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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


लोहगढ़ी के टीले से जहाँ पहले वह सुन्दर इमारत थी मगर अब डरावना खंडहर भांय-भांय कर रहा है लगभग आध कोस उत्तर की तरफ एक छोटा-सा शिवालय है जिसको चारों तरफ से बेल के अनगिनत पेड़ों ने कुछ इस तरह पर घेर रखा है कि वहाँ एक गुंजान कुंज का-सा दृश्य बन गया है और दिन को भी उस जगह कुछ अन्धकार ही रहा करता है।

शिवालय यद्यपि छोटा-सा ही है मगर काले पत्थर का है उस पर बहुत ही सुन्दर नक्काशीदार काम बना हुआ है और इसके भीतर जो शिवलिंग बना हुआ है वह भी बहुत ही सुन्दर और कीमती है। किस धातु का बना है इसका तो पता नहीं लगता मगर प्राचीन बहुत मालूम देता है और उसके सामने की तरफ संगमर्मर के छोटे चबूतरे पर तांबे का एक छोटा-सा–नन्दी भी बना हुआ है। बस इसके सिवाय और कोई सामान उस मन्दिर में नहीं है।

इस समय दोपहर की कड़कती धूप में भी इस शिवालय में और इसके आसपास ठंडक है और यही सबब है कि उस नौजवान ने जो एक तेज घोड़े पर सरपट अभी पहुंचा है आकर सन्तोष की एक बहुत लम्बी सांस खींची है। और घोड़े को बागडोर से बांध खुद दुपट्टे से हवा करता हुआ मन्दिर के कमर-भर ऊंचे सभा मण्डप पर एक खम्भे से उठंग कर बैठ गया है।इस नौजवान का चेहरा एक हल्की नकाब से ढंका होने के कारण इसकी सूरत देखी नहीं जा सकती फिर भी हम पाठकों को बताये देते हैं कि ये जमानिया के राजा गोपालसिंह हैं मगर इसकी हमें कुछ भी खबर नहीं कि ये इस समय यहाँ इस तरह अकेले और बेसरो-सामान यहाँ तक कि बिना एक प्यादा भी साथ लिए क्यों नजर आ रहे हैं।

राजा गोपालसिंह को यहाँ आए आधी घड़ी भी न हुई होगी कि बेल के पेड़ों की झुरमुट के बाहर पुन: घोड़े के टापों का शब्द हुआ और एक सवार आता हुआ दिखाई पड़ा जिसे देखते ही गोपालसिंह उठ खड़े हुए। इस सवार का चेहरा भी नकाब से ढका हुआ था मगर गोपालसिंह पर निगाह पड़ते ही इसने अपनी नकाब उलट दी और अब मालूम हुआ कि ये इन्द्रदेव हैं। इन्द्रदेव ने गोपालसिंह को अपनी तरफ आते देखा घोड़े से उतरने में जल्दी की और उसकी लगाम एक डाल में अटका उनकी तरफ बढ़े। दोनों दोस्त गले मिले और तब उसी सभामण्डप पर आकर इस तरह बातचीत करने लगे--

इन्द्र० : बारे आप आ तो गये! मुझे उम्मीद न थी कि कामकाज और ब्याह की झंझटों में पड़े हुए आपको इतनी फुरसत मिल सकेगी।

गोपाल० : भला तुम्हारा हुक्म पहुँचे और मैं आऊं नहीं! हाँ यह ताज्जुब जरूर है कि वह कौन-सा ऐसा काम आ पड़ा जिसके लिए तुमने मुझे यहाँ बुलाना जरूरी समझा और साथ ही यह भी लिख भेजा कि ‘तुम्हारे ब्याह में मैं शरीक न हो सकूंगा’।

इन्द्र० : एक ऐसा ही काम आ गया....

गोपाल० : (बात काटकर) तुम जानते ही हो कि मेरी इस शादी के बारे में कैसी-कैसी नोकझोंक हुई, बेचारे बलभद्रसिंह को कैसी-कैसी-मुसीबतें उठानी पड़ीं खुद पिताजी की जान सम्भवत: इसी कारण गई, और मैं भी कैसी-कैसी मुसीबतों में पड़ा कि अभी तक बड़ी मुश्किल से अपनी जिन्दगी कायम रक्खे हुआ हूँ, और अब तुम कहते हो कि ब्याह में न आऊँगा, भला तुम ही न रहोगे तो मैं कैसे क्या करूंगा और कैसे अपने को निरापद ही समझूंगा? वेदी पर बैठा-बैठा भी मैं कातिल के खंजर से डरता रहूँगा!

इन्द्र० : (हंस कर) नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, ऐसी काली तस्वीर मत खेंचिए। अब न तो बलभद्रसिंह ही को और न आपको ही इस ब्याह से किसी तरह का खतरा है।

गोपाल० : यह कैसे आप कह सकते हैं! क्या आप भूल गए कि खुद आप ही की राय से मैंने ऐयार बिहारी और हरनाम को बलभद्रसिंह की हिफाजत के लिए भेजा हुआ है और मेरी जान की हिफाजत आपका वह शागिर्द कर रहा है जिसे आपकी आज्ञानुसार मैंने अपना खास खिदमतगार बनाकर महल में रख छोड़ा है।

इन्द्र० : इसीलिए तो मैंने आपको यहाँ बुलाने की तकलीफ ही दी है जिसमें आप कुछ जान लें और बेफिक्री से सब कामकाज और हंसी-खुशी का जश्न करें क्योंकि एक बहुत ही जरूरी करण आ पड़ने से मैं तिलिस्म के अन्दर जा रहा हूँ जहाँ से कितने दिनों बाद लौट सकूंगा कुछ कह नहीं सकता!

गोपाल० : आप तिलिस्म में जा रहे हैं!

इन्द्र० : जी हाँ, और किस वास्ते सो भी सुन लीजिए क्योंकि आपके लिए यह बात जान रखना जरूरी है। आपको यह तो मालूम है कि प्रभाकरसिंह आजकल लोहगढ़ी का तिलिस्म तोड़ रहे हैं।

गोपाल० : हाँ, आपने मुझसे कहा था कि लोहगढ़ी का तिलिस्म प्रभाकरसिंह और मालती के नाम पर बांधा गया है और वे उसे तोड़ रहे हैं।

इन्द्र० : वे दोनों अपना काम करीब-करीब समाप्त कर चुके हैं। अगर बीच ही में एक नई झंझट पैदा न हो गई तो आज इस समय उन्हें इसी शिवालय की राह वहाँ से बाहर निकल आना चाहिए था।

गोपाल० : झंझट कौन-सी पैदा हो गई?

इन्द्र० : तिलिस्म के अन्दर न-जाने किस तरह से कोई दुष्ट जा पहुंचा है जो अपने को ‘तिलिस्मी शैतान’ कहता है। उसने उन दोनों को बहुत तंग किया है। कई कैदी जो इस तिलिस्म के अन्दर से मिले थे उन्हें कहीं उठा ले गया है, मालती को कहीं बन्द कर दिया है और खुद प्रभाकरसिंह की जान का ग्राहक बन गया है। वह तो कहिए कि प्रभाकरसिंह बहुत ही बहादुर ताकतवर और दिलेर आदमी है नहीं तो अब तक न-जाने क्या गजब हो गया होता।

गोपाल० : (ताज्जुब से) ऐसा! मगर तिलिस्म के अन्दर किसी गैर का घुस जाना और इस तरह की कार्रवाइयां करना तो बड़ी असम्भव बात मालूम होती है।

इन्द्र० : बेशक ताज्जुब की और तिलिस्मी नियमों के एकदम खिलाफ बात है और इसीलिए मेरे लिए तिलिस्म के अन्दर जाकर इस बला को दूर करना जरूरी हो गया है। जिस तरह की खबरें सुनने में आई हैं उनसे तो यही जान पड़ा कि प्रभाकरसिंह का यह दुश्मन बहुत ही जबरदस्त है और उसे खोजकर तिलिस्म के बाहर निकालने में मुझे काफी तरद्दुद उठाना पड़ेगा। इसमें कितने दिन लग जायेंगे इसका भी कुछ ठीक नहीं है और साथ ही यह काम है भी जरूरी इसलिए मैं आपकी शादी के जलसे में शरीक होने से माफी चाहता हूँ।

गोपाल० : खैर जब ऐसा बीहड़ मामला है तो मैं आपको रोक नहीं सकता मगर फिर कहिये कि मेरी हिफाजत कैसे होगी?

