नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
दयानाथ– वह मुझसे नहीं हो सकता।
रमानाथ– हूँ…हूँ…
दयानाथ– कोई बात सूझी?
रमानाथ– मुझे तो कुछ नहीं सूझता।
दयानाथ– कोई उपाय– सोचना ही पड़ेगा।
रमानाथ– आप ही सोचिए, मुझे तो नहीं सूझता।
दयानाथ– क्यों नहीं उससे दो– तीन गहने माँग लेते? तुम चाहो तो ले सकते हो।
रमानाथ– हमारे लिए मुश्किल है। शर्म आती है।
दयानाथ– तुम विचित्र आदमी हो। न खुद माँगोगे, न माँगने दोगे; तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता। इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते? तुम्हीं अपनी माँ से पूछो।
जागेश्वरी– मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पड़ा रहे और मैं गहने पहने बैठी रहूँ। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते! एक– एक करके सब निकल गये। विवाह में पाँच हजार से कम चढ़ाव नहीं गया था; मगर पाँच ही साल में स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी न नसीब हुआ।
दयानाथ– शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें माँगना पड़ेगा।
रमानाथ– मैं माँग तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊँ।
दयानाथ– (चकित) उठा लाओगे; उससे छिपा कर!
रमानाथ– (तीव्रता से) और आप क्या समझ रहे हैं!
(क्षणिक सन्नाटा)
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