नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा– (मुँह फेर कर) ऐसा ही होगा।
राधा– और तो सब कुछ है केवल चन्द्रहार नहीं है!
शाहजादी– एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है, बहन! उसकी जगह गुलूबंद तो है।
जालपा– (व्यंग) हाँ, देह में एक आँख के न होने से क्या होता है, और सब अंग होते ही हैं, आँखें हुई तो क्या, न हुईं तो क्या।
(जालपा ने ये बातें ऐसे कहीं की राधा और वासंती हँस पड़ीं पर शाहजादी न हँस सकी।)
शाहजादी– (बनावटी सहानुभूति) तुम ठीक कहती हो बहन। सब न जाने कहाँ के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाये, चन्द्रहार न लाये, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते हैं, तो पूछती हूँ कि तुमने यह कहाँ की रीति निकाली है। ऐसा अनर्थ भी कोई करता है?
(राधा और वसंती दोनों शाहजादी को रोकती हैं पर वह जो बोले जाती है।)
जालपा– क्या करेगी पूछ कर, जो होना था सो हो गया।
शाहजादी– तुम पूछने को कहती हो, मैं रुला कर छोड़ूँगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खट्टा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूँ। जब तक कंगन न बन गये मैं नींद भर नहीं सोयी।
राधा– तो क्या तुम जानती हो जालपा को चन्द्रहार न बनेगा!
शाहजादी– बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस– पाँच की चीज तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है। फिर कारीगर भी तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।
जालपा– यही तो मैं भी सोचती हूँ बहन, जब आज न मिला तो फिर क्या मिलेगा!
(राधा और वांसती बराबर थप्पड़ दिखाती है पर शाहजादी तमाशे का मजा लेने पर तुली है।)
शाहजादी– नहीं, यह बात नहीं है जल्ली, आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है। सास– ससुर को बार– बार याद दिलाती रहना। बहनोई जी से दो– चार दिन रुठे रहने से भी बहुत– कुछ काम निकल सकता है। बस, यह समझ लो कि घरवाले चैन न लेन पायें, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे, मालूम हो जाय कि बिना चन्द्रहार बनाये कुशल नहीं। तुम जरा भी ढीली पड़ीं और काम बिगड़ा।
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