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भूतनाथ - खण्ड 7

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :290
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8366
आईएसबीएन :978-1-61301-024-2

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भूतनाथ - खण्ड 7 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


तिलिस्मी महारानी के जिस दरबारी कमरे या दालान में हमारे पाठक पहले एक बार जा चुके हैं उसी में आज उन्हें कुछ देर के लिए पुन: चलना पड़ेगा।

आज उस जगह का ठाठ बिल्कुल निराले ही ढंग का हो रहा है। यद्यपि वे कीमती झाड़-फानूस दीवारगीरें और सजावट के सामान तो पहले की तरह इस वक्त भी मौजूद हैं मगर उन जड़ाऊ कुर्सियों और सिंहासनों तथा कारचोबी के काम की गद्दियों आदि का वहाँ नाम-निशान भी नहीं है और इसके बदले उस दालान के बीचोंबीच में किसी तरह के धार्मिक कृत्य का सब सामान नजर आ रहा है। बीचोंबीच में बहुत ही सुन्दरता के साथ और कीमती सामानों से सजी हुई एक छोटी वेदी बनी हुई है जिसके सामने अग्निकुण्ड और उसके चारों तरफ के साफ मखमली फर्श पर कई सुन्दर रेशमी आसन बिछे हुए हैं। फूल, पत्तों, गुच्छों आदि से वह दालान बहुत ही सूफियानेपन के साथ सजाया हुआ है और तरह-तरह के अन्य बहुत सामान जो वहाँ चारों तरफ फैले हुए हैं बता रहे हैं कि शायद यहाँ कोई शादी ब्याह या इसी तरह का कार्य अभी-अभी होकर समाप्त हुआ है।

और हमारा ख्याल ठीक भी है। वह देखिए बगल वाले उस छोटे कमरे में खड़े प्रभाकरसिंह एक तस्वीर की तरफ एकटक निगाहों से देख रहे हैं और कीमती गहने-कपड़ों से आरास्ता दो कमसिन लौंडियाँ उनके बदन पर से उस खास पोशाक को उतार रही हैं जो हमारे यहाँ केवल शादी के मौके पर ही पहनी जाती है। यह बात हमें बताती है कि जरूर यहाँ किसी की शादी हुई है और हो न हो प्रभाकरसिंह ही उस बारात के दुल्हा हैं। देखिए, जो कुछ है अभी पता लग जाता है। आइए, हम लोग चलकर पहले यह देखें कि वह तस्वीर किसकी है जिसकी तरफ प्रभाकरसिंह इस तरह हसरत-भरी निगाहों से देख रहे हैं। हैं, सोने की कीमती जड़ाऊ चौखटे में जड़ी यह तस्वीर तो मालती की है! मगर यहाँ कहाँ से आई? और प्रभाकरसिंह ही इसे इस तरह निगाहों से क्यों देख रहे हैं कि मानों अब जिन्दगी-भर उसे देखने की आशा न हो!

प्रभाकरसिंह ने आखिर एक लम्बी सांस लेकर उस तस्वीर से आँखें हटा लीं और एक लौंडी की तरफ देखकर कहा, ‘‘तो क्या मैं मान लूं कि जो कुछ तुमने कहा है वह सही है और अब मैं मालती को किसी तरह नहीं देख सकता।’’

लौंडी ने यह सुन हाथ जोड़कर जवाब दिया, ‘‘मैंने महाराज से बहुत सही-सही अर्ज किया। सचमुच मालती रानी का ब्याह हमारी महारानी के ही एक रिश्तेदार से अभी-अभी होने वाला है और इस जगह से सब लोग, खुद महारानी और उनके वे संबंधी जिन्हें आपने अभी-अभी यहाँ देखा, इसी दूसरे ब्याह की तैयारी के लिए यहाँ से चले गए हैं। मैंने महारानी का वह संदेशा अभी-अभी आपको सुनाया कि उन्होंने हाथ जोड़कर आपसे अर्ज किया है कि वे एक दूसरे ब्याह की फिक्र में पड़ गई हैं और इसीलिए कुछ समय की मोहलत आपसे चाहती हैं। ब्याह के काम से फारिग होते ही वे आपकी खिदमत में हाजिर होंगी।’’

प्रभाकर० : (एक लम्बी सांस लेकर) मगर मेरी समझ में नहीं आता कि मालती ने यह बात कैसे मंजूर की?

लौंडी : इस बारे में लौंडी की कुछ कहने की ताब नहीं....

प्रभाकर० : (कुछ चौंककर) इसका क्या मतलब? क्या तुम्हें इस बारे में कोई जानकारी है या तुम जान-बूझकर इस भेद को छिपा रही हो?

लौंडी : (कुछ घबराकर)....जी....नहीं मेरा....यह मतलब....नहीं....

प्रभाकर० : नहीं-नहीं, जरूर ऐसी ही कोई बात है! तुम्हारी सूरत से जाहिर होता है कि तुम कुछ जानती हो मगर मुझसे बताने से हिचकती हो।

लौंडी : (हाथ जोड़कर) महाराज, हम लौंडियों की मजाल ही क्या जो ऐसा कर सकें और फिर हम लोगों का रुतबा ही कितना कि राजदरबार की गुप्त बातों की हमें खबर हो? यों ही उड़ती-उड़ती कभी-कभी कोई बात सुनने में आ जाती है जिस पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता।

प्रभाकर० : (कुछ डपटकर) जल्दी कहो तुम्हें इस मामले में क्या मालूम है? खबरदार, सब बात सच-सच मुझसे कहो और जल्दी कहो, नहीं तो याद रखो, तुम्हारे हक में अच्छा न होगा।

लौंडी : (जो इनकी डपट से बिल्कुल ही डर और घबरा गई थी) महाराज....मेरी....जान!

