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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

पांचवां बयान

‘‘चन्द्रकान्ता को ले जाकर कहाँ रक्खा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी? खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुंह दुःख और गम से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग आकर जान दे दी हो!’’ इन्हीं सब बातों को सोचते और खयाल करते कुमार को रात भर नींद न आई। सवेरा हुआ ही चाहता था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज़ आई। मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है, कुमार उठ बैठे, हाथ-मुंह धोये, इतने में हरकारे ने आकर खबर दी कि ‘‘दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है’’ कुमार ने कहा, ‘‘हमारे यहां भी जल्द तैयारी की जाये।’’ हुक्म पाकर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-संध्या से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौज़ें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी। कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में आ गये और देवीसिंह से कहा, ‘‘शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून करना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमण्ड हो एक पर एक लड़के जल्दी मामला तय कर ले। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूँ, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाये?’’ देवीसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तय कर डालता हूँ।’’ यह कह मैदान में गये और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफे उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवदत्त के लश्कर से निकलकर मैदान में देवीसिंह के पास आये और बोले, ‘‘जय माया की!’’ देवीसिंह ने भी जवाब दिया, ‘‘जय माया की!’’ बद्रीनाथ ने पूछा, ‘‘क्यों क्या है जो मैदान में आकर ऐयारों को बुलाते हो?’’

देवी : तुमसे एक बात कहनी है।

बद्री : कहो।

देवी : तुम्हारी फौज़ में मर्द बहुत हैं कि औरत?

बद्री : औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती!

देवी : तुम्हारे यहाँ कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले हैं?

बद्री : हमारे यहां खंचियों बहादुर भरे हैं।

देवी : तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हो।

बद्री : यह तो मुकाबला होने से ही मालूम होगा।

देवी : तो क्यों नहीं, एक-से-एक लड़ के हौसला निकाल लेते। ऐसा करने से भी मामला जल्द तय हो जायेगा, और बेचारे सिपाहियों की भी जाने मुफ्त में न जायेंगी! हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी पर बड़ा भरोसा है, आवें पहले हमसे ही भिड़ जायें, वही जीत जायें या हम ही चुनार की गद्दी के मालिक हों, बात-की-बात में मामला तय होता है।

बद्री : तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी में मसल डालेंगे।

देवी : यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आवें मैदान में!

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौटकर अपनी फौज़ में गये और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जाकर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गये और बोले, ‘‘यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है!’’ बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘फिर हिंयाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहाँ तक समझता हूँ उनका कहना ठीक है!’’ यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा के मैदान में आ गये और भाला उठाकर हिलाया, जिसको देख वीरेन्द्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुंचकर ललकारा, ‘‘अपने मुंह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूँ? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़कर चन्द्रकान्ता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर!!’’ वीरेन्द्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में जा लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर कुमार पर से नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छिटक के दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन, दोनों तरफ से ‘वाह वाह’ की आवाज़ आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकालकर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, बाद दोपहर कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी होकर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूदकर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा, मगर मतलब समझकर कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे होकर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूट जमीन पर गिर पड़ी जिसको दौड़कर देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त हैं, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो बेशक मारे जायेंगे या पकड़े जायेंगे। यह सोच अपनी फौज़ को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को दुश्मनों ने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज़ ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुंचे और तलवार तथा खंजर चलाने लगे। दोनों फौज़ें आपस में खूब गुंथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ न बन पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गये। शाम को उतारे (युद्धबंदी) का डंका बजा और लड़ाई बन्द हुई। फौज़ ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आये मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गये थे। रात को सभी ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली कि अब क्या करना चाहिए। फौज़ तो वीरेन्द्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उसकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़के बहुत जक उठायी। हमारी तो यह राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सभी ने पसन्द किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज़ पर पांच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया, बड़ा ही गड़बड़ मचा, अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज़ दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेन्द्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आये, देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब* जलाने के लिए बांटी। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थी। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था! कुल पांच सौ आदमियों का मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पांच सौ आदमी मारे गये मगर रोशनी होने से पहले करीब हज़ार आदमी कुमार की तरफ के नुकसान हो चुके थे जिसका रंज वीरेन्द्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह को लड़ाई बन्द न होने दी। (*फौज़ में बहुत से बनाजे जाते थे, इसलिए कि शायद रात को लड़ाई हो तो रोशनी री जाये।)

दोनों फौज़ें फिर गुंथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और सन्ध्या-पूजा करके हरवों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज़ में घुस गये। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तन-बदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उत्तर के कोने से कुछ फौज़ी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिये जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहने अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था, उसके पीछे और भी जो करीब-करीब पांच सौ के होंगे घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरवों से मालूम होता था कि यह इन सभी का सरदार है। यह सरदार मुंह पर नकाब* डाले हुए था और उसके साथ जितने सवार पीछे चल रहे थे उन लोगों के मुंह पर भी नकाबें पड़ी हुई थीं। (* नकाब एक कपड़े का नाम है जो मुंह पर परदे की तरह पड़ा रहता है, इसे पीछे की ओर डोरी से बांधते हैं, आंखों की जगह खाली रहती है।)

इस फौज़ ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज़ पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेन्द्रसिंह की फौज़ ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और दोस्त आ पहुंचा तो उनका हौसला बढ़ गया और वे पूरी ताकत से लड़ने लगे दो तरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज़ सम्भाल न सकी और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आये, मगर हैरान थे कि नकाबपोश सवार कौन थे जिन्होंने बड़े वक़्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। कोई किसी की जरा मदद करता है तो एहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह तो बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा, मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का ढेर सारा माल खज़ाना और खेमा कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चिन्त हुए तो उन्होंने देवीसिंह से पूछा, ‘‘क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की?’’ देवीसिंह ने कहा, ‘‘मेरे कुछ भी खयाल में नहीं आता, मगर वाह! बहादुरी इसको कहते हैं!!’’ इतने में एक जासूस ने आकर खबर दी कि दुश्मन लोग थोड़ी दूर जाकर ठहर गये हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

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