इन्द्र० : मैंने कहा न कि आपको अब किसी तरह से कोई डर नहीं रह गया है। जो आपका सबसे बड़ा दुश्मन था वह जान से हाथ धो चुका और अब आप बिल्कुल निश्चिन्त होकर काम कर सकते हैं बशर्ते कि आपने मेरे कहे मुताबिक सब कार्रवाई कर डाली हो।

गोपाल० : जो-जो काम आपने कहा था वह सब मैंने पूरा कर दिया है। हेलासिंह और उसकी स्त्री जेलखाने में भेज दिये गये हैं, सुकान १ गिरफ्तार कर लिया गया है और वे सभी लोग जिनके बारे में आपने बतलाया था इस समय हिरासत में हैं, हाँ सिर्फ एक बात रह गई है, रघुबर सिंह यानी जैपालसिंह का कहीं पता नहीं चलता, वह एक वही सिर्फ मेरे काबू में नहीं आया या फिर आपके गुरुभाई साहब छूटे हुए हैं! (१. चन्द्रकांता सन्तति में यह नाम आ चुका है!)

इन्द्र० : हाँ जैपाल आपको नहीं मिला होगा, उसे भूतनाथ ने पकड़ लिया और कहीं भेज दिया है।

गोपाल० : मगर आपकी वह बात मेरी समझ में नहीं आई जो आपने कही कि मेरा बड़ा दुश्मन जान से हाथ धो चुका है?

इन्द्र० : (मुस्कुरा कर) मेरा इशारा मुन्दर की तरफ था। आपके दुश्मनों का इरादा यही था कि लक्ष्मी देवी से आपकी शादी न होने देकर मुन्दर को आपको गले मढ़े और उसके जरिये आप पर हुकूमत करें। लोहगढ़ी उड़ाकर भूतनाथ ने अपनी जान तो दी मगर आपको निष्कंटक कर गया यानी मुन्दर और उसके साथ-साथ नन्हों तथा गौहर की जीवन-लीला समाप्त करता गया अस्तु आपको अब इधर से कोई डर नहीं है।

गोपाल० : (चिन्ता के साथ) और अगर वे किसी दूसरी को उसकी जगह भरती करने की कोशिश करें तब?

इन्द्र० : इसीलिए मैंने आपको राय दी है और बलभद्रसिंह को भी इस बात पर राजी कर लिया है कि शादी में आप लड़की वाले के यहाँ न जांय बल्कि बलभद्रसिंह आपके महल में अपनी लड़की को लाकर उसका विवाह आपके साथ कर दें। विवाह के पहले ही वे दोनों जब आपके घर में और आपकी हिफाजत के अन्दर आ जायेंगे तो फिर कौन-सा तरद्दुद या डर पैदा हो सकता है!

गोपाल० : खैर आप समझ लीजिए, मुझे तो जैसे-जैसे जो-जो कहिएगा करता जाऊंगा, भला-बुरा सब आपके सिर रहेगा।

इन्द्र० : (हंसकर) खैर तो आप अपना ईश्वर कुछ देर के लिए ही मुझे ही समझ लीजिये इसमें भी आपका कुछ अनिष्ट न होगा इसकी जिम्मेदारी मैं उठाये लेता हूँ।

गोपाल० : मगर हाँ यह तो कहिए कि आप अपने गुरुभाई साहब को क्यों अछूता छोड़ते जा रहे हैं! मुझे तो बार-बार उन्हीं के ऊपर क्रोध आता है।

इन्द्र० : (एक लम्बी सांस लेकर) अभी समय नहीं आया- इसके सिवाय इस विषय में मैं भी अभी और कुछ न कहूँगा!

गोपाल० : तो खैर फिर मैं भी इस विषय में कुछ न कहूँगा और आपके भरोसे अपनी जान सूली पर टांगे रहूँगा?

इन्द्र० : (दिलासा देने के ढंग से) घबराइये नहीं, सब काम का एक समय होता है। दारोगा की किस्मत का फैसला होने का समय भी एक दिन जरूर आयेगा पर अभी नहीं। अभी तो आपको उससे मीठे बने ही रहना होगा, और मुझे आशा है कि उसे अपने ऊपर शक पैदा करने की कोई जगह आप दे न रहे होंगे?

गोपाल० : जरा भी नहीं। आपकी आज्ञानुसार उसे मैं अपना बड़ा बुजुर्ग और रक्षक बनाए हुए हूँ। हर वक्त उसे भाई साहब-भाई साहब कहते मेरा मुंह सूखा करता है, और उसकी इज्जत और खातिरदारी करता हुआ मैं सोचा करता हूँ कि कब आप असली रहस्य मुझे बतायेंगे और कम्बख्त को फांसी की रस्सी में झूलता मैं देखूंगा।

इसका जवाब इन्द्रदेव ने कुछ न दिया और सिर्फ मुस्कराकर रह गए, तब अपने बटुए में हाथ डाल उन्होंने एक चिट्ठी निकाली और गोपालसिंह की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इन्दिरा आपके यहाँ आ गई? गोपालसिंह बोले, ‘‘आज किसी वक्त आ पहुँचेगी।’’ इन्द्रदेव ने कहा, ‘‘तब उसे मेरी तरफ से प्यार देकर यह चिट्ठी दे दीजिएगा क्योंकि शायद मैं उससे भी जल्दी मिल न सकूंगा।’’

गोपाल० : (चिट्ठी लेकर) आखिर तिलिस्म के काम से खाली होकर तो जमानिया आवेंगे या तब भी नहीं?

इन्द्र० : हाँ हाँ, तब तो जरूर ही आऊंगा, मेरा मतलब सिर्फ इस शादी के मौके से था। अच्छा अब कुछ दो-एक जरूरी बातें और भी सुनकर अपने दिल में नक्श कर लीजिए और तब मुझे इजाजत दीजिए क्योंकि देर हो रही है।

इन्द्रदेव राजा गोपालसिंह की तरफ खसक गये और धीरे-धीरे कुछ समझाने लगे। आधे घण्टे से ऊपर समय तक दोनों में बातें होती रहीं जिसके बाद दोनों उठ खड़े हुए। गोपालसिंह अपने घोड़े पर सवार हुए इन्द्रदेव ने उन्हें मन्दिर की सरहद के बाहर पहुंचा दिया और तब साहब सलामत के साथ उन्हें विदा कर पुन: मन्दिर की तरफ लौट पड़े।