प्रभाकर० : मेरे जीते-जी तुम पर किसी तरह की आंच नहीं आ सकती। तुम जल्दी कहो मगर जो कुछ कहो, सच कहो।

लौंडी : महाराज से जो कुछ कहूँगी वह बिल्कुल सच-सच कहूँगी मगर महारानी के कानों तक अगर वह बात चली गई तो मालूम नहीं वे क्या करें!

प्रभाकर० : कोई हर्ज नहीं, मैं उनसे तुझे छुटकारा दिला देने का वचन देता हूँ। बस अब देर न कर, जल्दी कह कि मालती क्योंकर दूसरे से ब्याह करने के तैयार हो गई?

लौंडी : (हिचकिचाती हुई) मैंने....मैंने उड़ती-उड़ती....यह खबर सुनी थी कि मालती रानी बहुत दिनों से उसको चाहती थीं जिसके साथ ब्याह करने का महारानी ने उनसे आग्रह किया। इसी तिलिस्म में ही कहीं उनसे भेंट हुई थी और यहीं दोनों में प्रेम....

प्रभाकरसिंह के कानों को विश्वास न हुआ। वे यह क्या सुन रहे थे! मालती और बेवफा! मालती और गुप्त रीति से किसी गैर से मुहब्बत करे, जो बार-बार उनसे यह कहा करती थी कि मेरी शादी आप ही से ठीक हुई थी और मैं तो आप ही को अपना पति समझती हूँ।अगर इस लोक में नहीं तो परलोक में जाकर आपसे मिलूंगी, वही मालती ऐसी कुटिला निकली! नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मालती ऐसी दगाबाज कभी नहीं हो सकती। जरूर यह लौंडी झूठ बोल रही है और मालती की तरफ से झूठा शक उनके मन में पैदा कर अपना कोई गंदा मतलब पूरा करना चाहती है इत्यादि बातें सोचते-सोचते उन्हें गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने अपने कमरबंद में खुंसे खंजर के कब्जे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘बस, खबरदार जो इस तरह की झूठी बात जुबान पर लाई! भला मालती कभी जीते-जी ऐसा कर सकती है!’’

लौंडी ने कुछ जवाब न देकर सिर झुका लिया। प्रभाकरसिंह बेचैनी के साथ कभी उस लौंडी और कभी मालती की उस तस्वीर की तरफ देखते हुए अजीब ही पशोपेश में हो गये। कुछ देर चुपचाप खड़े वे अपने होंठ चबाते रहे और इसके बाद डपटकर उस लौंडी से कुछ कहना ही चाहते थे कि उनके पीछे की तरफ किसी दरवाजे के खुलने की आहट हुई और उन्होंने घूमकर देखा तो एक दूसरी औरत को हाथ में भोजन के सामानों से भरा एक सोने का थाल और उसके पीछे दो लौंडियों को जल तथा अन्य सामान उठाए लाते पाया।

इस औरत को प्रभाकरसिंह पहचानते थे। यह वही थी जो उस तिलिस्मी अन्धकूप में आखिरी बार उनसे मिली थी और जिसने इन्दुमति की चिट्ठी लाकर उन्हें दी थी। प्रभाकरसिंह उसे देखते ही घूमे और उसकी तरफ दो कदम बढ़कर बेचैनी के साथ बोले, ‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूँ संज्ञा! क्या मालती का किसी गैर के साथ विवाह होने वाला है?’’

उस औरत ने जिसका नाम संज्ञा था, एक कड़ी निगाह उन दोनों पहली वाली लौंडिया पर डाली (जिसे देखते ही उन्होंने कांपकर सिर नीचा कर लिया) और तब बोली, ‘‘महाराज, ब्याह हो गया कहना ज्यादा ठीक होगा क्योंकि विवाह का अन्तिम कृत्य अभी-अभी थोड़ी देर हुई पूरा हो चुका है! मगर महाराज!, उनकी फिक्र अब छोड़ दें। मालती रानी सब तरह से प्रसन्न हैं। महाराज अब भोजन करें कई घण्टे से....’’

प्रभाकरसिंह की छाती में संज्ञा के ये शब्द बाण की तरह लगे। ‘‘मालती का ब्याह हो गया’’, यह सुनके ही उनकी अजीब हालत हो गई, उनके सिर में चक्कर आने लगा और उन्होंने सहारे के लिए दीवार थामकर अपनी आंखें बन्द कर लीं। संज्ञा ने देखते ही दबी जुबान में उन दोनों लौंडियों से कहा, ‘‘कम्बख्तों, सब चौपट किया न!’’ और तब हाथ का थाल उनमें से एक को पकड़ा बगल की एक कोठरी की तरफ कुछ इशारा किया जिससे वे दोनों तथा उसके साथ-साथ आने वाली पिछली दोनों लौडियां सब उस तरफ चली गईं और इस कमरे में केवल प्रभाकरसिंह और संज्ञा ही रह गए। संज्ञा ने पास आकर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर कहा, ‘‘महाराज, जो हो गया उस पर अफसोस करना बुद्धिमानों का काम नहीं। अब आपको आगे की फिक्र करनी चाहिए। अपने शरीर की तरफ देखिए और उन कई कैदियों की तकलीफ पर ख्याल कीजिए जो अभी तक बन्द पड़े हैं और जिन्हें छुड़ाने के लिये ही मालती रानी ने इतना बड़ा त्याग किया है। महारानी आपसे अर्ज कर चुकी हैं कि उन कैदियों को पूरी स्वतन्त्रता दिलाने के लिये तिलिस्म के एक छोटे हिस्से को तोड़ने की जरूरत पड़ेगी जिसके बिना आप की उन पर कैदियों से भेंट हो न सकेगी।’’

