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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

तीसरा दृश्य

(खुली छत पर दो चारपाइयाँ बिछी हैं। शांति है। ऊपर आसमान में चन्द्रमा शीतलता वर्षाने का पूरा प्रयत्न कर रहा है। एक चारपाई पर जालपा मौन एकटक चन्द्रमा को देख रही है। एक तो ग्रीष्म, दूसरे माँ– बाप का विछोह; मन में एक प्रकार की अग्नि भड़कती रहती है। अब भी वह कुछ उदास है कि तभी नीचे से रमानाथ आता है। उसके हाथ में एक पोटली है। वह मुस्करा रहा है। आते ही वह दूसरी चारपाई पर बैठ जाता है। जालपा उठती है।)

जालपा– पोटली में क्या है?

रमानाथ– बूझ जाओ तो जानूँ।

जालपा– हँसी का गोलगप्पा! (हँस पड़ती है।)

रमानाथ– गलत।

जालपा– नींद की गठरी होगी।

रमानाथ– गलत।

जालपा– तो प्रेम की पिटारी होगी।

रमानाथ– ठीक। आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊँगा। आओ!

(रमा पोटली खोलता है और बड़े अनुराग से फूलों के गहने जालपा को पहनाता है। वह लजाती है पर उसका रोम– रोम प्रफुल्लित हो उठता है।)

रमा– अब कितनी सुंदर लगती हो।

जालपा– सच।

रमा– मेरी आँखों से देखो। (प्रेम से देखता है।)

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