अभी मन्दिर की सीढ़ियों पर पैर रख ही रहे थे कि पीछे से किसी की आहट पा घूमे। देखा तो अपने एक शागिर्द को बड़ा-सा गट्ठर पीठ पर लादे तेजी के साथ लपके आते पाया। बात की बात में वह इनके पास पहुंच गया और सीढ़ी के करीब पहुंच इन्हें प्रणाम कर खड़ा हो गया। इन्द्रदेव ने गठरी उतारने में उसकी मदद करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे आने में कुछ देर हो गई, कोई नई बात तो नहीं हुई?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘जी कुछ नहीं, मैं कुछ पहले ही यहाँ आ गया होता पर राजा गोपालसिंह को यहाँ देख सामने आना मुनासिब न समझ बाहर ही रुका रह गया।’’ इन्द्रदेव ने पूछा, ‘‘बाकी के लोग कहाँ हैं?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘उसी सुरंग वाले मुहाने पर पहुंचते होंगे।’’ जिसे सुन इन्द्रदेव ने फिर कुछ बात न की और दोनों आदमी गठरी उठाये मन्दिर के भीतर चले गये।

हम ऊपर लिख आये हैं कि इस मन्दिर के अन्दर शिवजी के सामने की तरफ छोटे चबूतरे पर तांबे का एक नन्दी बना हुआ था। इन्द्रदेव इसी नन्दी के सामने गये और उसकी दोनों सींघों को पकड़ जोर कर दाहिने और बाएं तरफ झुकाने लगे। भरपूर जोर लगाने के बाद वे सींघें अपनी जगह से कुछ-कुछ टेढ़ी होने लगीं और तब धीरे-धीरे एकदम झुक गईं। सींघों का झुकना था कि नन्दी का मुंह खुल गया। इन्द्रदेव ने मुंह में हाथ डाल दिया और उसकी जुबान को किसी खास ढंग से ऐंठा।एक हल्की-सी आवाज हुई और साथ ही उस चबूतरे का जिस पर नन्दी बैठा हुआ था सामने वाला हिस्सा अलग होकर नीचे उतरने लायक ऐसा रास्ता दिखाई पड़ने लगा। वह गठरी उठाये हुए इन्द्रदेव और उनका शागिर्द उसी रास्ते में उतर गये और उनके जाने के कुछ देर बाद एक आवाज के साथ वह पुन: ज्यों-का-त्यों बन्द हो गया।

एक पतली और लम्बी सुरंग के अन्दर आगे-आगे इन्द्रदेव और उनके पीछे-पीछे गट्ठर उठाये उनका शागिर्द जाने लगा। सुरंग पेचीली और बल खाई हुई थी तथा जगह-जगह पर उसमें दरवाजे भी पड़ते जाते थे जिन्हें इन्द्रदेव किसी तरकीब से खोलते-बन्द करते हुए जा रहे थे। लगभग दो घड़ी के इन दोनों को इस सुरंग में चलना पड़ा और तब एक आखिरी दरवाजा खोलने पर इन्द्रदेव ने अपने को एक छोटे दालान में पाया जिसके सामने छोटा-सा मैदान और उसके अन्त में कई इमारतें दिखाई पड़ रही थीं। अपने शागिर्द को इन्द्रदेव ने अपना बोझ जमीन पर रख कुछ देर सुस्ता लेने को कहा और खुद दालान की तरफ बढ़ गये जहाँ की दीवार में पच्चीकारी के काम की एक इमारत की तस्वीर पड़ रही थी। इन्द्रदेव इस तस्वीर के पास पहुंच उसे गौर से देखने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने तस्वीर के कोने में एक जगह हाथ रखा और जोर से दबाया, इसके साथ ही उस तस्वीर के कई हिस्से चमकने लगे। इन्द्रदेव ने चमकते हुए हिस्सों को बड़े गौर से देखा और कहा, ‘‘अभी तक तो सब ठीक मालूम होता है, खैर आगे चलना चाहिए।’’ इन्द्रदेव ने कोई तरकीब ऐसी की जिससे तस्वीर का चमकना बन्द हो गया और वे पुन: उस जगह लौटे जहाँ अपने साथी को सुस्ताने छोड़ गए थे, मगर ताज्जुब की बात यही थी कि न तो उनका शागिर्द कहीं दिखाई पड़ा और न उसका गट्ठर ही नजर आया। शायद किसी जरूरी काम से सामने के मैदान में चला गया हो यह सोचकर इन्द्रदेव दालान के सिरे तक चले गये और ‘‘शंकर, शंकर’’ करके आवाज देने लगे। उनकी तेज आवाज सब तरफ गूंज उठी मगर कहीं से जवाब न मिला और न उनका शागिर्द ही कहीं नजर पड़ा यह एक ऐसी बात थी जिसने इन्द्रदेव को घबड़ा दिया और वे कुछ चिन्ता के साथ नीचे वाले मैदान में उतर उस आदमी की तलाश करने लगे।

उस छोटे-से मैदान में किसी को तलाश करने में देर ही क्या लग सकती थी और किसी को छिपने भी क्या जगह मिल सकती थी। फिर इन्द्रदेव ने अच्छी तरह उसका कोना-कोना ढूंढ डाला बल्कि उसके बाद पड़ने वाली इमारतों तक भी जाकर देखा आए जिनकी निचली मंजिलों में कोई दरवाजा ऐसा न था जो इस मैदान में खुला हो, मगर कहीं शंकर का पता न लगा अस्तु बहुत चिन्तित होकर थोड़ी देर बाद फिर अपने स्थान पर लौट आए और एक जगह खड़े होकर सोचने लगे कि शंकर कहाँ चला गया या क्या हो गया! आपसे आप किसी तिलिस्म राह से कहीं चला गया हो इसकी उम्मीद तो हो ही नहीं सकतीं थी क्योंकि उसको तिलिस्मी हाल कुछ भी मालूम न था, और कोई दुश्मन आकर उसे पकड़ ले गया होगा इसकी भी आशंका न थी क्योंकि एक तो इस जगह किसी दुश्मन का आना असम्भव था।दूसरे अगर किसी से हाथापाई हुई तो भी शंकर ऐसा कमजोर न था कि सहज ही पकड़ा जाता और एक आवाज तक न दे पाता, अस्तु बात विचित्र और घबरा देने वाली जरूर थी। इन्द्रदेव कुछ देर तक दालान में सोचते रहे और तब पुन: दो बार ‘‘शंकर, शंकर’’ पुकारने और कोई उत्तर न पाने पर उसी तस्वीर की तरफ पलटे जिधर से इस दालान में आते ही रुक गये थे मगर उसी समय अपने पीछे कुछ आहट सुन वे चमक कर रुक गये, एक खिलखिलाहट की आवाज सुनाई पड़ी जिसने उन्हें चौंका दिया और वे कुछ घबराकर बोले, ‘‘यह कौन हंसा?’’

जवाब में फिर वैसी ही हंसी सुनाई पड़ी और तब एक डरावनी आवाज आई- ‘‘मैं!’’

इन्द्र० : तुम कौन?

आवाज: मैं वही जिसे खोजने तुम यहाँ आये हो।

इन्द्र० : अर्थात्?

आवाज : तिलिस्मी शैतान।

इन्द्र० : तुम कहाँ हो?

आवाज : इसी जगह, तुम्हारे सामने ही तो खड़ा हूँ।

इन्द्र० : मगर मैं तो तुम्हें देख नहीं पाता!

आवाज : तब इसी से समझ लो कि तुम मुझे किस तरह गिरफ्तार करके तिलिस्म के बाहर निकाल सकोगे जिस काम की अभी-अभी तुम गोपालसिंह से डींग मार रहे थे।

इन्द्र० : (ताज्जुब से) यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

आवाज : (हंसकर) मैं वहाँ तुम दोनों के पास ही खड़ा तुम्हारी बातें सुन रहा था मगर तुम लोग मुझे देख नहीं सके।

इन्द्र० : अगर ऐसा ही है तो जरूर तुममें एक ऐसी शक्ति है जिसकी बदौलत तुम जो चाहो सो कर सकते हो? मगर यह तो कहो कि तुम मेरे सामने प्रकट भी हो सकते हो या नहीं!

