नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रतन—मगर भाई, अभी मेरे पास रुपये नहीं हैं।
रमानाथ—(गर्व से) तो क्या हुआ! रुपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजियेगा।
रतन—(खुश हो कर) बहुत देर नहीं लगेगी यही दो – तीन दिन में पहुँचा दूँगी।
रमानाथ—अजी, उसकी आप बिलकुल चिंता न करें।
रतन—(हँस कर) तो कब तक आशा करूँ!
रमानाथ—मैं आज ही सराफ से कह दूँगा। तब भी पंद्रह दिन तो लग ही जायेंगे।
रतन—ठीक है।
जालपा—अबकी रविवार को मेरे ही घर चाय पीजिएगा।
रतन—उसकी क्या जरूरत थी !
जालपा—फिर भी…
रतन—जरूर आऊँगी।
रमानाथ—अच्छा, अब चलें। देर हो रही है।
रतन—जायेंगे?
जालपा—हाँ, अम्माँ जी राह देखती होंगी। अब तो मिलेंगे ही।
रतन—हाँ, बहन। तुम्हें पा कर मैं जी गयी।
रमानाथ—नमस्ते।
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