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चन्द्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

चौदहवां बयान

नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियां चन्द्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जा-बजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फंस जाइएगा! कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आये और किधर जाएंगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बन्दर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी-नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊंची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिन्दों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।

उन ऐयारों ने जो चुनार से क्रूर और नाज़िम के संग आये थे, शहर में न आकर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग-अलग जाकर ऐयारी करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफे सब कोई अलग-अलग भेष बदलकर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आवें तथा चाल-चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फ़र्क़ न पड़े। इस राय को सभी ने पसन्द किया नाज़िम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया! वे ऐयार लोग तरह-तरह के भेष बदलकर महल में भी घुस आये और सब कुछ देख-भाल आये, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख-भाल न लेते।

जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गये तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेन्द्रसिंह को फंसाने के लिए चला। वहां पहुंचकर जिस कमरे में वीरेन्द्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुंच पहरे वाले से कहा, ‘‘जाकर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।’’ उस प्यादे ने जाकर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुंवर वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियां निकाल रहे थे, बीच-बीच में ऊंची सांस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आकर अर्ज किया-‘‘पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई हैं और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है? कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश होकर बोले, ‘‘उसे जल्दी अन्दर लाओ।’’ हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चन्द्रकान्ता का हाल पूछा। चपला ने कहा, ‘‘अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कहा करती हैं कि बड़े बेमुरौवत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबड़ाकर मुझको भेजा है और यह दो नासपातियां अपने हाथ से छील-काटकर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।’’ वीरेन्द्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चन्द्रकान्ता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गये, भले-बुरे की कुछ तमीज न रही, चन्द्रकान्ता की कसम कैसे टालते, झट नासपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुंह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गये। ललकार कर बोले, ‘‘खबरदार, मुंह में मत डालना!’’ इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह रुक गये और बोले, ‘‘क्यों क्या है?’’ 

तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं जाती बार हज़ार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको खयाल न हुआ! कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी! आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार! बस सामने रण्डी को देख मीठी-मीठी बातें सुन मजे में आ गये!’’

तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेन्द्रसिंह तो शर्मा गये और चपला के मुंह की तरफ देखने लगे!मगर नकली चपला से न रहा गया, फंस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेन्द्रसिंह भी जान गये कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊंचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाये कि तेजसिंह ने आवाज दी, ‘‘हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जायेगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।’’ यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बांध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूंस बेहोश किया और गठरी में बांध किनारे रख बातें करने लगे।

तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा, ‘‘देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।’’ कुमार बहुत शर्मिन्दा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह के नाम लिखी थी। कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले, ‘‘अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।’’ इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।

सवेरा हुआ चाहता था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को क़ैद कर आये थे। तहखाने का दरवाजा खोल अन्दर गये, टहलते-टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाये बैठे हैं। तेजसिंह को देखकर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रक्खा है?’’ तेजसिंह ने हंसकर जवाब दिया, ‘‘अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जायें, मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इन्साफ पसन्द सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।’’

हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई उज्र नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रखकर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?’’

तेजसिंह: मैं आपकी सूरत बनाकर आपके जनाने में नहीं गया इससे आप खातिर ज़मा रखिए।

हरदयालसिंह : तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था! खैर, हाल कहो।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयाल के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिये और अब खुलासा हाल कह कर बोले, ‘‘अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी लेकर दरबार में जाइए, राजा से मुझको मांग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूं, नहीं तो वे ऐयार जो चुनार से आये हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चलकर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज़्यादा खयाल रखियेगा, एक यह कि जहां तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिन्दुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिये और महाराज से बारबर उनकी तारीफ किया कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलावें!’’

हरदयालसिंह ने कसम खाकर कहा, ‘‘मैं हमेशा तुम लोगों का खैरख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज़्यादा कर दिखाऊंगा।’’

तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाये। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।

ऐयार होने के कारण चुनार के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आये, हरदयाल से कहा कि, ‘‘मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊंगा।’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘इसमें मुझको कुछ उज्र नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूं, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देखकर क्या करूंगा?’’

तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बाहर लाये और होश में लाकर बोले, ‘‘अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।’’ उन्होंने वैसा ही किया।

शहर में आकर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग होकर अकेले राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ लेकर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेन्द्रसिंह चिट्ठी पढ़कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देखकर बोले, ‘‘मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ उज्र नहीं, तेजसिंह आपके साथ जायेगा।’’ यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।

दीवान हरदयालसिंह की मेहमानी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत मांगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा-बुझाकर दीवान साहब के संग किया।

बड़े साज-सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेन्द्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत देकर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि, ‘‘इनके रहने के लिए मकान का बन्दोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानी का बोझ अपने ऊपर समझो।’’

दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहले वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इन्तजाम कर दिया जो सब हिन्दू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए, दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।

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