आवाज : हाँ-हाँ, मैं तुम्हारे सामने प्रकट हो सकता हूँ मगर अभी वैसा करने की मेरी भी इच्छा नहीं है।

इन्द्र० : क्यों?

आवाज : मेरी खुशी!

इन्द्र० : (कुछ देर चुप रहकर) तब तुम क्या चाहते हो?

आवाज : बस यही कि तुम मेरे मामले में दखल न दो और चुपचाप इस तिलिस्म के बाहर चले जाओ।

इन्द्र० : मगर ऐसा तो नहीं हो सकता, मुझे यहाँ कुछ बहुत ही जरूरी काम करने हैं।

आवाज : (हंसकर) जिनमें एक मेरा गिरफ्तार करना भी है। मगर खैर, मैं तुम्हें होशियार किये देता हूँ, अगर तुम मेरी बात न मानोगे तो तुम्हारी भी वही गति होगी जो तुम्हारे शागिर्द शंकर की हुई है।

इन्द्र० : सो क्या?

आवाज : उसे मैंने चुपचाप यहाँ से चले जाने को कहा मगर वह नहीं गया, लाचार मुझे उसे तिलिस्म में बन्द कर देना पड़ा।

इन्द्र० : क्या तुम मेरे साथ भी वही करना चाहते हो?

आवाज : बेशक अगर तुम चुपचाप इस जगह के बाहर न हो जाओगे और मुझे जो कुछ मैं कर रहा हूँ करने न दोगे तो लाचार मुझे ऐसा ही करना पड़ेगा।

इन्द्र० : मगर ऐसा नहीं हो सकता।

इन्द्रदेव यद्यपि उस तिलिस्मी शैतान से बातें कर रहे थे, मन ही मन बहुत परेशान और घबराये हुए भी थे कि यह क्या बला है, इस जगह कैसे आ पहुंचा, और अब क्या करना चाहता है? वे जो कुछ देख-सुन रहे थे वह तिलिस्मी नियमों के बिल्कुल खिलाफ बात थी। इन्द्रदेव जमानिया तिलिस्म के दारोगा थे और तिलिस्म के अन्दर बेरोकटोक आने-जाने की शक्ति अगर किसी में थीं तो केवल उन्हीं में यद्यपि उसके कुछ हिस्से ऐसे भी थे जिनमें वे भी हर वक्त नहीं जा सकते थे।

ऐसी अवस्था में एक अनजान अद्भुत् व्यक्ति का तिलिस्म के अन्दर आ जाना और खुद उन्हीं पर रोब जमाना बेशक ताज्जुब की बात थी जिसका रहस्य क्या हो सकता है इसे बहुत सोचने पर भी वे समझ न पा रहे थे।

इन्द्रदेव को फिक्र में पड़ा और कुछ सोचता पा फिर आवाज आई, ‘‘इन्द्रदेव तुम बेकार सोच में पड़े हो! शायद मैं कौन हूँ और कैसे मुझे अपने बस में कर सकते हो यही तुम सोच रहे होगे! मगर इसका पता तुम पा नहीं सकते। जब तक मैं खुद न बताऊं मेरा कोई असली भेद नहीं जाना जा सकता और न कोई यह समझ सकता है कि मैं कौन हूँ। मगर खैर, तुम्हें कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं, मैं अगर तुम्हारा दोस्त नहीं हुआ तो दुश्मन भी नहीं हूँ और कम-से-कम इस वक्त तुम्हारा कोई अनिष्ट करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है, लेकिन तुम अगर अपनी कोई कार्रवाई करोगे तो मेरे काम में बाधा पड़ेगी और तब शायद मुझे अनिच्छा-पूर्वक तुमको भी नुकसान पहुंचाना पड़ जाय।

इन्द्र० : तुम्हारा काम कौन-सा?

आवाज : मैं तिलिस्मी शैतान हूँ और तिलिस्म की हिफाजत मेरे जिम्मे है। इस तिलिस्म को नुकसान पहुंचाने की नीयत से कुछ लोग यहाँ घुस आए हैं जिनका हाल तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम मगर जिन्हें मैं आज और अभी इस जगह के बाहर कर सकता हूँ। अगर वे शीघ्र ही निकाल न दिये गये तो बहुत बड़ा फसाद बर्पा करेंगे।

इन्द्र० : इसका सबूत?

आवाज : सबूत? अच्छा देखो सबूत भी मैं तुम्हें दिखाता हूँ!

कुछ देर के लिए सन्नाटा हो गया और तब उस दालान के दूसरे सिरे पर कुछ हल्की-सी खटके की आवाज आई, ‘‘आओ और देखो।’’ इन्द्रदेव आगे बढ़े और उस दरवाजे के पास पहुंचकर देखने लगे।

एक छोटी कोठरी दिखाई पड़ी जिसका सफेद चूने का फर्श इस समय खून के छींटों से लाल हो रहा था। कोठरी के बीचोंबीच में किसी औरत की कटी हुई कलाई पड़ी हुई थी! झुककर देखने से दरवाजे के बगल ही में मगर जरा आड़ में, एक लाश भी दिखाई पड़ी और दूसरे कोने में खून से लथपथ किसी औरत का सिर दिखाई पड़ा।जिसके बड़े-बड़े बाल जमीन पर छिटके हुए थे। यह सब एक ऐसा दृश्य था जो मामूली कलेजे वालों का सिर घुमा देता मगर इन्द्रदेव ने कोशिश कर अपना दिल मजबूत रखा और अपना सिर कोठरी के अन्दर कर यह देखने लगे कि वह लाश किसकी है।

न-जाने इन्द्रदेव को क्या दिखाई पड़ा कि वे एकदम से चौंक पड़े और बेतहाशा उस कोठरी के अन्दर घुस गये। एक भारी आवाज हुई जिसके साथ ही उस कोठरी का दरवाजा बेमालूम तौर पर बन्द हो गया और शैतान की डरावनी हंसी सब तरफ गूंज उठी।

अब हम थोड़ी देर के लिए इन्द्रदेव का साथ छोड़ तिलिस्म के अन्दर चलते और देखते हैं कि प्रभाकरसिंह की क्या कैफियत है।

दोपहर का वक्त है। एक खुशनुमा बाग में नहर के किनारे प्रभाकरसिंह बैठे अपनी तिलिस्मी किताब पढ़ रहे हैं। उसे थोड़ी दूर पर भुवनमोहिनी पेड़ों और झाड़ियों में कुछ फल तलाश करती हुई फिर रही है, चारों तरफ एकदम सन्नाटा है।

यकायक प्रभाकरसिंह ने सिर उठाया। उनके कान में किसी तरह की भारी आवाज गई जिसने उनका ध्यान भंग कर दिया। वे चारों तरफ देखने लगे, फिर वैसी ही आवाज हुई और अबकी बार प्रभाकरसिंह समझ गए कि यह आहट उधर ही से आ रही है जिधर पेड़ों के झुरमुट समझ भुवनमोहिनी फल तलाश करती हुई घुसी थी। वे उसे आवाज देकर उससे कुछ पूछा ही चाहते थे कि यकायक खुद भुवनमोहिनी दौड़ी हुई उस जगह आ पहुंची और घबराहट के स्वर में प्रभाकरसिंह से बोली, ‘‘भैया-भैया, देखिए उस जगह झाड़ी में एक विचित्र चीज नजर आ रही है!’’ (१. भुवनमोहिनी प्रभाकरसिंह को भैया कहकर पुकारने लगी थी।)

