे रात बीते तक कुमार सोते रहे। इसके बाद बीन की और उसके साथ ही किसी के गाने की आवाज़ कान में पड़ी, झट आंखें खोल इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह वह कमरा नहीं है जिसमें भोजन करके सोये थे, बल्कि इस समय अपने को निहायत खूबसूरत सजी हुई बारहदरी में पाया जिसके बाहर से बीन और गाने की आवाज़ आ रही थी।

कुमार पलंग पर से उठे और बाहर आकर देखने लगे। रात बिल्कुल अंधेरी थी मगर रोशनी खूब हो रही थी जिससे मालूम पड़ा कि यह वह बाग नहीं हैं जिसमें दिन को स्नान और भोजन किया था।

इस वक़्त यह नहीं मालूम होता था कि बाग कितना बड़ा है क्योंकि इसकी दूसरी तरफ दीवार बिलकुल नज़र नहीं आ रही थी। बड़े-बड़े दरख्त भी इस बाग में बहुत थे। रोशनी खूब हो रही थी। कई औरतें जो कमसिन और खूबसूरत थीं टहलती और कभी-कभी गाती और बजाती हुई नज़र पड़ीं जिनका तमाशा दूर से खड़े हुए कुमार देखने लगे। वे सब आपस में हंसती और ठिठोली करती हुई एक रविश से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर घूम ही थीं। कुमार का दिल न माना और ये धीरे-धीरे उनके पास जाकर खड़े हो गये।

वे सब कुमार को देखकर रुक गईं और आपस में कुछ बातें करने लगीं, जिसे कुमार बिल्कुल नहीं समझ सकते थे, मगर उनके हाव-भाव से मालूम होता था कि वे कुमार को देखकर ताज्जुब कर रही हैं। इतने में एक औरत आगे बढ़कर कुमार के पास आई और उनसे बोली, ‘‘आप कौन हैं और बिना हुक्म इस बाग में क्यों चले आये?’’

कुमार ने उसे नजदीक से देखा तो निहायत हसीन और चंचल पाया। जवाब दिया, ‘‘मैं नहीं जानता कि यह बाग किसका है? अगर हो सके तो बताओ कि यहां का मालिक कौन है?’’

औरत : हमने जो कुछ पूछा है पहले उसका जवाब दे दो, फिर हमसे जो पूछोगे सो बता देंगे।

कुमार : मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि मैं यहां क्योंकर आ गया!

औरत : क्या खूब! कैसे सीधे-साधे आदमी हैं! (दूसरी औरत की तरफ देखकर) बहन, ज़रा इधर आना, कैसे भोले-भाले चोर इस बाग में आ गये हैं जो अपने आने का सबब भी नहीं जानते!

उस औरत के आवाज़ देने पर सभी ने आकर कुमार को घेर लिया और पूछना शुरू किया, ‘‘ सच बताओ तुम कौन हो और यहां क्यों आये?’’

दूसरी औरत : इनकी कमर में तो हाथ डालो, देखो कुछ चुराया तो नहीं है।

तीसरी : ज़रूर, कुछ-न-कुछ चुराया होगा।

चौथी : अपनी सूरत इन्होंने कैसी बना रक्खी है, मालूम होता है किसी राजा ही के लड़के हैं।

पहली : भला यह तो बताइये कि ये कपड़े आपने कहां से चुराये?

इन सभी की बातें सुनकर कुमार बड़े हौरान हुए। जी में सोचने लगे कि अजब आफत में आ फंसे, कुछ समझ में नहीं आता, ज़रूर इन्हीं लोगों की बदमाशी से मैं यहां पहुंचा और यही लोग अब मुझे चोर बनाती हैं। यों ही कुछ देर तक सोचते रहे, इसके बाद फिर बातचीत होने लगी।

कुमार : मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझे यहां लाकर रक्खा है?

एक औरत : हम लोगों को क्या गरज़ थी जो आपको यहां लाते या आप ही खुश होकर हमें क्या देंगे जिसकी उम्मीद से हम लोग ऐसा करते? अब यह कहने से क्या होता है, ज़रूर चोरी की नीयत से ही आप आये हैं।

कुमार : मुझको यह भी मालूम नहीं कि यहां आने या यहां से जाने का रास्ता कौन-सा है? अगर यह भी बतला दो तो मैं यहां से चला जाऊँ।

दूसरी : वाह, बेचारे क्या अनजान बनते हैं। यहां तक आये भी और रास्ता भी नहीं मालूम।

तीसरी : बहन, तुम नहीं समझतीं, यह चालाकी से भागना चाहते हैं।

चौथी : अब इनको गिरफ्तार करके ले चलना चाहिए।

कुमार : भला मुझे कहां ले चलोगी?