प्रभाकरसिंह ने चौंककर पूछा, ‘‘क्या उन कैदियों के छुटकारे और मालती के ब्याह में कोई संबंध है?’’ संज्ञा ने जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, वही तो मुख्य कारण है, नहीं मालती रानी क्या....’

प्रभारक० : क्या-क्या? क्या बात है, जरा साफ-साफ मुझसे कहो तो सही!

संज्ञा० : (हाथ जोड़कर) लौंडी आपसे सब कुछ अर्ज करने को तैयार है मगर मेरी विनती है कि आप पहले कुछ भोजन कर लें नहीं तो अगर आपके दुश्मनों की तबीयत कुछ भारी हो गई तो मुफ्त में मैं मारी जाऊँगी। महारानी मुझे कभी माफ न करेंगी क्योंकि उन्होंने आपके आराम का बिल्कुल बोझ मुझ पर डाल दिया है।

प्रभाकर० : (चिढ़कर) अजी, जाने भी दो, तुम्हें भोजन की फिक्र पड़ी हुई है जबकि मेरा हृदय जल रहा है! तुम पहले यह बताओ की कैदियों के छुटकारे का मालती से क्या संबंध था?

संज्ञा : (नम्रता से) अच्छा, महाराज भोजन न करें पर उस कोठरी में चल कर हाथ-मुंह धो लें और उचित रीति से बैठ ही जाएं, आज सुबह से ही आपका समूचा समय ब्याह के तरद्दुदों और परेशानी में बीता है।

बड़े आग्रह के साथ संज्ञा प्रभाकरसिंह को बगल वाली कोठरी में ले गई जिसमें एक तरफ तो जड़ाऊ काम का सुनहरा पलंग बिछा हुआ था और दूसरी तरफ संगमरमर की चौकियों पर भोजन के तरह-तरह के सामान सजाये हुए थे। संज्ञा ने प्रभाकरसिंह के हाथ-पांव धुलाए और तब पलंग पर उन्हें बैठा नीचे के सामानों में से एक गिलास खुशबूदार शर्बत का उठाकर कहा, ‘‘कम-से-कम यह शर्बत तो महाराज पी लें, इसके बाद मैं सब कथा आपको सुनाती हूँ।’’

उसके विशेष आग्रह से प्रभाकरसिंह शर्बत पी गए और तब तकिये पर उठग कर बोले, ‘‘इन सबों को यहाँ से जाने को कहो और मुझसे सब बातें खुलासा बयान करो।’’ यह सुन संज्ञा ने पीछे घूमकर उन लौडियों को कुछ इशारा किया जिसे देखते ही वे सब कोठरी के बाहर निकल गईं और तब वह बोली, ‘‘महाराज, क्या जानना चाहते हैं?’’

प्रभाकर० : क्या उन कैदियों को छुड़ाने के लिए ही मालती ने ऐसा किया?

संज्ञा : जी हाँ, जब वे आपके साथ अन्धकूप में थीं उसी वक्त महारानी ने अपनी एक सखी के हाथ यह सन्देश उनके पास भेजा था कि अगर वे उनके कहे अनुसार एक काम करें तो मैं उन सब कैदियों को छोड़ दूंगी जिनको छुड़ाने की कोशिश करने का जुर्म उन पर लगाया गया था। शायद आपकी मौजूदगी में ही....?

प्रभाकर० : हाँ, हाँ, एक कम्बख्त औरत मेरे पास आई थी और उसने अलग ले जाकर मालती से कुछ बातें भी की थीं!

संज्ञा : जी हाँ, वे बातें यही थीं और मालती जी ने उसी समय इस बात को मंजूर कर लिया था। शायद उन कैदियों में उनकी कोई मुंहबोली सखी भी थी जिसको उन्होंने बरसों से सिर्फ देखा ही न था, सो नहीं, बल्कि उसे मरा हुआ समझ रही थीं।

प्रभाकर० : मैं जानता हूँ, अहिल्या उसकी बहुत ही प्यारी....

संज्ञा : जी हाँ, तो उन्हीं को छुड़ाने के लिए वे सब करने और महारानी का हुक्म तक मानने को तैयार हो गईं, यद्यपि बाकी के सब कैदी भी मैं सुनती हूँ उन्हीं के रिश्तेदार और जान-पहचान के हैं।

प्रभाकर० : हाँ, जरूर हैं। अच्छा, तो महारानी ने मालती से क्या कहा? क्या किसी से ब्याह करने को कहा? वह कौन आदमी है जिससे मालती ने....

संज्ञा : इस विषय में मैं ठीक-ठीक तो कुछ नहीं कह सकती क्योंकि इन बातों की मुझे खबर नहीं है। तो भी इतना कह सकती हूँ कि यह आदमी भी कहीं का राजा, हमारी महारानी का कोई रिश्तेदार और बड़ा ही खूबसूरत दिलावर नौजवान है।

प्रभाकर० : (बल खाकर) और उसके साथ मालती की शादी हो गई?

