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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


आधी रात का समय है। अपने आलीशान मकान में श्यामा पश्चिम की तरफ के एक कमरे में पलंग के मुलायम बिछावन पर पड़ी हुई है जिसकी मसहरी का जालीदार पर्दा हवा के मद्धिम झकोरों से लहरें मार रहा है। नाजुक श्यामा गहरी नींद में पड़ी हुई और उसकी नाक से हल्के खुर्राटे की आवाज आ रही है।

यकायक चौंककर श्यामा ने आंखें खोल दीं और घबराकर उठ बैठी। उसने देखा कि कोई आदमी पलंग पर झुका हुआ धीरे-धीरे उसके बदन पर हाथ फिरा रहा है। इस कमरे में बहुत मामूली-सी रोशनी हो रही थी फिर उसने इस आदमी को पहचान लिया और तुरन्त पलंग से उतर उसके पैरों पर सिर रखती हुई बोली, ‘‘नाथ! आह, आप हैं? भला आपको मेरी याद तो आई! मगर हैं, यह आपकी हालत क्या हो रही है! आप तो जख्मी मालूम होते हैं!’’

सचमुच आने वाला भूतनाथ ही था जो श्यामा की बात सुन बेचैनी और थकावट की मुद्रा से उसके पलंग पर बैठ गया और अपने माथे पर हाथ फेरता हुआ बोला, ‘‘हाँ, मैं बहुत दूर से भागा-भागा और परेशान चला आ रहा हूँ और साथ ही कुछ जख्मी हो गया हूँ। राजा बीरेन्द्रसिंह के आदमी मेरा पीछा कर रहे हैं और उन्हीं से भागकर मैं यहाँ पहुंचा हूँ।

श्यामा : (भूतनाथ के कपड़े उतारती हुई) राजा बीरेन्द्रसिंह के आदमी! उनसे आपका क्या झगड़ा हो गया? मगर तब मालूम होता है कि उन्हीं लोगों ने आपको जख्मी भी किया है!

भूत० : नहीं, जख्मी तो दूसरे हाथों ने मुझे किया है जिन्हें अपनी बेवकूफी से मैंने अपने गले में डाल लिया था, पर खैर इन बातों से इस समय कोई मतलब नहीं, अगर तुम्हारी कोई लौंडी जागती हो तो बुलाओ मैं जरूरी कामों से फारिग हो स्नान करूंगा और तुरंत ही यहाँ से चला जाऊंगा।

श्यामा : लौंडी आपकी आपके सामने खड़ी है, और किसी को बुलाने की जरूरत नहीं! मैं अभी सब बन्दोबस्त करे देती हूँ, मगर इस समय आपको जाने किसी तरह नहीं दे सकती, आपकी इस हालत में मैं क्या, आपका कोई दुश्मन भी आपको बाहर निकलने की सलाह नहीं दे सकता।

श्यामा ने भूतनाथ की सब तरह से पूरी सेवा की और अपने चाल-चलन और कामों से जाहिर कर दिया कि कुलीन स्त्रियां किस किस तरह का बर्ताव अपने पति के साथ करती हैं, उसने भूतनाथ को नहलाया-धुलाया और अपने हाथ ही से उसकी मलहम-पट्टी भी करके कुछ जलपान कराने के बाद पलंग पर लिटा दिया। थकावट का मारा भूतनाथ मन-ही-मन श्यामा के वास्तविक प्रेम की सराहना करता हुआ शीघ्र ही गहरी नींद में डूब गया और उसको इस बात का कुछ भी पता न लगने पाया कि उसकी इस बेवफा और बनावटी स्त्री ने दवा की जगह जहर का बर्ताव किया है। उसके जख्मों पर जो मलहम लगाया गया था उसमें आराम पहुंचाने की बनिस्बत गहरी बीमारी पैदा करने की भयानक ताकत थी, जिसका नतीजा यह निकला कि कुछ ही देर के बाद भूतनाथ घावों की तकलीफ के कारण पुन: जाग उठा और उसको बहुत तेज बुखार भी चढ़ आया जिसका सबब उसने अपने घावों को ही समझा। मगर सिर्फ इतने ही पर बस न हुआ, इसके साथ ही साथ उसका दिल और दिमाग भी इस लायक न रह गया कि कार्य-कारण को ठीक तरह सोचकर किसी मुनासिब नतीजे तक पहुंचे क्योंकि उस पर भी उस दूसरी दवा का असर हो चुका था जो ताकत पैदा करेगी यह कहकर श्यामा ने उसको खाने के बाद ही पिला दी थी। कुछ ही समय के बाद उसके बदन की गर्मी यहाँ तक बढ़ गई कि वह बेचैनी के कारण हाथ-पांव पटकने लगा और दोपहर बीतते-बीतते तो बकने-झकने भी लगा।

घण्टों तक भूतनाथ की यही हालत रही और वह बराबर बकता-झकता और हाथ-पांव मारता रहा। इस बीच श्यामा हरदम उसके पास बनी रही। इसमें शक नहीं कि भूतनाथ की सेवा उसने सब तरह से की और जब तक बीमारी का जोर बना रहा एक पल के लिए भी उसके पास से न हटी मगर ऐसा करने में भी उसकी असल नीयत क्या थी इस समझना जरा कठिन है, कुलटा और धूर्ता स्त्रियों के चरित्र ब्रह्मा भी समझ नहीं सकते!

