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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

दूसरा अंक

पहला दृश्य

(पहले अंक वाला जालपा का कमरा। काफी परिवर्तन हो गया है। अस्त– व्यस्तता बिलकुल नहीं है। कुछ नये चित्र लगे हैं। चारपाई पर नया बिस्तर है। कारनिस पर बड़ा शीशा रखा है। एक कोने में छोटी मेज लगी है। जिस पर कढ़ा हुआ मेजपोश और उस पर एक चीनी मिट्टी की बिल्ली रखी है। हाँ, एक कुरसी भी है। खूँटी पर जालपा के वस्त्र टँगे हैं। रमानाथ का हैट भी है। रमानाथ कुरसी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है।)

रमानाथ– (स्वगत) भला कोई बात है, जालपा वकील साहब की चायपाटा में जाय और इस तरह फटे हाल! हूँ! नहीं, मैं जालपा पर इतना अन्याय नहीं कर सकता। अभी उस पार्टी में सभी चमाचम साड़ियाँ पहने हुए थीं। जड़ाऊँ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी नहीं थी, पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक नहीं जँचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मों का फल है कि मुझे ऐसी सुन्दरी मिली। लेकिन जब सोयायटी में जाने लगे हैं तो पहनावा भी वैसा ही चाहिए। मुझे इस पार्टी में जाने के लिए साड़ी, जूते और घड़ी तो ही चाहिए थी……लो वह आ रही है। उसे अभी नहीं बताऊँगा।

(जालपा का प्रवेश, रमानाथ गंभीर हो कर सोचने का नाट्य करता है।)

जालपा– क्या सोच रहे हो?

रमानाथ– (चकित सा) हूँ…

जालपा–  मैंने कहा, श्रीमान क्या सोच रहे हैं?

रमानाथ मैं सोच रहा हूँ कि आखिर यही तो खाने पहनने और जीवन का आनन्द उठाने के दिन हैं। जब जवानी में ही सुख न उठाया तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे! बुढ़ापे में मान लिया, धन हुआ ही तो क्या?

जालपा– पर पैर तो अपनी चादर देखकर ही फैलाये जाते हैं। अभी तक गहने वालों को एक पैसा भी देने की नौबत नहीं आयी।

रमानाथ– वे तो दिये ही जायेंगे।

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