संज्ञा : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, महाराज!

प्रभाकरसिंह ने यह सुनकर एक लम्बी सांस ली और तब माथे पर हाथ रख कर कुछ सोचने लगे।

सोचते-ही-सोचते प्रभाकरसिंह कब बेहोश होकर उसी मसहरी पर लेट गए वे खुद ही नहीं समझ सके, मगर हम बाखूबी जानते हैं कि जो शर्बत संज्ञा ने उन्हें पिलाया था उसमें हल्की और बेमालूम तौर पर काम करने वाली बेहोशी का गुण था जिसने प्रभाकरसिंह को बहुत जल्द बेखबर कर दिया।

कुछ देर के लिए प्रभाकरसिंह का साथ छोड़कर अब हम इस तिलिस्म के एक दूसरे हिस्से की तरफ पाठकों को ले चलते हैं।

एक छोटा-सा बाग है जिसको चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारों ने घेरा हुआ है। इसमें के पेड़ तो नाममात्र के ही हैं मगर फलों की बहुतायत है और यही सबब है कि न-जाने कितने बरस इस अकेली और सूनसान जगह में बिताने वाली उस नाजुक औरत की जान बचती जा रही है जो देखिए वह उस झरने से नहाकर अभी-अभी बाहर निकली है और धूप में खड़ी हो अपने बाल सुखा रही है।

इस औरत के बदन पर कपड़ों के नाम से तो बहुत ही कम कोई चीज दिखाई पड़ती है क्योंकि जो कुछ भी किसी समय में इसके पास रहा होगा वह कभी का बर्बाद हो चुका था और इस समय पेड़ों की छाल तथा पत्तियां वगैरह ही मुख्य रीति से इसकी लज्जा-निवारण का सहारा हो रही हैं मगर हम यह भी कह सकते हैं कि उसको आजकल कपड़ों की कोई भारी जरूरत, सिवाय सर्दी बचाने के, कभी नहीं पड़ती क्योंकि जब से किस्मत की बदनसीबी ने इस जगह बन्द किया तब से आज तक उसने एक बार भी किसी आदमी की सूरत नहीं देखी।इस बाग के बीचोंबीच में एक दुमंजिली बारहदरी है जो सब तरफ से बिल्कुल खुली है, सिर्फ उसकी ऊपर की मंजिल को जाने वाली सीढ़ियां एक छोटी-सी कोठरी के अन्दर से होकर गई हैं। इस कोठरी में घास-पत्तियाँ वगैरह बटोर-बटोरकर उसने एक बिछावन-सा बना रखा है जिनके अन्दर घुसकर वह जाड़े की ठण्डी हवा और दिल दहला देने वाली सर्दी से किसी तरह अपनी जान बचा लेती है। उसी जगह को उसने अपना घर बनाया हुआ है और जिसे किसी समय मखमली गद्दों पर भी शायद मुश्किल से नींद आती होगी जमाने के हेर-फेर से वही आज इस प्रकार चिड़ियों की तरह घोंसले में रहने पर मजबूर हो रही है।

इस औरत की उम्र या नखशिख के बारे में इस समय कुछ कहना इनके साथ अत्याचार करना होगा क्योंकि जो भी नाजुक खूबसूरत और बरसों से अपने संगी-साथियों से भी अलग सूनसान बियावान में बिना उचित खाने-कपड़े और सामान अकेली रहने पर मजबूर हो जिसे मौसिमों की ज्यादती अपने नंगे बदन पर सहने को लाचार होना पड़े वह किस हालत तक पहुंच जाएगी इसे सभी सोच सकते हैं, फिर भी हम कह सकते हैं कि किसी जमाने में नाजुकपन और खूबसूरती में यह अपना सानी न रखती होगी।

वह देखिए इसके बाल सूख गए और इसने पेड़ों की छाल और लताओं को ऐंठकर बनाई गई रस्सियों के कपड़े से अपने बदन को किसी तरह ढंक लिया। अब ये पत्थर के उस कटोरे में पानी लेकर किसी तरफ को जा रही है जो उसे शायद कहीं से मिल गया है। झरने के पश्चिम तरफ थोड़ी दूर पर कमर बराबर ऊंचे चबूतरे पर एक नन्दी की मूर्ति बनी हुई है, उसी के सामने की तरफ इसने मिट्टी के एक शिवजी की मूर्ति बनाई हुई है, और नित्य सुबह-शाम वहाँ जल और फूल मिल सके तो फूल चढ़ाकर पार्थिव पूजन करती हुई यह रोज संसार को भिक्षा देने वाले भगवान् शिव से या तो स्वतंत्रता या मृत्यु की भिक्षा मांगती है। आज भी यह वही कर रही है मगर यह क्या! शिवजी पर जल और पुष्प चढ़ाकर आंखें मूंद कुछ ध्यान करते-करते यह चमक क्यों गई है और उसके चेहरे से डर और ताज्जुब क्यों प्रकट हो रहा है?

