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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


रमानाथ—(भाव पलट जाते हैं) यह बात तो नहीं है, दादा, कि सभी पढ़े– लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं रखते। उनमें से कितने ही खुद किसान थे या हैं। उन्हें अगर विश्वास हो जाय कि हमारे कष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी वह किसानों के लिए खर्च की जायगी तो वे खुशी से कम वेतन पर काम करेंगे।

देवीदीन—तो सुराज मिलने पर दस– दस पाँच– पाँच हजार के अफसर नहीं रहेंगे, वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो जायगी?

रमानाथ—(पहले तो सिटपिटाता है फिर सँभल जाता है) दादा! अब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा कि कर्मचारियों के वेतन घटा दिये जायँ तो घट जायेंगे। कुंजी बहुमत के हाथों में रहेगी। और अभी दस– पाँच बरस न हो, लेकिन आगे चल कर बहुमत किसानों और मजदूरों का हो जायगा।

देवीदीन—(मुस्कराकर) भैया, तुम भी इन बातों को समझते हो यही मैंने भी सोचा था। भगवान करे अभी कुछ दिन और जीऊँ। मेरा पहला सवाल यह होगा कि विलायती चीजों पर दुगना महसूल लगाया जाय और मोटरों पर चौगुना। अच्छा, अब भोजन बनाओ। साँझ को चल कर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लूँ।

रमानाथ—(एकदम) दादा, मैं घर न जाऊँगा।

देवीदीन—(चकित) क्यों, क्या बात हुई?

रमानाथ—(सजल नयन) कौन– सा मुँह लेकर जाऊँ दादा। मुझे तो डूब मरना चाहिए था। मैं तो तब जाऊँगा जब…

(यह कहते– कहते रमानाथ फूट– फूट कर रो पड़ता है। देवीदीन चकित– स्तम्भित उसे ठगा सा देखता है और फिर न जाने क्या सोच कर उसे छोड़ कर चला जाता है। परदा गिरता है।)

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