वह रात का और बाद का समूचा दिन इसी तरह बीत गया। भूतनाथ की वह बक-झक बराबर जारी रही और इस दरमियान में वह हजारों ही तरह की बातें बक गया जिन्हें उसके पास हमेशा बैठी रहने वाली श्यामा बराबर गौर से सुन रही थी और जिसके साथ-साथ यह इन्तजाम भी कर रक्खा था कि कोई गैर कान भूतनाथ की वह बक-बक सुनने न पावे।

हम ठीक नहीं कह सकते कि श्यामा ने कौन-सी चीज भूतनाथ को खिला दी थी जिससे उसके दिलोदिमाग को इस कदर ढीला कर दिया मगर इसमें शक नहीं कि यह बात जिस तरह यकायक पैदा हुई थी उसी तरह यकायक बन्द भी हो गई। कई दिनों के बुखार, बदहवासी और दिमागी फितूर के बाद एक दिन आप-से-आप ही भूतनाथ ने अपने को बहुत अच्छा और होशहवास में और श्यामा को पलंग की पैतानी बैठे अपने पैर दबाते पाया। उसका उबलता हुआ दिमाग इस समय ठंडा और शान्त था और तबीयत फरहर में मालूम होती थी। बुखार भी उतरा हुआ था। अवश्य ही वह बहुत ही कमजोर और दुर्बल हो गया था, फिर भी उसकी मानसिक शक्तियां ठीक हालत में थीं और यही सबब था कि आखें खुलने के साथ ही उसने श्यामा को पहचाना और कमजोर आवाज में पानी मांगा। चांदी की सुराही से जल ढालकर श्यामा ने उसे ठंडा पानी पिलाया और तब प्रेम में डूबे हुए स्वर में पूछा, ‘‘नाथ, अब आपकी तबीयत कैसी है?’’

भूतनाथ ने जवाब दिया, ‘‘बहुत ठीक है, मगर न-जाने क्यों कमजोरी हद्द से ज्यादा मालूम होती है और ऐसा जान पड़ता है मानों मैं बरसों का मरीज होऊँ। हाथ-पैरों में बिल्कुल दम नहीं पड़ता और तुमने भी देखा होगा कि जब तुम्हारे हाथ से गिलास लेकर मैंने जल पीया तो मेरी कलाई कांपती थी, न-जाने इसका क्या इसका सबब!!’’

श्यामा ने कुछ जवाब न दिया और जरा देर के बाद फिर से ऊपर दोनों हाथ जोड़कर भगवान् से प्रार्थना करती हुई बोली, ‘‘परमात्मा की दया है कि उसने आपकी तकलीफ दूर की और मेरी इज्जत रख ली!’’

भूतनाथ ताज्जुब के साथ बोला, ‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मगर तुम खुद भी बहुत कमजोर और थकी हुई-सी जान पड़ती हो? इसका मतलब क्या है?’’

श्यामा : सब कुछ ठीक है, जब आपको होश आ गया है तो अब कोई बात नहीं, लेकिन आप कृपा कर ज्यादा बातचीत न करें और चुपचाप पड़े रहें। अब कुछ ही देर में वैद्यजी आते ही होंगे, वे आपको देखकर जैसा कुछ कहेंगे वैसा किया जायेगा।

भूत : तुम्हारी बातें तो अजीब हो रही हैं। आखिर बात क्या है? मैं क्या कुछ ज्यादा समय तक बीमार रह गया?

श्यामा ने पहले तो कुछ नाहीं नूकर किया मगर भूतनाथ की जिद्द पर बोली, ‘‘आपकी तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गयी थी। वैद्यों से पता लगा कि जिस दुश्मन से आपकी लड़ाई हुई थी उसने जहरीले हथियारों का इस्तेमाल किया जिससे घावों में जहर आ गया। बहुत तकलीफ पैदा हुई और आपको बेहिसाब बुखार आ गया। पहरों तक तो आप एकदम बेहोश पड़े रहे, और बीच में तो एक दफे ऐसा हो गया कि वैद्यों ने नाउम्मीदी जाहिर की जिस पर एकदम दु:खी और निराश होकर मैंने भगवान से प्रार्थना और प्रतिज्ञा की अगर तीन दिन के अन्दर आपकी तकलीफ दूर न हुई तो मैं भी अपना शरीर त्याग दूंगी। तीन दिन से मैंने जल तक नहीं पिया। भगवान ने मेरी सुन ली और आज आप बहुत स्वस्थ हैं।’’

भूतनाथ ताज्जुब के साथ उसकी बातें सुन गया और तब अपनी हालत पर गौर करके बोला, ‘‘बेशक जैसा तुमने कहा वही बात मालूम होती है। हो न हो दुश्मन जहरीले हथियारों का बर्ताव कर गया जिन्होंने मुझे किसी काम का न छोड़ा। चोट खाते समय ही मुझे ऐसा कुछ शक हुआ था। खैर तुम्हारी सेवा और प्रेम से जब मैं जीता-जागता बच गया तो अब कोई हर्ज की बात नहीं है, सब कुछ ठीक हो जायेगा और मैं उससे भी समझ लूंगा जिसने मेरी यह हालत की है। मगर तुम यह बताओ कि मैं कितने दिनों तक बीमार रहा, आज कौन-सा दिन है; और बीमारी की हालत में किसी तरह की बक-झक तो नहीं किया करता था?’’

श्यामा ने जवाब दिया, ‘‘आप पांच दिनों तक बीमार पड़े रहे, आज रविवार शुक्ल पक्ष की एकादशी है, बीमारी में आप बक-झक तो नहीं करते थे मगर कराहते बहुत थे और तकलीफ के सबब से बराबर करवटें बदलते रहते थे।’’

इसके बाद देर तक भूतनाथ और श्यामा में तरह-तरह की बातें होती रहीं और जब वृद्ध वैद्यराज भूतनाथ को देखने आए तो उन्होंने उसकी हालत बहुत ही अच्छी पाकर प्रसन्न होते हुए कहा, ‘‘बेशक मेरी कीमती दवा ने पूरा असर किया और अब किसी तरह का खतरा नहीं है!’’