ओह, अब हम समझे। इस नाजुक-बदन की घबराहट की सबब वह पत्थर का नन्दी ही है। हैं, हमारी आँखें का दोष है या पत्थर का निर्जीव नन्दी सचमुच ही अपनी गर्दन इधर-उधर हिलाकर मानो बेचैनी के साथ कुछ देख रहा है। नहीं नहीं, हमारी आँखों का कसूर नहीं है, सचमुच ऐसी ही बात है और मालूम होता है इस जगह कोई तिलिस्म तमाशा होना ही चाहता है। आइए, हम भी इस तरफ पेड़ों की आड़ में खड़े होकर देखें कि अब क्या होता है? हैं, यह तेज आवाज कहाँ से आई! ओह, नन्दी के सामने वाले पार्थिव शिव से जरा ही-सा हटकर चबूतरे का फर्श फट गया है और उसके अन्दर से धीरे-धीरे उठता हुआ एक नौजवान बाहर आ रहा है। हैं, इस नौजवान को तो हम पहचानते हैं यह तो प्रभाकरसिंह हैं! मगर वह यहाँ कहाँ?

पत्थर की छोटी-छोटी सीढ़ियां चढ़कर प्रभाकरसिंह उस चबूतरे के बाहर आए, मगर उनकी पीठ उस तरफ होने के कारण जिधर वह नन्दी या वह औरत थी अभी तक उनकी निगाह इस पर पड़ी न थी और वे सिर्फ उस बाग ही को देख रहे थे जिसमें उन्होंने अपने को पाया था, मगर अब अपने पीछे ताज्जुब और डर की एक पतली आवाज सुन उन्होंने चौंककर सिर घुमाया और साथ ही चिहुंक गए।यह औरत, जिसकी लज्जा सिर्फ इसके बाल और पेड़ों की पत्तियां और छाल ही निवारण कर रहे थे, उनके पैरों की तरफ झुकी हुई करुण स्वर में कह रही थी, ‘भगवान्! आप जरूर सर्वशक्तिमान् शिव या कोई देवता हैं और मेरा कष्ट दूर करने आए हैं। दयानिधान अब मेरे अपराध क्षमा कर आप मुझे इस भयानक स्थान से बाहर कीजिए।’’

अगर और कोई मौका होता तो प्रभाकरसिंह जरूर खिलखिलाकर हंस पड़ते क्योंकि उस औरत ने अवश्य ही इन्हें कोई देवता या अलौकिक पुरुष समझ लिया था, मगर इस समय उस बेचारी की लाचारी और बेबसी उनकी आंखों में आंसू भर लाई। उन्होंने सिर्फ एक निगाह उसके सूखे हुए चेहरे और कमजोर शरीर पर जिसमें हड्डियां दिखाई पड़ रही थीं डाली और तब पीठ मोड़ते हुए बोले, ‘‘बहिन, तुम चाहे जो कोई भी हो, जरूर इस तिलिस्म में कैद और मुसीबतजदा हो। लो, पहले तुम इस कपड़े से अपना बदन ढांको और तब मुझे बताओ कि तुम्हारा नाम क्या है और तुम कब से इस मुसीबत में गिरफ्तार हो जिसमें से आज तुम बाहर होने वाली हो! मेरे बारे में सिर्फ यह समझ लो कि मेरा नाम प्रभाकरसिंह है और मैं तुम्हारी ही तरह आफत का मारा एक आदमी हूँ जो तिलिस्म तोड़ता हुआ यहाँ तक आ पहुंचा है।’’ प्रभाकरसिंह ने अपना कमरबन्द उतारकर उस औरत को दिया और तब चबूतरे के नीचे उतरकर एक तरफ आड़ में चले गए जहाँ एक पेड़ के नीचे बैठे वे अपनी तिलिस्म किताब पढ़ने लगे। पर वे अपना मन उस पुस्तक में न लगा सके, बार-बार उनको यही ख्याल आ सताता था कि यह कौन औरत है और कब से इस तिलिस्म में बन्द है। अस्तु जैसे ही कमरबन्द से किसी तरह अपना बदन ढांके उस औरत को प्रभाकरसिंह ने अपनी तरफ आते देखा, उठ खड़े हुए और उसकी तरफ बढ़कर पूछना ही चाहते थे कि वह दौड़कर इनके पैरों पर आ गिरी और न रुकने वालें आंसुओं से इनके पैर धोने लगी। प्रभाकरसिंह ने उसे बहुत कुछ दम-दिलासा देकर अलग किया और कहा, ‘‘बहिन, तुम अवश्य किसी भले घर की और बरसों से इस तिलिस्म में बन्द मालूम होती हो। मगर जान लो कि अब तुम्हारे मुसीबत के दिन बीत गए क्योंकि इस तिलिस्म की उम्र तमाम हो चुकी है और साथ-साथ तुम भी बहुत जल्दी ही इसके बाहर निकलकर अपने को स्वतन्त्र पाओगी। अस्तु अब बिल्कुल न घबराओ और मुझे यह बताओ कि तुम कौन और कहाँ की रहने वाली हो तथा तुम्हारी यह हालत किसने की? आओ, इस जगह बैठ जाओ और मेरी बातों का जवाब दो।’’

एक मुनासिब जगह पर प्रभाकरसिंह ने उस औरत को भी बैठने को कहा। वह उनकी आज्ञानुसार उनके सामने बैठ गई और हाथ जोड़कर बोली, ‘‘जिस तरह आपका नाम सुनते ही मैं आपको पहचान गई, उसी तरह शायद मेरा नाम भी आपको परिचित मालूम हो। मैं नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के रिश्तेदार और दरबारी सरदार अजयसिंह की लड़की हूँ और मेरा नाम भुवनमोहिनी है।’’