एक औरत : अपने मालिक के सामने।

कुमार : तुम्हारे मालिक का क्या नाम है?

एक : ऐसी किसकी मजाल है जो हमारे मालिक का नाम ले!

कुमार : क्या अपने मालिक का नाम बताने में भी कुछ हर्ज़ है?

दूसरी : हर्ज़! नाम लेते ही जुबान कटकर गिर पड़ेगी!

कुमार : तो तुम लोग अपने मालिक से बातचीत कैसे करती होगी?

दूसरी : मालिक की तस्वीर से बातचीत करते हैं, सामना नहीं होता।

कुमार : अगर कोई पूछे की तुम किसकी नौकर हो तो कैसे बताओगी?

तीसरी : हम लोग अपनी मालिक राजकुमारी की तस्वीर अपने गले में लटकाए रहती हैं जिससे मालूम होता है कि हम सब फलां की लौंडी हैं।

कुमार : तो क्या यहां कई राजकुमारियां हैं जो लौंडियां की पहचान में गड़बड़ी हो जाने का डर है?

पहली : नहीं, यहां सिर्फ दो राजकुमारियां हैं और दोनों के यहां यहीं चाल है, कोई अपने मालिक का नाम नहीं ले सकता। जब पहचान की ज़रूरत होती है तो गले की तस्वीर दिखा दी जाती है।

कुमार : भला मुझे भी वह तस्वीर दिखाओगी?

‘‘हां हां, लो देख लो!’’ कहकर एक ने अपने गले की छोटी-सी तस्वीर जो धुकधुकी की तरह लटक रही थी निकालकर कुमार को दिखाई जिसे देखते ही उनके होश उड़ गये। ‘‘हैं, यह तस्वीर तो कुमारी चन्द्रकान्ता की है तो क्या ये सब उन्हीं की लौंडी हैं। नहीं-नहीं, कुमारी चन्द्रकान्ता यहां भला कैसे आयेगी? उनका राज्य तो विजयगढ़ है। अच्छा पूछें तो यह मकान किस शहर में है?’’

कुमार : भला यह तो बताओ कि इस शहर का क्या नाम है जिसमें हम इस वक़्त हैं?

एक : इस शहर का नाम चित्रनगर है क्योंकि सभी के गले में कुमारी की तस्वीर लटकती रहती है।

कुमार : और इस शहर का यह नाम कब से पड़ा?

एक : हज़ारों वर्षों से यही नाम है और इसी ढंग की तस्वीर कई पुश्त से हम लोगों के गले में है। पहले मेरी परदादी को सरकार से मिली थी, होते-होते अब मेरे गले में आ गई।

कुमार : क्या तब से ही यह राजकुमारी यहां का राज्य करती आई हैं, कोई इनका मां-बाप नहीं है?

दूसरी : अब यह सब हम लोग क्या जानें, कुछ राजकुमाकरी से तो मुलाकात होती नहीं जो मालूम हो कि यही हैं या दूसरी, जवान हैं या बुड्ढी हो गईं।

कुमार : तो कचहरी कौन करता है?

दूसरी : एक बड़ी सी तस्वीर हम लोगों की मालिक राजकुमारी की है, उसी के सामने दरबार लगता है। जो कुछ हुक्म होता है उसी तस्वीर से आवाज़ आती है।

कुमार : तुम लोगों की बातों ने मुझे पागल बना दिया। ऐसी बातें करती हो जो कभी मुमकिन ही नहीं अक्ल में नहीं आ सकतीं। अच्छा, उस दरबाज़े में मुझे भी ले जा सकती हो?

औरत : इसमें कहने की कौन सी बात है। आखिर आपको गिरफ्तार करके उसी दरबार में तो ले चलना है, आप खुद ही देख लीजिए।

कुमार : जब तुम लोगों का मालिक कोई नहीं, या अगर है भी तो एक तस्वीर तब हमने उसका क्या बिगाड़ा है? क्यों हमें बांध के ले चलोगी?

औरत : हमारी राजकुमारी सभी की नज़रों से छिपकर अपने राज्य भर में घूमा करती हैं और अपने मकान के बगीचों की सैर किया करती हैं, मगर किसी की निगाह उन पर नहीं पड़ती। हमलोग रोज़ बाग और कमरों की सफाई करती हैं और रोज़ ही कमरों के सामान, फर्श, पलंग के बिछौने वरैगह ऐसे हो जाते हैं जैसे किसी के प्रयोग में आये हों। वह रौंदे जाते और मैले भी हो जाते हैं इससे मालूम होता है कि हमारी राजकुमारी सभी की नज़रों से छिपकर घूमा करती हैं!