श्यामा ने उनसे पूछा, ‘‘कितने दिनों में ये घूमने-फिरने लायक हो जायेंगे!’’ जिसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘‘बस एक हफ्ते के भीतर तुम देखना मैं इन्हें खड़ा कर दूंगा!’’ यह बात सुन भूतनाथ हंस पड़ा मगर इस हंसी का सबब उसने बहुत पूछने पर भी न बताया।

वैद्यराज के जाने के बाद ही भूतनाथ उठकर गया और श्यामा से बोला, ‘‘मेरा हाथ पकड़ लो और बाग में ले चलो।’’ पहले तो श्यामा ने उज्र किया पर बाद में उसकी जिद्द से लाचार हो मंजूर करना पड़ा। भूतनाथ कुछ देर तक इधर-उधर टहलता रहा और तब यकायक बोल उठा- ‘‘बस अब मैं तुमसे जुदा होऊंगा।’’ श्यामा ने उसकी बात सुन आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्यों?’’ जिसके जवाब मंह उसने कहा, ‘‘मेरा एक बहुत ही जरूरी काम अटका हुआ है जिसे पूरा करना ही पड़ेगा।’’ श्यामा ने यह सुन सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं नहीं, अभी कम-से-कम एक हफ्ते तक मैं आपको किसी तरह कहीं आने-जाने नहीं दे सकती! जब तक वैद्यराज यह न कह देंगे कि हाँ अब आपमें ताकत पूरी तरह आ गई और आप घूमने-फिरने के लायक हो गए तब तक आप कहीं नहीं जा सकते!’’ मगर भूतनाथ ने इस बात को सुन-हंसकर कहा, ‘‘अब मैं सब तरह से ठीक हो गया हूँ। भले ही इस समय तुम्हारे हाथ का सहारा लेकर मरीजों की तरह घूम रहा होऊं मगर वास्तव में अब कोई तकलीफ बाकी नहीं है, फिर भी मैं तुम्हारा आग्रह मानकर यहाँ से न जाता अगर वह काम निहायत जरूरी न होता!’’

श्यामा : नहीं-नहीं, आप लाख कहें मैं किसी तरह आपको जाने न दूंगी। आप अभी तक एकदम कमजोर हैं और अगर कहीं किसी दुश्मन से मुलाकात हो गई तो न-जाने....!

कहकर श्यामा ने आँखें डबडबा लीं। भूतनाथ ने बहुत कुछ कहा-सुना मगर वह किसी तरह भी इस बात पर राजी न हुई कि उसको जाने दे। अन्त में जब भूतनाथ ने यह कहा कि यदि वह उस समय नहीं जायेगा तो बहुत बड़ा नुकसान हो जायेगा तो वह बोली, ‘‘आप जहाँ कहीं भी जायें मुझको भी साथ लेते चलिए ताकि मैं आपकी हिफाजत कर सकूं।’’ इस बात को सुन भूतनाथ हंस पड़ा और देर तक श्यामा को समझाता रहा।आखिर जब उसने वादा किया कि आठ पहर के अन्दर आवेगा और फिर कई दिनों तक वहाँ से कहीं नहीं जायेगा तब लाचार होकर या न-जाने किस कारण अन्त में श्यामा ने उसकी बात मंजूर कर ली। स्थिर हुआ कि दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले भूतनाथ रथ पर बैठकर रवाना हो जायेगा, मगर किस तरफ जाना या क्या करना है इसके बारे में बहुत पूछने पर भी भूतनाथ ने कुछ बताना मंजूर न किया।

दूसरे दिन अंधेरा रहते ही भूतनाथ का सफर शुरू हो गया। कोई नौकर, सिपाही यहाँ तक कि बहलवान भी अपने साथ न लिया और खुद ही रथ हाँकता हुआ मकान के बाहर निकल गया। उसने श्यामा को कुछ भी न बताया कि वह किधर जाना चाहता है मगर उसके पीछे जासूस लगाकर श्यामा ने इस बात का पता लगा लिया कि रथ काशी के बाहर हो गंगा पार कर सीधा उस सड़क पर चल पड़ा है जो रोहतासगढ़ को जाती है। भूतनाथ के रवाना होने के दो घण्टे के बाद ही श्यामा ने भी अपनी सवारी का घोड़ा मंगाया और अपने नौकरों को बहुत कुछ समझाने-बुझाने के बाद उस पर सवार हो केवल एक विश्वासी सिपाही साथ ले वह भी न-जाने किधर को रवाना हो गई। मगर इस समय हम उसका साथ नहीं करते और भूतनाथ के साथ चलकर देखते हैं कि वह किधर जाता या क्या करता है।

दोपहर तक भूतनाथ बराबर चला गया, इसके बाद एक मुनासिब जगह देख उसने रख को रोका, बैलों को खोलकर उनके चारे-पानी का इन्तजाम किया, और तब अपने खाने-पीने की भी व्यवस्था की।उसकी अनूठी स्त्री ने भोजन का सब सामान साथ रख दिया था और लोटा-डौर आदि भी मौजूद था इससे किसी तरह की तकलीफ न हुई और दोपहरिया उसने उसी घने जंगल के नीचे काटी जिससे होकर वह अपने रथ को ले जा रहा था। उस समय से बहुत पहले ही उसने सीधी सड़क को छोड़ दिया था और ऐसे जंगल से होता हुआ जा रहा था जिसमें से किसी अनजान आदमी के लिए रास्ता निकाल लेना कठिन था मगर इसमें शक नहीं कि वह अब भी रोहतासगढ़ की तरफ ही बढ़ रहा था।

थोड़ी देर सुस्ताकर भूतनाथ ने फिर सफर शुरू किया और इस बार वह बिना रुके बराबर तब तक चला गया जब तक कि रोहतासगढ़ की सरहद पार न हो गई और नीची पहाड़ियों का वह सिलसिला उसके सामने न आ पहुंचा जो दूर-दूर तक फैला हुआ था। अब उसने अपने बैलों की चाल कम की और बड़ी सावधानी के साथ इधर-उधर देखता हुआ धीरे-धीरे जाने लगा। शायद उसे अपना पीछे किये जाने का डर हो, मगर उस भयानक जंगल में सूनसान सन्नाटे में दरिन्दे जानवरों के सिवाय वहाँ और होगा ही कौन जो उसके रात के इस सफर को देख सके?