प्रभाकरसिंह ने किताब बन्द करके जेब में रख ली और उसी तरफ चले जिधर भुवनमोहिनी ने बताया था। जंगली मकोय की एक घनी झाड़ी के अन्दर भुवनमोहिनी उन्हें ले गई जहाँ पहुंचने पर प्रभाकरसिंह ने देखा कि जमीन में हाथ-डेढ़ हाथ के पेटे का एक छोटा-सा कुण्ड बना हुआ है, जो बिल्कुल मिट्टी से भरा है।

प्रभाकरसिंह ताज्जुब से बोले, ‘‘यहाँ कौन-सी ताज्जुब की बात है?’’ भुवनमोहिनी ने जवाब दिया, ‘‘यह देखिए’’ और तब पैर से उस कुण्डे का, जो किसी काले पत्थर के एक टुकड़े का बना मालूम होता था, एक कोना जोर से दबाया। कोना दबाने के साथ ही कुण्ड के बीचोंबीच में से एक छोटी-सी सूरत शेर की निकल आई जिसके गले से हल्की आवाज भी निकलती सुनाई पड़ी। भुवनमोहिनी ने कोने पर पैर हटा लिया और वह मूरत फिर कुण्ड के अन्दर समा गई, प्रभाकरसिंह यह तमाशा देख बोले, ‘‘जरूर ताज्जुब की बात है, मगर तिलिस्मी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं है-- अच्छा मैं फिर देखता हूँ।’’

प्रभाकरसिंह वहीं एक साफ जगह बैठ गए और किताब निकालकर पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था--

‘‘यहाँ तक का काम निर्विघ्न समाप्त कर लेने पर हम तुम्हें बधाई देते हैं। अब सिर्फ आखिरी टुकड़ा तोड़ना और उस खजाने को लेना बाकी रह जाता है जो यहाँ पर तुम्हारे लिए ही रखा हुआ है। नाहरकुण्ड के भेद को अगर तुम जान सको तो आगे का काम बिल्कुल सहज होगा क्योंकि वह कुण्ड ही तुम्हें तिलिस्म के उस आखिरी दर्जे तक पहुंचावेगा जिसका हाल हमने ऊपर लिखा। उस दर्जे को तोड़ तुम रत्न-मण्डप में पहुंचों और वहाँ के खजाने पर कब्जा करो--’’

इसके आगे दूसरा विषय था जिससे इस जगह की बात से कोई मतलब न था और इसके पहले भी अब तक कोई ऐसा जिक्र आया न था जिससे प्रभाकरसिंह कोई मतलब निकाल सकते अस्तु वे पुन: गौर के साथ इस मजमून को पढ़ गये। यकायक ‘नाहरकुण्ड’ इस शब्द पर उनका ध्यान गया और वे चौंककर बोले, ‘‘कहीं यही तो नाहरकुण्ड नहीं है! कम से कम वह मूरत जो कुण्ड का कोना दबाने से पैदा होती है शेर की ही मालूम होती है और उसकी आवाज भी वैसी ही डरावनी थी!’’ प्रभाकरसिंह आगे बढ़े और उन्होंने उस कोने को पैर के अंगूठे से दबाया। फिर उसी तरह शेर की वह छोटी मूरत कुण्ड के बीचोंबीच में से निकली जिसके मुंह से वैसी ही आवाज सुनाई पड़ी। प्रभाकरसिंह गौर से उस मूरत को देखते हुए उस स्थान को दबाये रहे। उनका ख्याल यह था कि जब तक वह स्थान दबा रहेगा वह मूरत भी निकली रहेगी मगर ऐसा न हुआ और मूरत की वह विचित्र भारी आवाज बन्द होते ही वह फिर कुण्ड में समा गई!

प्रभाकरसिंह ने भुवनमोहिनी से कहा, ‘‘इस जगह जरूर कुछ भेद है। यह कुण्ड मिट्टी से भरा है और इसके चारों तरफ भी बहुत बड़ा कूड़ा-कतवार है, इसे साफ करना चाहिए।’’

दोनों ने हाथ लगाया और देखते-देखते वह कुण्ड और उसके चारो तरफ की जमीन बिल्कुल साफ हो गई अब गौर करने पर प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि उस जगह जहाँ पर दबाने से मूरत प्रकट होती थी कुछ अक्षर भी खुदे हुए हैं जो इतने बारीक हैं कि साफ पढ़े नहीं जाते। उन्होंने गौर करना शुरू किया और कुछ ही देर में खुश होकर बोले-- ‘‘समझ गया।’’

प्रभाकरसिंह ने पुन: उस कोने को दबाया। फिर वह शेर की मूरत निकल पड़ी पर इस बार जैसे ही वह मूरत निकली दूसरे हाथ से प्रभाकरसिंह ने उसे मजबूती से थाम लिया और इसके बाद उस कुण्ड के बाकी तीनों कोनों को भी किसी खास क्रम से बारी-बारी दबाने के बाद उस मूरत को हाथ से छोड़ अलग हो गए। वह पहले की तरह गायब नहीं हुई और न ही किसी तरह की आवाज उसमें से निकली। प्रभाकरसिंह ने अपना सामान सम्हाला और उस कुण्ड से उतरकर उस मूरत को दोनों हाथों से मजबूत पकड़कर ऊपर की तरफ उठाने लगे। मूरत मजबूत जुड़ी हुई थी मगर प्रभाकरसिंह में भी ताकत भरपूर थी जिसका नतीजा यह निकला कि वह मूरत धीरे-धीरे ऊपर उठने लगी। ज्यों-ज्यों वह ऊपर हो रही थी वह कुण्ड नीचे जमीन में धंसता जाता यहाँ तक कि जब मूरत करीब हाथ भर के बाहर निकल आई तो एक अजीब किस्म की आवाज हुई और साथ ही वह कुण्ड इस तेजी से जमीन के अन्दर धंस गया कि प्रभाकरसिंह न तो उछलकर उसके बाहर निकल सके और न भुवनमोहिनी से ही कुछ कह सके जो उनसे ही दो हाथ फासले पर खड़ी गौर से उनकी कार्रवाई देख रही थी। प्रभाकरसिंह के बदन में एक झटका इस तरह का लगा मानों कोई तिलिस्म हथियार उनके बदन से छुलाया गया हो और इसके बाद ही बेहोश हो गए।

जब प्रभाकरसिंह को होश आया उन्होंने अपने को एक ऐसी जगह में पाया जहाँ वे पहले भी एक बार आ चुके थे। पत्थरों से पटा हुआ लम्बा चौड़ा आंगन चारों तरफ से तरह-तरह की इमारतों से घिरा हुआ था जिसकी बीचोंबीच में लाल रंग की भयानक मूर्ति एक ऊंचे चबूतरे पर बनी हुई थी। यह वही मूरत थी जिसके हाथ में एक बार प्रभाकरसिंह पड़ चुके थे १ मगर अपनी खुश किस्मती से बच गये थे, और उस घटना को यादकर इस समय, तिलिस्म की इस आखिरी मंजिल में उन्हें फिर इसी मूरत से मोर्चा लेना था। प्रभाकरसिंह खड़े होकर अपना सामान सम्हाल ही रह थे कि यकायक उस मूरत ने जो जहाँ वे थे उसके ठीक सामने ही पड़ती थी उनकी तरफ देख अपने होठ फड़फड़ाए और जबान से उन्हें इस तरह चाटा मानों कोई शेर अपना शिकार सामने देख रहा हो। प्रभाकरसिंह उसका यह काम देख हंस पड़े और बोले, ‘‘घबड़ाओ नहीं भूतनाथ, आज मैं तुम्हारी प्यास सदा के लिए बुझाये देता हूँ और जो अद्भुत् चीज तुम्हारे पास है वह भी लिये लेता हूँ।’’ (१. देखिए भूतनाथ सोलहवाँ भाग, पांचवाँ बयान, भूतनाथ की मूर्ति।)

