नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
(गला रुँधता है पर तभी देवीदीन दबे पाँव आ कर खड़ा हो जाता है। बुढ़िया उसे देखते ही तड़प उठती है—)
जग्गो—यह इतने सबेरे किधर सवारी गयी थी सरकार की?
देवीदीन—(मुस्करा कर) कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।
जग्गो—क्या काम था जरा मैं भी सुनूँ, या मेरे सुनने लायक नहीं है?
देवीदीन—पेट में दरद था। जरा वैद्य जी के पास चूरन लेने गया था।
जग्गो—झूठे हो तुम। उड़ो उससे जो तुम्हें न जानता हो। चरस की टोह में गये थे तुम।
देवीदीन—नहीं, तेरे चरन छू कर कहता हूँ। तू झूठ– मूठ मुझे बदनाम करती है।
जग्गो—तो फिर कहाँ थे तुम?
देवीदीन—बता तो दिया। रात में खाना दो कौर ज्यादा खा लिया था, सो पेट फूल गया और मीठा– मीठा…
जग्गो—झूठ है, बिलकुल झूठ बहाना है। यह चरस, गाँजा, इसी टोह में गये थे तुम। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे की सूझती है। यहाँ मेरा मरन हुआ जाता है।
(देवीदीन झाड़ उठाता है पर जग्गो उसे छीन लेती है)
तुम अब तक थे कहाँ? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूँगी।
देवीदीन—(सिटपिटा कर) क्या करेगी पूछ कर। एक अखबार के दफ्तर में गया था। जो चाहे कर ले।
जग्गो—(माथा ठोक कर) हाय राम! तुमने फिर वही लत पकड़ी। तुमने कान पकड़ा था कि अब कभी अखबारों के नगीच न जाऊँगा। बोलो, यह मुँह था कि कोई और?
देवीदीन—तू बात तो समझती नहीं, बस बिगड़ने लगती है।
जग्गो—खूब समझती हूँ। अखबारवाले दंगा मचाते हैं और गरीबों को जेहल ले जाते हैं। आज बीस साल से देख रही हूँ। वहाँ जो जाता है, पकड़ लिया जाता है।
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