कुछ देर सीधा चले जाने के बाद भूतनाथ ने रथ को मोड़ा और दाहिनी तरफ को चला। अब रास्ता बहुत ही ऊंचा-नीचा और जमीन पथरीली मिल रही थी, जिसके सबब से रथ बेतरह उछल रहा था और जानवरों को चलने में तकलीफ हो रही थी, मगर भूतनाथ को इस बात का कुछ भी खयाल न था। वह अपने चारों तरफ के निशानों से अपना रास्ता खोजता हुआ चला ही जा रहा था, यहाँ तक की उसने एक गहरे पहाड़ी नाले को काटकर सामने से बहते हुए पाया।सावधानी के साथ भूतनाथ अपना रथ इस नाले के अन्दर उतार ले गया और तब कुछ दूर जा एक जगह खड़ा कर दिया। बैलों को खोलकर लम्बी रस्सी से बांध दिया और कुछ घास आदि जो साथ में मौजूद थी उनके सामने डाल यहाँ से हटा। इस जगह जहाँ उसने रथ को खड़ा किया नाले की गहराई इतनी थी कि ऊपर जंगल से होकर जाने वाले किसी शख्स को इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि यहाँ कोई रथ खड़ा है और शायद इसीलिये भूतनाथ रथ को यहाँ उतार भी लाया था।

थोड़ी देर तक इधर-उधर देखभाल करने और आहट लेने के बाद भूतनाथ नाले के बाहर निकला। उसके सामने की तरफ लगभग चौथाई कोस के फासले पर एक पहाड़ी उस आधी रात के धुंधलके में अस्पष्ट-सी दिखाई पड़ रही थी जिसकी शक्ल कुछ विचित्र ही तरह की थी अर्थात् दूर से बस यही जान पड़ता था मानो पत्थर के ढोंके पर कोई लुटिया रक्खी हुई हो, भूतनाथ कुछ देर तक सब तरफ देखता रहा। न जाने-क्यों उसके मुँह से एक लम्बी सांस निकल पड़ी, तब वह उसी तरफ को बढ़ा।

यहाँ हम थोड़ी देर के लिए भूतनाथ का साथ छोड़ देते हैं और उस सवार की तरफ चलते हैं जो भूतनाथ के नाले के बाहर होते ही उसके अन्दर उतरता दिखाई पड़ता है। यह सवार घोड़े पर चढ़ा नहीं है बल्कि घोड़े की लगाम इसके हाथ में है और पैदल धीरे-धीरे और बड़ी होशियारी से आहट लेता हुआ चला आ रहा है। हो न हो यह भूतनाथ का पीछा करता हुआ यहाँ तक पहुंचा है। इसके पास चलकर देखना चाहिए कि इसकी नियत क्या है।

इस सवार के घोड़े के पैरों पर चमड़े के मुलायम गद्दीदार पाताबे चढ़े हुए हैं और खुद इस सवार ने भी मटमैले रंग का अबा पहनने के सिवाय पैरों पर कोई ऐसी चीज चढ़ाई हुई है कि जिससे चलने में किसी तरह की आवाज ऐसी नहीं होती जो दूर के लोगों को होशियार कर सके, फिर भी झाड़ी के अन्दर छिपे हुए उस आदमी ने इसको देख ही लिया जो न-जाने कब से वहाँ बैठा हुआ था। क्या जाने वह इसी आने वाले की राह देख रहा था या क्या बात थी कि इसके इस जगह पहुंचते ही वह भी अपने छिपने की जगह से बाहर निकल आया। आने वाले ने कुछ चभककर पूछा, ‘‘कौन?’’ जिस पर इसने जवाब दिया, ‘‘मेवालाल।’’ आने वाले प्रसन्नता के साथ कहा, ‘‘अरे तुम यहाँ मौजूद हो!’’ इसने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, बाबूजी ने ठीक-ठीक पता हम लोगों को बता दिया था जिससे हम लोग कभी के यहाँ मौजूद हैं।’’ आने वाले ने पूछा, ‘‘क्या तुम लोग कई आदमी हो?’’ जवाब मिला, ‘‘हाँ, तीन आदमी इस तरफ हैं और दो पिछली तरफ उस पहाड़ी के पिछवाड़े नाले में छिपे हुए हैं बल्कि और भी कुछ लोग हो तो ताज्जुब नहीं। बाबाजी का कहना था कि चाहे जिधर से भी आवे मगर भूतनाथ जरूर यहाँ ही पहुंचेगा और यहीं से आगे उसका पीछा करने की जरूरत होगी।’’आने वाले ने फिर पूछा, ‘‘तो क्या कुछ लोग उसके पीछे भी गए हैं?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘ जी हाँ, मेरे दोनों साथी गए हुए हैं।’’ आने वाले ने सन्तोष की एक सांस फेंककर कहा, ‘‘यह बहुत अच्छा हुआ मैं सफर करने से बची, इसी लम्बे सफर ने मुझे एकदम चूर-चूर कर डाला था। कहीं बैठने की जगह बताओ तो मैं जरा आराम करूं। इस भारी लबादे ने तो और भी....।’’