जिनकी हज़ारों बरस की उम्र है, और इसी तरह हमेशा जीती रहेंगी।

दूसरी : बहन, तुम इनकी बातों का जवाब कब तक देती रहोगी? ये तो इसी तरह जान बचाना चाहते हैं।

पहली : नहीं नहीं, ये ज़रूर किसी रईस बल्कि राजा के लड़के हैं, इनकी बातों का जवाब देना मुनासिब है और इनको इज्जत के साथ क़ैद करके दरबार में चलना चाहिए।

तीसरी : भला इनका और इनके बाप की नाम-धाम भी तो पूछ लो कि इसी तरह राजा का लड़का समझ लोगी। (कुमार की तरफ देखकर) क्यों जी, आप किसके लड़के हैं और आपका क्या नाम है?

कुमार : मैं नौगढ़ के महाराज सुरेन्द्रसिंह का लड़का वीरेन्द्रसिंह हूं।

इनका नाम सुनते ही वे खुश होकर आपस में कहने लगीं, ‘‘वाह इनको तो ज़रूर पकड़ कर ले चलना चाहिए, बहुत कुछ इनाम मिलेगा, क्योंकि इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए तो सरकार की तरफ से मुनादी की गई थी, इन्होंने बड़ा भारी नुकसान किया है, सरकारी तिलिस्मी तोड़ डाला और खज़ाना लूट कर घर ले गये। अब इनसे बात न करनी चाहिए। जल्दी इनके हाथ पैर बांधों और इस वक़्त सरकार के पास ले चलो। अभी रात नहीं गई है, दरबार होता होगा, देर हो जायेगी तो कल दिन भर इनकी हिफाज़त करनी पड़ेगी क्योंकि हमारे सरकार का दरबार रात को होता है।’’

इन सभी की ये बातें सुन कुमार की तो अक्ल चकरा गयी। कभी ताज्जुब, कभी सोच, कभी घबराहट से इनकी अजब हालत हो गयी। आखिर उन औरतों की तरफ देख कर बोले, ‘‘फसाद क्यों करती हो, हम तो आप ही तुम लोगों के साथ चलने को तैयार हैं, चलो देखें, तुम्हारी राजकुमारी का दरबार कैसा है?’’

एक : जब आप खुद ही चलने को तैयार हैं तब हम लोगों को ज़्यादा बखेड़ा करने की क्या ज़रूरत है, चलिए।

कुमार : चलो।

वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे, चार पीछे हो उनको लेकर रवाना हुईं और एक कहकर चली गई कि मैं जाकर खबर करती हूं कि फलां डाकू हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियां लिये आती हैं।

वे सब कुमार को लिये बाग के एक कोने में गईं जहां दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाज़ा नज़र पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ़ एक सफेद हांडी जल रही थी। वे सब कुमार को लिये हुए इसी दरवाज़े में घुसीं। थोड़ी दूर जाकर दूसरा बाग जो बहुत सजा था, नज़र पड़ा, जिसमें हद से ज़्यादा रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथों में सोने-चांदी के आसे लिये हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके अलावा और भी बहुत से आदमी घूमते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की। ये सब कुमार को लिये हुए बराबर धड़धड़ाती हुई एक भारी दीवानखाने में पहुंची जहां की सजावट और कैफियत देखकर कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चन्द्रकान्ता सिर पर मुकुट धरे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिन्दा शेर बैठे हुए हैं। जो कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमत पोशाकें पहने सिंहासन के सामने दोपट्टी कतार बांधे सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया था, सब चुप मारे बैठे थे।

चन्द्रकान्ता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देखकर एक बार तो कुमार पर भी रौब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गये, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाज़िर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज़ आई , ‘‘ये कौन हैं?’’

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया, ‘‘ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गये हैं और पूछने से मालूम होता है कि इनका नाम वीरेन्द्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है’’। फिर आवाज़ आई , ‘‘अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक़्त इन्हें ले जाकर हिफाज़त से रखो, फिर हुक्म पाकर दरबार में हाज़िर करना।’’

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जाकर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था, मगर कुमार अपने खयाल में डूबे हुए थे नये बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और भी अचम्भे में डाल दिया था। गर्दन झुकाए सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखी उनका तो पता लगा ही नहीं, इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर और आगे दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गर्दन झुकाए लौंडियों के साथ चले गये, इसका कुछ भी खयाल नहीं कि कहां जाते हैं, कौन लिये जाता है कैसे सजे हुए मकान में बैठाए गये हैं?

ज़मीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिये के सिवाय और भी कई तकिये पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गये और दो घंटे तक सिर झुकाए ऐसा सोचते रहे कि तन-बदन की बिलकुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘‘क्या हुक्म होता है?’’ जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी मांगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एक दम उनके दिमाग तक ठंडक पहुंच गई, साथ ही आंखों में झपकी आने लगी और धीरे-धीरे बिलकुल बेहोश होकर उसी गद्दी पर लेट गये।

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