प्रभाकरसिंह इतना सुनते ही चौंककर, ‘‘हैं, तू भुवनमोहिनी है! तब तो मैं तुझे बाखूबी जानता हूँ, सेठ चंचलदास के लड़के और मेरे दोस्त कामेश्वर से तेरा ही ब्याह हुआ था न?’’ उस औरत ने सिर झुकाकर ‘हाँ’ कहा और तब प्रभाकरसिंह बोले , ‘‘और मेरे दोस्त गुलाबसिंह की मौसेरी बहिन है!’’ उसने फिर हाँ कहाँ और जब प्रभाकरसिंह ने चिन्ता के साथ कहा, ‘‘मगर मैंने तो तेरे बारे में बहुत तरह की बातें और अंत में यह भी सुना था कि तुझे जंगल में सांप ने काट लिया जिससे तू मर गई।’’ तो वह सिर नीचा किए आंसू बहाने लगी। प्रभाकरसिंह ने बहुत कुछ दम-दिलासा देकर उसे शान्त किया और पूछा, ‘‘तेरा पूरा हाल तो किसी फुर्सत के वक्त सुनूंगा क्योंकि मुझे तिलिस्म-संबंधी कई जरूरी काम करने हैं, जिसमें देर करना उचित नहीं, मगर संक्षेप में तू यह बता कि तेरी यह हालत कैसे हुई और यहाँ किसने पहुंचाया तथा तेरा मरना क्योंकर मशहूर हुआ!’’

उस औरत ने रोष-भरे स्वर में जवाब दिया, ‘‘मुझे मालूम है कि मेरे बारे में तरह-तरह की बदनामी फैलाई गई है पर मैं परमात्मा को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैं बिल्कुल बेकसूर हूँ? मेरी यह सब दुर्दशा और मेरे यहाँ बन्द होने का कारण जमानिया के महाराज का मुसाहिब यदुनाथ शर्मा और मेरे बुजुर्ग रणधीरसिंहजी का ऐयार गदाधरसिंह है, जिन दोनों ने मेरी यह हालत की।उन्हीं दोनों की करनी ने मुझे अपने पति और रिश्तेदारों से छुड़ाया, उन्हीं लोगों ने मुझे तरह-तरह पर बदनाम किया, उन्होंने ही मुझे बेइज्जत करने में कोई कसर उठा न रखी और उन्हीं की बदौलत एक मुद्दत से इस तिलिस्म में बन्द हूँ जहाँ बरसों बाद आज पहले-पहले किसी मनुष्य की सूरत मुझे दिखाई पड़ी है। आप मेरे प्राणरक्षक और रिश्तेदार ही नहीं, मेरे पति के मित्र भी हैं, मैं नहीं जानती कि इतने समय में दुनिया में क्या उलट फेर हो गए, मगर मैं आप ही के सामने अपना मुकदमा पेश करती हूँ, और आप ही से इंसाफ चाहती हुई प्रार्थना करती हूँ कि मेरी दुर्गति करने वालों को पूरी-पूरी सजा दी जाए! जब आपको ईश्वर ने तिलिस्म तोड़ने की ताकत दी है तो आपमें जरूर कुछ अलौकिक शक्ति है और उसके बल से आप मेरे दुश्मनों, मेरा नाश कर देनेवालों, मेरा सोने का महल खाक कर देने वालों को जरूर सजा दे सकते हैं। मेरा अब इस दुनिया में कुछ नहीं रह गया। जिस औरत की दुनिया में नेकनामी नहीं, जिसके माता-पिता, पति और कोई रिश्तेदार नहीं, जिसका कोई घर-बार नहीं, उसके जीने की कोई जरूरत भी नहीं। बस आप एक दफे मेरे मुंह से मेरा हाल सुन लीजिए और तब मुझे इस दुनिया से जाने की....!’’

रोष और उद्वेग के मारे भुवनमोहिनी का चेहरा लाल हो आया था। इतना कहते-कहते उसे हिचकी आने लगी और वह जोर-जोर से रोती हुई पुन: प्रभाकरसिंह के पैरों पर गिर पड़ी मगर उन्होंने उसे उठाया और दिलासा देने वाले शब्दों में कहा, ‘‘नहीं-नहीं बहिन भुनमोहिनी, तू बिल्कुल गलत सोच रही है! तेरे दुश्मन तो सजा पाएंगे ही मगर तू भी अब अपनी मुसीबतों को भूल जा। तेरे दु:ख के दिन बीत गए। शीघ्र ही तू जब इस तिलिस्म के बाहर निकलेगी तो अपने सब रिश्तेदार और प्रेमियों को सही सलामत और सुखी देखेगी। जमाने के उलट-फेर के कारण मैं तेरे हाल-चाल से बहुत परिचित नहीं हूँ फिर भी इतना कह सकता हूँ कि तू सब तरह से निष्कलंक है और तेरी बुराई फैलाने वालों को ईश्वर सजा दे चुका और दे रहा है। तू शान्त हो और संक्षेप में अपना हाल सुना!’’बड़ी कठिनता से भुवनमोहिनी ने अपने को शान्त किया और तब प्रभाकरसिंह की आज्ञानुसार इस तरह अपना किस्सा सुनाने लगी....