बोलने वाला बल्कि यह कहना चाहिए कि बोलने वाली, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह औरत ही थी, यकायक चौंकी और रुक गई क्योंकि उसके तेज कानों में किसी तरह की आहट पड़ी थी। इधर-उधर देखने के साथ ही एक काली शक्ल पर निगाह पड़ी जो तेजी के साथ इधर ही को आ रही थी और जिसके पीछे कुछ फासले पर दो आदमी और भी थे। उस आदमी ने जिसने अभी-अभी मेवालाल के नाम से अपना परिचय दिया था उस तरफ गौर से देखा और बोल उठा, ‘‘लीजिए बाबाजी खुद ही आ पहुँचे!’’ जिसे सुन उस औरत ने अपना लबादा उतारने में जल्दी की और अब हमने भी पहचान कि यह बीबी मनोरमा हैं, अपने नये श्यामा के रूप में नहीं। असल रूप में।

उस आने वाले ने भी इनको देख अपनी चाल तेज कर दी और तुरन्त ही पास पहुंचकर कहा, ‘‘वाह-वाह तुम भी यहाँ आ पहुंची! चलो अच्छा ही हुआ, नहीं तो यद्यपि मैं तुमसे मिलने को व्याकुल था पर फिर भी भूतनाथ के खयाल से काशी आते या तुमको ही बुलाते डरता था।’’

हमारे पाठकों ने तो आशा है आवाज ही से इनको पहचान लिया होगा क्योंकि ये हमारे जाने-पहचाने दारोगा साहब ही हैं जो अपनी शक्ल नकाब के पीछे छिपाये और समूचे बदन को कपड़े की आड़ में किये न-जाने कहाँ से चले आ रहे हैं कि तमाम पोशाक धूल और मिट्टी से भरी है और चेहरा पसीने से तर है। उनके दोनों साथियों की भी यही हालत हो रही थी जिस पर मनोरमा ने ताज्जुब के साथ गौर किया और बोली, ‘‘मगर यह तो कहिये दारोगा साहब, कि आप इस वक्त कहाँ से आ रहे हैं? आपकी हालत देखकर तो ऐसा जान पड़ता है मानो बीसों कोस की मंजिले मारते चले आ रहे हों!’’ दारोगा साहब ने जवाब दिया, ‘‘बेशक यही बात है। मैं बड़ी दूर से लगातार मारामार चला आ रहा हूँ और रास्ते में एक सायत के लिए भी कहीं नहीं रुका। मगर जरा ठहर जाओ, पहले मैं इन आदमियो के सुपुर्द कुछ काम कर लूं तो तुमसे बात करूं।’’

दारोगा साहब ने मनोरमा को उसी जगह रुके रहने का इशारा कर पीछे घूम गये और अपने साथ के दोनों आदमियों तथा मेवालाल से बातें करने लगे जो मनोरमा को मिला था। मगर उनकी बातचीत बहुत जल्दी ही समाप्त हो गई जिसके बाद दो आदमी तो वह नाला पार कर उसी तरफ को बढ़ गये जिधर भूतनाथ गया था और तीसरा पीछे की तरफ कहीं चला गया, तथा दारोगा साहब पुन: मनोरमा के पास आ पहुंचे जो उसी जगह पत्थर की एक चट्टान पर बैठकर आंचल से मुंह पर हवा करती हुई सफर की गर्मी दूर करने की कोशिश कर रही थी। ये भी उसके बगल में ही जमीन पर बैठ गये और भारी कपड़े उतार एक तरफ रखते हुए बोले, ‘‘अच्छा सबसे पहले तुम यह बताओ कि इस भयानक जंगल में आधी रात के समय अकेली कैसे आ पहुंची या क्या कर रही हो?’’

मनो० : मगर यही सवाल मैं आपसे करना चाहती थी। आप कैसे यहाँ आ गये यहाँ इतने आदमियों का इन्तजाम आपने कैसे और कब कर डाला तथा भूतनाथ यहाँ आ पहुंचेगा इस बात का पता आपको किस तरह लगा!

दारोगा : (हंसकर) क्यों, इस बात पर तुम्हें इतना ताज्जुब क्यों हो रहा है? क्या तुम्हीं ने वे बातें मुझे लिख नहीं भेजी थीं जो बदहवास भूतनाथ के मुंह से तुमने सुनी थीं? उन बातों को सुनकर उनका असल मतलब निकाल लेना ही न तो कठिन था और न यह जान लेना ही कोई मुश्किल था कि होश में आते ही और जरा भी स्वतंत्रता मिलते ही भूतनाथ सीधा इसी जगह पहुंचेगा और अपनी थाती की जांच करेगा कि वह सही-सलामत है या नहीं!

मनोरमा : ताज्जुब की बात यह है कि आपने अंड-बंड और अनाप-शनाप बातों का मतलब लगा लिया और मैं उन्हें दिन-रात सुनती हुई भी उनका कोई मतलब न लगा सकी। यद्यपि यह तो मैं जान गई थी कि आपकी दवा के वश में होकर भूतनाथ जो कुछ बक रहा है उसके अन्दर कोई गूढ़ तात्पर्य अवश्य है पर वह क्या है इसको जानने का कोई जरिया मेरे पास न था।

दारोगा : वह सिर्फ इसलिए कि भूतनाथ की जीवनी के एक बड़े ही भयानक भेद को तुम बिल्कुल नहीं जानती पर मैं जानता हूँ और इसीलिये मैं उन बातों को पूरा मतलब समझ गया जो भूतनाथ ने बेहोशी की हालत में कहीं थीं।

मनो० : तब कृपा करके जरा मुझे भी बताइए कि आपने क्या समझा, किस तरह आप यहाँ आ पहुंचे, तथा अब आपका क्या इरादा है?