जिस जगह प्रभाकरसिंह खड़े थे, वह एक छोटा दालान था जिसमें संगमरमर का फर्श बिछा हुआ था। प्रभाकरसिंह इसी फर्श को बड़ी गौर से देखते हुए इधर से उधर घूमने लगे। यकायक उनकी निगाह संगमरमर के एक ऐसे टुकड़े पर पड़ी जो औरों से कुछ बड़ा था और जिसका रंग कुछ गुलाबीपन लिए हुए था।इस टुकड़े को देखते ही वे खुश हो गये और इसके पास जा पैर से जोर-जोर से ठोकरें मारने लगे। कुछ ही देर बाद पत्थर एक तरफ से जमीन के अन्दर धंसकर दूसरी तरफ से ऊपर निकल आया, इस तरह मानों बीचोंबीच में से किसी कमानी पर जड़ा हुआ हो। प्रभाकरसिंह अब जमीन पर बैठ गये और उस पत्थर को पंखे की तरह घुमाने लगे। पहले दाहिनी तरफ सात दफे, फिर बाई तरफ पांच दफे और पुन: दाहिनी तरफ नौ दफे घुमाकर उन्होंने उस पत्थर को सीधा किया और तब पुन: पहले की तरह अपनी जगह पर रख हाथ से दबाकर बैठा दिया मगर इसी समय उन्होंने बगल की दीवार में एक खिड़की खुलती हुई देखी। वे उस खिड़की के पास गये और उसके अन्दर देखने लगे।

एक बड़ा-सा कमरा तरह-तरह के विचित्र सामानों से भरा हुआ नजर आया जिन पर से घूमती हुई प्रभाकरसिंह की निगाहें उस कमरे के एकदम अन्तिम कोने पर पहुंची जहाँ एक पलंग बिछा हुआ था। इस पर कोई लेटा-सा दिखाई पड़ रहा था मगर सिर से पैर तक चादर पड़ी रहने के कारण यह पता नहीं लगता था कि वह कौन हैं। प्रभाकरसिंह गौर से देख ही रहे थे कि उनकी निगाह एक दूसरे दरवाजे की तरफ गयी जो खुल रहा था। उन्होंने देखा कि एक कमसिन औरत वह दरवाजा खोलकर कमरे में आई मगर खुली खिड़की की राह प्रभाकरसिंह पर निगाह पड़ते ही चौंककर झपटती हुई उस पलंग के पास सोने वाले के पास पहुंची और उसके पैर को हाथ से दबाती हुई बोली, ‘‘महारानी उठो! महारानी उठो! देखो महाराज कब से यहाँ आकर खड़े हैं!!’’ प्रभाकरसिंह ने देखा कि उसकी बात सुनकर पलंग पर लेटी औरत (क्योंकि वह औरत ही थी) सगबगाई और तब उठकर अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से इनकी तरफ देखने लगी। यह देख प्रभाकरसिंह का कलेजा बल्लियों उछलने लगा कि वह औरत सूरत-शक्ल से ठीक मालती ही लगती थी मगर बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने पर काबू रखा और गौर से चुपचाप देखते रहे कि अब क्या होता है।

पलंग वाली औरत जिसे प्रभाकरसिंह ने मालती समझा था और जिसे उस दूसरी औरत ने महारानी के नाम से संबोधित किया था, उठी और सीधी इनकी तरफ बढ़ी। खिड़की के पास पहुंचकर उसने इनको प्रणाम किया और तब अदब से बोली, ‘‘महाराज, भला दासी पर कृपा तो की! नहीं तो मैं समझती थी कि ब्याह करके महाराज मुझे एकदम ही भूल गये!!’’

ये शब्द चौंका देने वाले थे। ‘ब्याह करके’ इस जुमले ने प्रभाकरसिंह को तरद्दुद में डाल दिया और वे गौर से उस औरत की तरफ देखने लगे जो अपनी साथिन से कह रही थी, ‘‘तू यहाँ खड़ी मुंह क्या ताक रही है।

जल्दी से दरवाजा खोल और जाकर महाराज के लिए कुछ जलपान का बन्दोबस्त कर।’’ ‘जो हुक्म’ कह वह औरत कमरे के एक दूसरे कोने में जाकर प्रभाकरसिंह की आंखों के ओट हो गई और कुछ सायत बाद प्रभाकरसिंह ने उसी खिड़की के बगल में जिसमें से वे देख रहे थे, एक बड़े दरवाजे को पैदा होते पाया, उनके देखते-देखते पत्थर के चार बड़े टुकड़े चारों तरफ खसक गये और बीच में एक बड़ा दरवाजा खुलता दिखाई पड़ा। वह औरत जिसे महारानी के नाम से सम्बोधन किया गया था, इस दरवाजे के पास आ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रभाकरसिंह से बोली, ‘‘महाराज, भीतर पधारिये और कुछ देर के लिए इस दासी की मेहमानदारी कबूल कीजिये।’’

तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह दरवाजे के पास गये जहाँ उस औरत ने बड़ी इज्जत और प्रेम के साथ इनका हाथ पकड़ लिया और अपने पलंग पर ले जाकर बैठाया। इसके बाद ही एक तरफ जा झारी और आफताबा ले आई और इनके हाथ-पैर धुलाये। जिस समय वह प्रभाकरसिंह के पैर धो रही थी, उसकी उंगलियों में कोई चीज देख यकायक प्रभाकरसिंह चौंककर बोल बैठे, ‘‘हैं!

यह क्या है?’’ उस औरत ने ताज्जुब से इनकी तरफ देखा और इन्होंने उसकी उंगली में पड़ी एक अंगूठी की तरफ दिखाकर पूछा, ‘‘यह अंगूठी तुम्हारे पास कैसे आई?’’ ताज्जुब की मुद्रा से वह बोली, ‘‘महाराज, इतनी जल्दी भूल गये! यह आपकी ही अंगूठी है जो आपने ब्याह के बाद मुझे दी थी और मेरी अंगूठी वह देखिये महाराज की उंगली में स्थान पाकर मुझे कृतार्थ कर रही है।’’

वास्तव में यही बात थी। उस औरत की उंगली में प्रभाकरसिंह की अंगूठी थी और प्रभाकरसिंह के हाथ में उस तिलिस्मी महारानी की जिनके साथ उनका ब्याह हुआ था। उस महारानी की सूरत-शक्ल ठीक मालती की तरह थी और यह भी ठीक वैसी ही है तब क्या इसी के साथ उसका विवाह हुआ था! मगर तिलिस्मी किताबों में तो!! प्रभाकरसिंह घबराकर बोले, ‘‘तब क्या सचमुच तुम्हारे ही साथ मेरा विवाह हुआ?’’

जवाब में उसने ताज्जुब के स्वर में कहा, ‘‘जी हाँ, मगर क्या महाराज को इसमें कोई शक है? क्या दासी से कोई कसूर बन पड़ा है या महाराज ही मुझसे कुछ रंज हो गए हैं जो इस तरह के ख्याल कर रहे हैं!’’