भुवन० : मेरा किस्सा तो बहुत बड़ा है मगर आपकी आज्ञानुसार मैं संक्षेप ही में सुनाती हूँ। मुझे लड़कपन का हाल कहने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि उससे शायद आप वाकिफ भी होंगे और उसमें कोई ऐसी अनूठी घटना हुई भी नहीं। मेरी मुसीबतों का चक्कर तब से शुरू हुआ जबकि मैं ब्याह के जमानिया आई और यहाँ यदुनाथ शर्मा जो जमानिया के महाराज का मुँह लगा मुसाहिब और सरदार था उसकी निगाह मुझ पर पड़ी। उसको उस समय कुछ लोग दारोगा साहब भी कहते थे क्योंकि महाराज ने उसे अपने तिलिस्म के सामानों का दारोगा बनाया हुआ था। मालूम नहीं, आजकल वह है या नहीं या कहाँ है।

प्रभाकर० : हैं, जमानिया में ही और अपनी शैतानियों का जाल चारों तरफ फैलाया हुआ है। तुझे महाराज गिरधरसिंह के देहाँत की खबर तो न होगी!

भुवन० : (चौंककर) है, महाराज गुजर गए! ओह, यह मैं क्या सुनती हूँ। उनकी मुझ पर असीम दया रहा करती थी, मगर तब यह भी सच है कि उनकी कृपा ही मेरी दुश्मन बनी!

प्रभाकर० : उनका देहान्त हुए बहुत-बरस से ऊपर हो गया, उनकी महारानी उनसे पहले ही गुजर चुकी थीं। अब कुंवर गोपालसिंह राजा हैं, लोगों का तो यह कहना है कि बड़े महाराज के देहान्त में भी इस कम्बख्त दारोगा का ही कुछ हाथ था, खैर, तू अपना हाल कह।

भुवन० : (अपनी आंखें पोंछती हुई) अफसोस! अच्छा, तो मैं जब ब्याह के आई तो महाराज को इस बात की खबर हुई क्योंकि कायदे के मुताबिक मैं महल में महारानी साहिबा की खिदमत में पेश की गई थी। महाराज ने इस पर बहुत ही मेहरबानी का बर्ताव किया और मेरे ही सबब से मेरे खानदान की भी इज्जत बढ़ाकर मेरे पति को एक अच्छा रुतबा दिया। अब तो मैं सोचती हूँ कि उनकी इस कृपा के कारण मैं मुसीबत में पड़ गई क्योंकि लोगों को मेरे बारे में तरह-तरह की बातें उड़ाने का मौका मिला, खासकर वह दारोगा तो मेरा दुश्मन ही बन बैठा क्योंकि मेरे पति और ससुर की तरफ से उसका दिल साफ न था और वह न-जाने क्यों उनसे बहुत खार खाता था। महाराज की हम लोगों के ऊपर कृपा उसे फूटी आँखों न सुहाती थीं।

प्रभाकर० : महाराज की दयालु प्रकृति का हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है जो दुश्मन पर भी कृपा किया करते थे, पर तेरे ऊपर मेहरबानी करने का क्या कोई खास कारण था?

भुवन० : (जरा-सा रुकावट के साथ) आप मेरे प्राणदाता हैं इससे आपसे साफ-साफ कह देने में कोई हर्ज नहीं, फिर अब जब महाराज का शरीर ही न रहा तो मेरी फसम भी कोई बाधा नहीं डालती। बात यह है कि महाराज ने एक दिन खुद मुझसे कहा था कि तू राजा बीरेन्द्रसिंह की भांजी है और वे मेरे भाई हैं इसलिए मैं भी तुझे अपनी भांजी और बेटी समझता हूँ और तू मुझे अपना पिता ही समझ।

प्रभाकर० : (चौंककर ताज्जुब से) महाराज राजा बीरेन्द्रसिंह के भाई थे!

भुवन० : जी हाँ, महाराज ने कहा था कि यह रिश्तेदारी बहुत ही गुप्त है और साथ ही यह भी बताया कि इस रिश्ते के प्रकट होने का समय अभी नहीं आया है अस्तु तू अपनी अपनी जुबान से किसी से भी इसका हाल न कहियो और मैंने ऐसा ही करने की कसम खा ली थी।

प्रभाकर० : (ताज्जुब से मन-ही-मन) उस दरबारी कमरे में जो कुछ मैंने देखा उससे मुझे भी यह ख्याल उठा था। जरूर महाराज को इसका पता तिलिस्म के जरिये से लगा होगा! (भुवनमोहिनी) अच्छा, तब?