दारोगा : मैं सब कुछ तुमको बताऊंगा मगर तुम जरा एक दफे पिछला सब हाल खुलासा मुझे कह सुनाओ। यद्यपि तुम्हारी चिट्ठियां बहुत लम्बी होती थीं और उनमें बहुत कुछ हाल रहा करता था फिर भी मुझे शक है कि शायद कोई बात लिखना भूल गई हो और उसको न जानने के कारण मेरी कार्रवाई में जो अब मैं करना चाहता हूँ और विघ्न पड़ जाये। जहाँ तक मैं समझता हूँ इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि इस समय भूतनाथ ही के पीछे यहाँ तक आ पहुंची हो?

मनो० : जी हाँ, यही बात है। आपने ताकीद की थी कि अभी कई दिनों तक भूतनाथ का साथ किसी तरह भी न छोड़ना, इसलिए लाचार होकर मुझे इस जगह आना पड़ा, मगर यहाँ तक पहुंचकर मैं एकदम थक गई थी और सोच रही थी कि अगर भूतनाथ का सफर आगे भी जारी रहा तो क्या होगा, तब आपका आदमी मेवालाल यहाँ मिल गया और मेरी जान में जान आई।

दारोगा : एक मेवालाल ही क्यों इस वक्त मेरे दस-बारह आदमियों ने इन पहाड़ियों के चारों तरफ अड्डा जमा रक्खा है और इस बात को जानने की फिक्र में हैं कि भूतनाथ किधर जाता है और क्या करता है।

मनो० : ठीक है, मगर यह क्यों?

दारोगा : सो पीछे पूछना, इस वक्त पहले जो मैंने पूछा वह हाल पूरा-पूरा कह सुनाओ।

मनो० : अपनी तरफ का पूरा-पूरा हाल मैं रोज की चिट्ठियों में लिख ही दिया करती थी फिर भी अगर मेरी जुबान से ही सुनना चाहते हो तो सुन लीजिये। किस तरह आपकी आज्ञानुसार बल्कि आपकी करनी से मैं भूतनाथ की अर्धांगिनी बनी हुई अरसे से काशी में मौजूद हूँ और उधर नागर रामदेई बनी हुई भूतनाथ का दूसरा घर उजाला करे बैठी है इसके बारे में तो आप सब कुछ जानते ही हैं; और इस बात को भी आपसे कहने की जरूरत नहीं कि हम दोनों ही भूतनाथ के कब्जे से शिवगढ़ी की ताली निकालने के उद्योग में लगी हुई हैं।

दारोगा : (कुछ खिजलाकर) अब तुम एक दम क ख से अपना पाठ सुनाना प्रारम्भ मत करो, इधर की बात करो और ताजे समाचार सुनाओ। मुझे बहुत चिन्ता लगी हुई है कि भूतनाथ किधर गया और क्या कर रहा है। जिस समय मेरा कोई जासूस उसकी किसी कार्रवाई की खबर देगा वैसे ही मुझे यहाँ से चले जाना पड़ेगा, अस्तु तुम्हें जल्दी-जल्दी अपनी बात खत्म कर डालनी चाहिए। तुम मुझे उस समय से हाल सुनाओ जब से एक कि नन्हों, मुन्दर और गौहर का गुट तुम लोगों से आकर मिला और तुम्हें रोहतासगढ़ के ऐयारों की मदद मिलने लग गई।

मनो० : (हंसकर) अच्छी बात है तो वहीं से सुनिये, मुन्दर और नन्हों का गुट क्योंकर बना यह तो आपको मालूम ही होगा?

दारोगा : सिर्फ उतना ही जितना कि तुमने अपनी चिट्ठियों में मुझे लिखा परन्तु मैं खुलासा हाल जानना चाहता हूँ, कारण अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि वे तीनों यकायक कहाँ गायब हो गईं।

मनो० : (ताज्जुब से) क्या आपको इस बात का पता नहीं लगा कि तीनों ही लोहगढ़ी के साथ-साथ उड़ गईं जिनके साथ भूतनाथ भी उड़ गया। ऐसा ही पहले मैं समझी थी पर पीछे उतना ही हिस्सा गलत साबित हुआ क्योंकि भूतनाथ जीता-जागता मौजूद है।

दारोगा : (ताज्जुब के साथ) वे तीनों लोहगढ़ी के साथ उड़ गईं? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। तुम किस बिना पर यह बात कह रही हो?

मनो० : सुनिए मैं सब खुलासा कहती हूँ। हेलासिंह से भूतनाथ ने कहा था कि अगर उसको पचास हजार रुपया और लोहगढ़ी की ताली नहीं दी जाएगी तो वह उसका सब भेद अर्थात् कमेटी से उसका सम्बन्ध और साथ ही यह बात भी कि वह आपकी मदद लेकर अपनी लड़की मुन्दर की शादी गोपालसिंह के साथ करना चाहता है, गोपालसिंह पर प्रकट कर देगा। हेलासिंह तो यह सुनकर डर गया मगर मुन्दर इस बात पर भूतनाथ की जानी दुश्मन हो गई। उसने अपने बाप से लेकर लोहगढ़ी की ताली कहीं छिपा दी और भूतनाथ को तहस-नहस कर देने की कोशिश शुरू की।  सेठ चंचलदास के भतीजे श्रीविलास को अपने ऊपर आशिक कर उसने कामेश्वर और भुवनमोहिनी वाला पुराना हाल जान लिया जिनके बारे में अपने बाप से भी उसे कुछ मालूम हुआ था। (१. देखिए भूतनाथ चौदहवाँ भाग, चौथा बयान।)

भूतनाथ को वश में करने के लिए कई सबूत भी उसने झटककर, तब उसे अंगूठा दिखादिया। उसका इरादा यह था कि इन भेदों का डर दिखला भूतनाथ को काबू में करेगी और उससे यह वादा करा लेगी की वह उसके बाप का भेद प्रकट न करेगा और उसके मायारानी बनने में कोई पेंच न लगायेगा। (१. देखिए भूतनाथ पन्द्रहवाँ भाग, आठवाँ बयान।)