प्रभाकरसिंह की जान अजीब पशोपेश में पड़ी हुई थी। वास्तव में इस औरत की शक्ल-सूरत बातचीत चाल-ढाल सब कुछ उसी तिलिस्मी महारानी की-सी थी जिसके दरबार में वे कैदी की तरह पेश किये गए थे। १ अथवा बाद में फिर जिसके साथ बहुत ही अनिच्छापूर्वक उन्हें विवाह करना पड़ा था मगर विवाह के बाद से फिर जिसकी सूरत देखने का उन्हें मौका न पड़ा था। तब बात क्या थी जो प्रभाकरसिंह इतना बौखला रहे थे? अगर एक सुन्दरी जिसके साथ उनका शास्त्रीय रीति से विवाह भी हो चुका था, उन्हें दिखाई पड़ती है तो इसमें घबराने की क्या बात थी? देखिए अभी-अभी सब भेद खुल जाता है। (१. देखें 19 वाँ भाग, तीसरा बयान।)

प्रभाकरसिंह के पैर धो अपने आंचल से उस औरत ने उन्हें पोंछा और तब हाथ जोड़कर बोली, ‘‘दो मिनट के लिए मेरी गैरहाजिरी माफ हो। मालूम नहीं कम्बख्त लौंडियाँ जलपान लाने में क्यों देर कर रही हैं, मैं जाऊं और ले आऊं।’’ प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘हाँ खुशी से जाओ!’’ और तब उठंग कर मानों अच्छी तरह पलंग पर बैठ गये, मगर जैसे ही वह औरत उस कमरे से बाहर गई प्रभाकरसिंह ने अपनी तिलिस्मी किताब निकाली और एक जगह से खोलकर पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था-

‘‘घुमाकर पत्थर को पुन: अपनी जगह पर जमा देना। इसके साथ ही तुम देखोगे कि तुम्हारे पास ही में एक खिड़की खुल गई है जिसकी राह एक औरत आकर तुमसे बातें करने लगी है। वह कोई औरत नहीं तिलिस्मी पुतली है। उसके भुलावे में पड़ना और न उसकी बातें पर ही जाना जिस किसी तरह भी हो उसे काबू में लाना और उसे उठाये हुए सीधे इस लाल मूरत के पास ले आना। उसकी गर्दन को पेंच की तरह बाईं तरफ घुमाना। वह अलग हो जायेगी और उसमें से बहुत-सा खून निकलेगा। सिर का खून तो उस मूरत को पिला देना और धड़ के खून से मूरत का मुंह, सिर, गर्दन, और सारा बदन अच्छी तरह तर करके फौरन ही उसके पास से हट जाना। मगर देखो खबरदार! यह सब करते समय तिलिस्मी हथियार कदापि तुम्हारे बदन से अलग होने न पाये नहीं तो....!’’

इसके बाद महीन अक्षरों में और भी बहुत-सी बातें लिखी हुई थीं जिन्हें प्रभाकरसिंह कई बार पढ़ चुके थे अस्तु उन्होंने पुस्तक बन्द कर दी और उसे जेब के हवाले करने के बाद मन-ही-मन कहने लगे, ‘‘किताब की लिखावट बहुत स्पष्ट है मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि इसी औरत या पुतली के साथ उस दिन मेरा ब्याह भी हुआ था क्योंकि इसकी उंगली में अभी तक मेरी अंगूठी मौजूद है। तब क्या मैं सभी पिछली बातों को भी केवल एक तिलिस्मी खेल समझ लूं! लेकिन अगर ऐसा ही था तब मालती मेरे पास से क्यों अलग हो गई? और अगर मेरा ब्याह सिर्फ एक खेल था तो उससे ब्याह की बात भी....?’’

प्रभाकरसिंह का विचार पूरा न हुआ क्योंकि उसी समय चांदी के एक थाल में तरह-तरह के पदार्थ लिए वही औरत (महारानी) वहाँ आती हुई दिखाई पड़ी। प्रभाकरसिंह ने जल्दी से मन में कहा, ‘‘खैर, अब चाहे जो भी हो और चाहे इस बात में कोई धोखा ही हो मगर मेरे लिए वही करना वाजिब है जो तिलिस्मी किताब में लिखा है!’’ और तब पलंग से उठ खड़े हुए।हाथ का थाल एक संगमरमर की चौकी पर रख वह औरत इनकी तरफ घूमी ही थी कि ये उसके पास जा पहुंचे और कमर में हाथ डाल उसे जमीन से उठा लिया। वह घबरा गई और उसके मुंह से एक चीख की आवाज निकल पड़ी मगर प्रभाकरसिंह ने उसका कुछ ख्याल न किया और उसे उठाये हुए कमरे से बाहर निकल आये। बाहर का दालान और उसके नीचे का सहन पार करते हुए वे सब उस बीच वाली विकराल मूर्ति के पास पहुंचे जो उन्हें आते देख भयानक रीति से अपने होंठ चाटने लगी।

मूरत के पास पहुंचते ही जैसा कि किताब में लिखा था उसी ढंग से उन्होंने उस औरत की गर्दन को उमेठा। तब जाकर कहीं प्रभाकरसिंह की जान में जान आई और उन्हें विश्वास हुआ कि वे अपनी ब्याहता स्त्री की हत्या करने पर मजबूर नहीं किये जा रहे हैं। उन्होंने उस औरत की गर्दन को आसानी से पेंच की तरह घूमते और तब अलग होते हुए पाया। गर्दन अलग होते ही उसके सिर और धड़ से खून की तरह कोई चीज बेतहाशा निकलने लगी। प्रभाकरसिंह ने सिर को उठाकर उस मूरत के होंठों के पासकर दिया और वह मूरत अपनी जबान निकाल-निकाल वह खून पीने लगी। कुछ देर बाद जब सिर से खून का निकलना बन्द हुआ तो उस मूरत के गले से एक सन्तोष की सांस निकली और उसने कहा, ‘‘आह, आज हजारों बरसों की मेरी प्यास इस बहादुर के कारण दूर हुई।’’ मगर प्रभाकरसिंह ने उसकी बातों पर कोई ख्याल न किया और धड़ से निकलने वाले खून से उस मूरत का तमाम बदन तर करना शुरू किया। बहुत जल्दी-जल्दी उन्होंने यह काम भी निपटाया और तब उस औरत की लाश को वहीं फेंक वे अलग जा खड़े हुए क्योंकि उस खून में तेजाब की तरह की कोई तेज गन्ध निकल रही थी जिसने उनका सिर घुमा दिया था।

खून मूरत के बदन से लगाना था कि उसमें एक तरह का पीले रंग का धुंआ उठने लगा और साथ ही एक पीले रंग का पानी उसके बदन से चू-चूकर जमीन पर बहने लगा। प्रभाकरसिंह ने ताज्जुब के साथ देखा कि वह मूरत गल-गलकर छोटी होती जा रही है, यहाँ तक कि घड़ी-भर बीतते-बीतते उसका कद आधे से भी कमती हो गया और उसका आकार भी मूर्ति से बदलकर एक पिण्डी-सा दिखाई पड़ने लगा। थोड़ा समय और बीतने के बाद यह पिण्डिका भी गायब हो गई और कुछ ही देर बाद चारों तरफ फैले हुए उस पीले पानी के सिवाय वहाँ और कुछ भी इस बात को बताने के लिए न बचा कि यहाँ पर अभी-अभी एक विचित्र और भयानक मूर्ति बैठी हुई थी।