दारोगा : ठीक है, यह हाल मैं हेलासिंह की जुबानी सुन चुका हूँ।

मनो० : मुन्दर की मददगार बनकर यह गौहर उससे आ मिली। आपको शायद न मालूम होगा कि राजा शिवदत्त को आजकल रुपये पैसे की बहुत जरूरत पड़ी हुई है और वह भूतनाथ को काबू में लाकर शिवगढ़ी का खजाना उससे लेना चाहता है जिसके बारे में वह जानता है कि यद्यपि बड़ी महारानी से खजाने की ताली वह इनाम में पा चुका है मगर किसी कारण से खजाना अभी तक ज्यों का त्यों बन्द ही पड़ा रह गया है। शिवदत्त का विचार यह था कि किसी तरह यदि वह खजाना उसके हाथ लग जाये तो वह मालामाल हो जाये और फिर से अपने दुश्मनों से बदला ले सके और गौहर ने इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया।

इसी सिलसिले में किसी तरह गौहर की भेंट मुन्दर से हो गई दोनों ने एक दूसरे की मदद करना तय किया।

दारोगा : ठीक है, इन बातों की भी कुछ खबर मेरे जासूस मुझे दे चुके हैं।

मनो० : इन दोनों, गौहर और मुन्दर ने मिलकर कामेश्वर और भुवनमोहिनी का भेष धरा और भूतनाथ को परेशान कर अपना काम बनाना चाहा मगर न-जाने क्या विघ्न पड़ गया कि इनकी मंशा पूरी न हुई। तब इन लोगों ने नन्हों से मेल किया जिसके बारे में गौहर शिवदत्त से सुन चुकी थी कि उसको भूतनाथ के पुराने हाल-चाल की बहुत कुछ खबर है। यह नन्हों भी रोहतासगढ़ के राजा दिग्विजयसिंह के हुक्म से आजकल भूतनाथ के पीछे पड़ी हुई थी और उसके कब्जे से शिवगढ़ी की ताली लेना चाहती थी क्योंकि दिग्विजयसिंह भी अपने बाप के मर जाने और नया राज पाने से अन्धा हो रहा है और अपनी दौलत और ताकत बढ़ाना चाहता है, तथा उसको भी यह मालूम है कि उसकी बहन जमानिया की बड़ी रानी ने भूतनाथ को शिवगढ़ी की ताली तो दे दी है मगर भूतनाथ उस खजाने को अब तक निकाल नहीं पाया है। (१. देखिए भूतनाथ सोलहवाँ भाग, आठवाँ बयान।)

नन्हों ने भूतनाथ के कब्जे से शिवगढ़ी की ताली निकाल लाने का उससे वादा किया और इसलिए उन दिनों वह भी यहीं विराज रही थी। नतीजा यह हुआ कि एक ही मतलब से इकट्ठी इन तीनों मुन्दर, गौहर और नन्हों में दोस्ती हो गई और तीनों ने एक साथ होकर अपना काम सिद्ध करने का विचार किया मगर अपने-अपने दिल का असली भेद सभी अपने-अपने भीतर ही छिपाए रहीं।

नन्हों सेठ चंचलदास के लड़के कामेश्वर पर आशिक थी, यह बात तो आप जानते ही होंगे, मगर यह शायद आपको मालूम नहीं होगा कि कामेश्वर मारा नहीं गया बल्कि कुछ समय पहले तक जीता और राजा शिवदत्त की कैद में था।

गौहर ने नन्हों की सहानुभूति और मदद पाने की लालच से उसे यह खबर दी, बल्कि शिवदत्त से सिफारिश करके कामेश्वर को नन्हों के पास भिजवा दिया, मगर बदकिस्मत नन्हों से उसकी भेंट भी न होने पाई थी कि भूतनाथ के आदमी कामेश्वर को पकड़ ले गए थे और उसी के यहाँ अन्त में वह मारा गया। इस बात पर नन्हों और भी जल-भुन गई और उसने भूतनाथ को एकदम से तहस-नहस करने के विचार से कामेश्वर और भुवनमोहिनी-संबंधी उसका सब भेद प्रकट कर देने को निश्चय किया और इसी विचार से इस संबंध के बहुत-से सबूत भी इकट्ठे कर डाले। गौहर और मुन्दर के पास जो कुछ सामान मौजूद था वह तथा नन्हों के पास की चीजें मिलाकर किसी जगह रख के भूतनाथ को दिखाई गईं जिन्हें देखते ही वह इतना घबराया कि पागल-सा हो गया और उन सबूतों के साथ-साथ इन औरतों को भी गारत कर डालने की कोशिश करने लगा। उसको इसका मौका उस दिन मिला जब लोहगढ़ी में इकट्ठी होकर वे तीनों रोहतासगढ़ के ऐयारों के साथ सलाह-मशविरा कर रही थीं और आगे किस तरह क्या किया जाए इसको सोच रही थीं। न जाने कैसे पता पाकर ठीक उसी वक्त भूतनाथ भी वहाँ जा पहुँचा और उसने इन लोगों को बम के गोले से उड़ा देना चाहा, मगर शायद उस लोहगढ़ी में कहीं पर बारूद का खजाना भी रहा करता था जिसमें उस बम के गोले से आग लग गई जिसका नतीजा यह हुआ कि वे सब और उनके साथ वह समूची गढ़ी ही उड़ गई। (१. देखिए भूतनाथ सोलहवाँ भाग, आठवाँ बयान।)

दारोगा : (ताज्जुब से) मगर इन बातों का पता तुम्हें किस तरह लगा?