अब प्रभाकरसिंह अपनी जगह से उठे। हम पहले लिख आये हैं कि वह डरावनी मूरत एक चबूतरे के ऊपर बनी हुई थी। प्रभाकरसिंह उस चबूतरे के पास पहुंचे और उसकी ऊपरी सतह को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि चबूतरे के बीचोंबीच में एक छोटा-सा गड्ढा बन गया है जिसमें वही पीले रंग का पानी भरा हुआ है जो मूर्ति के बदन से निकल कर चारों तरफ फैल गया था। प्रभाकरसिंह ने अपना तिलिस्मी डण्डा निकाला और गड्ढे के पीले पानी में डुबा दिया। आश्चर्य की बात थी कि डण्डे का स्पर्श होने के साथ ही उस पानी का रंग बदलने लगा और हल्का होकर यह साफ, निर्मल, सफेद रंग का हो गया, यहाँ तक कि कुछ ही देर में ऐसा मालूम होने लगा मानो हाथ भरकर पेटे का एक सफेद संगमरमर का बना कुण्ड स्फटिक की तरह साफ पानी से भरा है जिसके अन्दर एक अद्भुत् चीज पड़ी हुई झलक दिखा रही थी।प्रभाकरसिंह ने कुण्ड में हाथ डाला और वह चीज निकाल ली।

वह चीज क्या थी? पन्ने के एक बड़े टुकड़े को काटकर बनाई हुई एक बेशकीमती चाभी जो लम्बाई में एक बलिश्त से कम न होगी। न-जाने वह किस खजाने या तिलिस्म की चाभी थी। प्रभाकरसिंह उसे पाते ही एकदम गद्गद् हो गये, उन्होंने उसे माथे से लगाया और तुरन्त फिर बड़ी हिफाजत के साथ अपनी कमर में खोंस लिया। अब फिर प्रभाकरसिंह ने उस कुण्ड में हाथ डाला। इस बार वे उसकी तह में किसी चीज या निशानी को खोज रहे थे और शीघ्र ही उन्हें वह भी मिल गई। एक खास जगह पर हाथ रख उन्होंने जोर से दबाया जिसके साथ की एक खटके की आवाज आई और उस चबूतरे का बगली हिस्सा फट वहाँ एक रास्ता दिखाई पड़ने लगा। पतली सीढ़ियों का एक सिलसिला नजर आया जिस पर प्रभाकरसिंह ने कदम रखा और जल्दी-जल्दी नीचे उतरने लगे।

लगभग पन्द्रह या बीस डण्डा सीढ़ियां उतरने के बाद प्रभाकरसिंह को बीस या पच्चीस गज लम्बी सुरंग मिली और उसको भी पार करने पर एक छोटी कोठरी। इस कोठरी को पार कर वे दूसरे कमरे में पहुंचे जिसमें तरह-तरह का सामान भरा हुआ था और एक तरफ बहुत-से सन्दूक भी पड़े हुए थे जिनकी तरफ प्रभाकरसिंह ने कुछ विशेष ध्यान न दिया और उस दरवाजे की तरफ बढ़े जो कमरे के दूसरे सिरे पर दिखाई पड़ रहा था।

इसे खोलने पर उन्हें पुन: एक छोटी कोठरी और उसमें से ऊपर को गई सीढ़ियों का ऊंचा सिलसिला मिला जिसे तय करने के बाद उन्होंने अपने को एक बहुत लम्बे-चौड़े और ऊंचे कमरे में पाया जो अपने दाहिनी बाएं तरफ की कई-कई खिड़कियों की बदौलत बहुत ही रोशन और हवादार हो रहा था। दाहिनी तरफ की खिड़कियों से प्रभाकरसिंह को वही आंगन दिखाई पड़ा जिसमें कभी भूतनाथ की मूरत थी और बाईं तरफ एक खुशनुमा बाग नज़र आया जिसमें जाने की कोई राह दिखाई न पड़ती थी। सामने और पीछे की तरफ कुछ बन्द दरवाजे भी दिखाई पड़े, जिनके बारे में खिड़कियों से झांककर प्रभाकरसिंह समझ गए कि वे इमारत के उसी लम्बे सिलसिले में जाने के लिए हैं जो नीचे आंगन में उन्हें दिखाई पड़ा था।

एक बहुत बड़े और आलीशान कमरे में जो तरह-तरह की सजावट के सामानों तथा झाड़फानूस दीवारगीर शीशे आदि से अच्छी तरह आरास्ता था प्रभाकरसिंह को एक ही नाप के इक्कीस बहुत बड़े-बड़े सन्दूक दिखाई पड़े जो दीवार के साथ जगह-ब-जगह रखे हुए थे मगर जिसमें ताले लगे हुए न थे।प्रभाकरसिंह ने इसमें से एक सन्दूक का ढकना उठाया और देखा कि वह वह सोने के कीमती बर्तनों से भरा है, दूसरे को खोला और उसे जड़ाऊ गहनों से भरा पाया, तीसरे को खोला और उसमें जवाहरात के ढेर पाये, इसी तरह हर एक बक्स में उन्हें एक-से-एक अनूठी बेशकीमती और बादशाहों के भी मन में लालच पैदा कर देने वाली ऐसी दौलत दिखाई पड़ी जिससे उनकी तबियत दंग रह गई और वे बेतहाशा बोल उठे, ‘‘ओफ, जब तिलिस्म के सिर्फ इस हिस्से में इतनी दौलत भरी है तो उस महापुरुष के पास न-जाने कितनी दौलत होगी जिसने इस पूरे तिलिस्म को बनवाया।’’

सब तरह से घूमते हुए प्रभाकरसिंह एक दरवाजे के सामने आकर रुके जिसके ऊपर मोटे-मोटे हरफों में लिखा हुआ था।

‘‘अगर तुम्हारा नाम प्रभाकरसिंह है तो यह सब दौलत तुम्हारे ही लिए है। तिलिस्म तोड़ने पर हम तुम्हें बधाई देते हैं और यह तुच्छ भेंट तुम्हें अर्पण करते हैं साथ ही तुम्हारी स्त्री के लिए कुछ सौगात देते हैं जो दरवाजे के अन्दर मिलेगी।’’

हाथ से धक्का देते ही वह दरवाजा खुल गया और प्रभाकरसिंह ने अपने को एक गोल कमरे में पाया जिसके बीचोंबीच में सोने का एक सिंहासन रखा हुआ था। इस कमरे के चारों तरफ गोलाकार छोटे-बड़े पचासों ही सन्दूक पड़े हुए थे जिनमें ढकने कुछ खुले हुए थे और कुछ के बन्द थे। प्रभाकरसिंह एक सन्दूक के पास पहुंचे और उसे कीमती कपड़ों से भरा पाया, दूसरे में सोने के जनाने गहने भरे देखे, तीसरे में जड़ाऊं गहनों की भरमार पाई, चौथे में कीमती-कीमती साड़ियां भरी देखीं।इसी तरह हर एक को कीमती सामानों से भरा पाया जिनकी सैर करते हुए पूरे कमरे का चक्कर लगा आये और तब एक-दूसरे दरवाजे के सामने पहुंचे जिस पर यह लिखा हुआ था, ‘‘यह सब सामान तुम्हारी स्त्री के लिए है इसके अलावा कौतूहल के तौर पर अपने दोस्तों को दिखलाने के लिए कुछ तिलिस्मी खिलौने इस कमरे में रखे हुए हैं जिनसे काम लेने की तरकीब उनके साथ है।’’ (१. मालती इसी कमरे में पहुंची, देखिए पन्द्रहवाँ भाग, दसवाँ बयान।)

प्रभाकरसिंह ने इस दरवाजे को भी खोला और साथ ही चौंक गए क्योंकि अपने सामने ही तिलिस्मी शैतान को खड़े हुए देखा।

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