मनो० : कुछ तो खास भूतनाथ की ही जुबानी जबकि वह बीमारी की झोंक में पड़ा अनाप-शनाप बक रहा था और कुछ एक खास वजह से जिसका जिक्र मैं अभी आपसे करूंगी। पहले आप मेरा पूरा हाल हो जाने दीजिए।

दारोगा : अच्छा कहो, तब?

मनो० : लोहगढ़ी के साथ नन्हों, गौहर, मुन्दर और बाकी के सब आदमी तो उड़ गए मगर भूतनाथ की जान एक तालाब में कूद पड़ने के कारण बच गई और वह वहाँ से जीता-जागता निकल भागा। बाहर होकर उसने कोई तरकीब न-जाने कैसे की कि राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे से रिक्तगन्थ निकाल लिया। उसको लेकर अपने घर लौटा तो नागर बीवी ने अपना काम साधा और भूतनाथ को जख्मी कर वह किताब उससे ले ली। बहुत ही निराश हो वह वहाँ से भागा और रास्ते में पीछा करते हुए आने वाले राजा वीरेन्द्रसिंह के आदमियों से लड़ता-भिड़ता और छिपता-छिपाता रात के समय किसी तरह मेरे घर पहुंचा। मैंने उसकी हालत देख मौका अच्छा जाना और कुछ दिन पहले जो दवा आपने वैद्यजी से बनवाकर मेरे पास भेजी थी और जिसके बारे में कहलाया था कि अगर किसी तरह खून के साथ मिल जाए तो आदमी के दिल और दिमाग को एकदम ढीला कर देती है जिससे वह अपने पेट की तमाम बातें उगल देता है, कुछ छिपाकर नहीं रख सकता, भूतनाथ के जख्मों पर लेप कर दी। दवा ने अपना असर किया और भूतनाथ उसकी झोंक में कहनी-अनकहनी हजारों तरह की बातें बक गया जिससे बहुत कुछ मतलब मैंने निकाल लिया और जिन बातों का मतलब न निकाल सकी उनका हाल आपको लिख भेजा।दवा का असर कम

होने पर भूतनाथ को होश हुआ और वह यकायक कहीं जाने को व्याकुल हो उठा। मैंने एक आदमी आपके पास रवाना किया और खुद उसका पीछा करती हुई यहाँ तक पहुँची, पर यह मुझे मालूम नहीं कि वह कम्बख्त यहाँ किस इरादे से आया है या क्या करना चाहता है! मगर जान पड़ता है, आपको इस बारे में कुछ मालूम है।

दारोगा : हाँ, इस बारे में मैं तुम्हें बहुत कुछ बता सकता हूँ। तुमने जो यह बात मुझे लिख भेजी थी कि भूतनाथ अपनी बेहोशी की हालत में कई दफे बक चुका है-’’सोने का उल्लू.... जो लुटिया पहाड़ी में है....’’ उसी फिकरे से मैं उसका इरादा बहुत कुछ समझ गया।

मनो० : क्या इस फिकरे का कोई खास मतलब है?

दारोगा : जरूर! बात यह है कि महारानी ने जो ताली भूतनाथ को दी वह सोने से बने एक जड़ाऊ उल्लू के अन्दर छिपाई हुई थी। देखने में तो वह खिलौना सा जान पड़ता है मगर वास्तव में शिवगढ़ी के खजाने की चाभी उसके पेट के अन्दर छिपी हुई है और लुटिया पहाड़ी वही पहाड़ी है जो वह देखो वहाँ दिखाई पड़ रही है और उसकी शक्ल लुटिया की तरह मालूम हो रही है। शिवगढ़ी उसी पहाड़ी के ऊपर है। बस फिकरे से ही मैं समझ गया कि भूतनाथ ने वह ताली कहीं आस-पास में ही छिपाई हुई है और इस बात को समझ कर सोच लेना कोई मुश्किल न था कि जब वह अपनी बीमारी से उठेगा तो जरूर इस बात की जांच करना चाहेगा कि वह कीमती चीज जहाँ उसने छिपाई थी वहाँ पर है या नहीं। यह बात सोच तुम्हारी चिट्ठी में वह मजमून पढ़ने के साथ ही मैंने अपने आदमी इस तरफ रवाना कर दिए और उन्हें ताकीद कर दी कि अगर भूतनाथ इस तरफ आता दिखाई पड़े तो उसका पीछा करें और पता लगावें कि वह किधर जाता या क्या करता है, और देखता हूँ, मेरा यह ख्याल ठीक भी निकला!

मनो० : बेशक, होश में आते ही भूतनाथ एक मिनट भी न ठहरा और अपनी थाती की सम्भाल करने इधर को चल पड़ा। मैं तो समझती हूँ कि आपका यह विचार है कि छिपकर देख लें कि भूतनाथ ने वह सोने का उल्लू कहाँ छिपाया है और जब वह चला जाए तो उसे निकाल लें?

दारोगा : बेशक यही बात है। (रुककर) देखो कोई आता है।

मनो० : आप ही का कोई आदमी होगा!

दारोगा : मालूम तो ऐसा ही होता है।

तेजी से आता हुआ एक आदमी उन्हीं दोनों की तरफ बढ़ रहा था जो बात-की-बात में उनके पास आ पहुंचा और तब दारोगा साहब को सलाम कर बोला, ‘‘भूतनाथ को अभी-अभी हम लोगों ने उस पहाड़ी पर एक कुएं के अन्दर कूदते देखा है। मगर न जाने वह कुंआ कैसा है कि कूदने के बाद से ही उसके अन्दर से अजीब तरह की आवाजें निकल रही हैं!''

दारोगा यह सुनते ही चौंककर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘ओह, उस कुएं को तो मैं जानता हूँ। क्या भूतनाथ उसके अन्दर गया है? अच्छा चलो मैं चलता हूँ!!''

मनोरमा को वहीं रहने को कह दारोगा तेजी के साथ अपने आदमी के पीछे चला गया।

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