भुवन० : महल में ही जहाँ अक्सर मेरा जाना-आना होता रहता था एक बार उस कम्बख्त दारोगा की निगाह मुझ पर पड़ गई और वह मुझ पर आशिक हो गया। न-जाने इस निगोड़ी शक्ल में उसने क्या देखा कि मुझे कब्जे में लाने के लिए उसने तरह-तरह के सब्जबाग दिखाने शुरू किए। मैंने इसकी शिकायत महाराज से की। सुनकर उन्होंने उसे डांटा बल्कि कुछ दिनों के लिए अपने दरबार से निकाल रीठा के जंगलों का दारोगा बनाकर सरहद पर भेज दिया, मगर वे सीधे आदमी थे और यह बड़ा चालबाज, अस्तु किसी-न-किसी तरह महाराज को खुश कर जमानिया लौट आया मगर उसी दिन से यह मेरा जानी दुश्मन हो गया। महाराज से कुछ कहने की हिम्मत तो इसकी न पड़ी मगर महारानी के कान भरने इसने शुरू किए और मेरी तरह-तरह की झूठी शिकायतें कर उन्हें इसने मेरी तरफ से नाराज कर दिया। राजदरबारों में किस-किस तरह के कुचक्र चला करते हैं। इसका पता तो मुझे नौगढ़ में ही लगा करता था अस्तु मैंने पति से सब हाल कहा और उन्होंने महाराज से अर्ज कर जमानिया से दूर एक जगह जाकर रहना शुरू किया मगर वह आबहवा मुझे माफिक न आई, मैं बीमार पड़ गई और जब महाराज ने समाचार सुना तो हम दोनों को फिर जमानिया बुलवा भेजा। इसी जगह से मेरी मुसीबत का असली जमाना शुरू हुआ। मेरे कुंआरेपन ही में चुनार के राजा शिवदत्त की बुरी निगाहें मुझ पर पड़ चुकी थी। आप तो जानते ही होंगे कि वह रणधीरसिंह का दामाद है जो मेरे मामा लगते हैं। वहाँ अकसर वह भी आते और मैं भी रहती। वहीं उसने मुझे पहले-पहल देखा था मगर उसकी बुरी नीयत पहचान, जब कभी वह वहाँ रहे मैंने वहाँ जाना ही छोड़ दिया था पर अब मेरे जमानिया आने पर कम्बख्त की बुरी नीयत ने फिर जोर मारा और इस काम में उसके मददगार बने ये साहब और मेरे मामा का एक शैतान ऐयार गदाधरसिंह। गदाधरसिंह का नाम आपने जरूर सुना होगा और इन्हीं की करतूतों ने मुझे एकदम मिट्टी में मिला दिया।

प्रभाकर० : मगर मैंने उड़ती हुई यह खबर सुनी थी कि जमानिया की महारानी का भी इसमें कुछ हाथ था और वे भी तुम्हारी दुश्मन बन गई थीं।

भुवन० : अगर हो तो मैं कुछ कह नहीं सकती। वे मुझसे नाराज तो जरूर रहा करती थीं क्योंकि यह दारोगा तरह-तरह की मेरी झूठी शिकायतों से उनके कान भरता था, मगर उन्होंने मेरे खिलाफ सिवाय महाराज को दो-एक दफे कुछ कहने के और कुछ किया हो इसकी खबर तो मुझे नहीं!

प्रभाकर० : खैर, जाने दो, तब क्या हुआ?

भुवन० : मेरे ससुर का एक बहुत बड़ा और सुन्दर बगीचा तथा आलीशान कोठी जमानिया से दो कोस बाहर एक पहाड़ी नाले के किनारे पर थी जहाँ अक्सर हम लोग जाकर रहा करते थे! एक दिन की बात है, मैं अपने पति के साथ उसी बाग में थी कि मुझे खबर लगी कि एक सपेरा बहुत-से अद्भुत्-अद्भुत् सांप लेकर आया है। मैंने उन्हें देखने की इच्छा की और पति से आज्ञा लेकर उस सपेरे को भीतर बुलाया। बड़े ही विचित्र-विचित्र सांप उसके पास थे जिन्हें वह मुझे दिखला ही रहा था कि यकायक लाल रंग के पतले और करीब डेढ़-दो हाथ लम्बे सांप ने झपटकर मुझे काट लिया।

डर और तकलीफ के कारण मैं बदहवास हो गई और जब उसने बताया कि यह एक जहरीला सांप है कि जिसके काटे का कोई इलाज नहीं और जिसका जहर कुछ देर बाद में चढ़ता है तो मैं एकदम ही सुध-बुध खो बैठी। उस सपेरे ने अपने पास से निकालकर और बहुत तारीफ कर किसी दवा की एक पुड़िया मुझे खिला दी। इस दवा के खाने के कुछ ही देर बाद वह आधी बेहोशी में भी मुझे जान पड़ने लगा कि मेरा तमाम बदन जल रहा है और कलेजे में एक अजीब किस्म की धड़कन और दर्द शुरू हो रही है। धीरे-धीरे मेरे हाथ-पांव सुन्न होने लगे और होश था मगर ऊपर से मैं एकदम मुर्दे जैसी हो गई। मेरी आँखों से कुछ दिखाई न देता था और मेरा शरीर एकदम सुन्न हो गया था। एक उंगली तक मैं हिला नहीं सकती थी मानों उसे लकवा मार गया हो। मैं मुर्दे की तरह जमीन पर पड़ गई और मेरे घर में कोहराम मच गया। सब कोई और खासकर मेरे पति जो मुझे बहुत ही प्यार करते थे जोर-जोर से रोने और चीखने-चिल्लाने लगे मगर सपेरे ने उन्हें दिलासा और उसी दवाई की एक और पुड़िया जबरदस्ती मेरा मुंह खोलकर खिला दी। उस पुड़िया की गर्मी और तेजी से चढ़ी और मैं एकदम बेहोश हो गई।

इसके बाद कैसे क्या हुआ, मैं कुछ कह नहीं सकती क्योंकि मुझे कुछ भी होश नहीं है, पर जंगल की ठंडी-ठंडी हवा लगने से मुझे कुछ होश आया और मुझे ऐसा याद पड़ता है कि मैंने देखा कि कुछ लोग मुझे कम्बल में लपेटे कहीं लिए जा रहे हैं, पर ये लोग कौन हैं या मुझे कहाँ ले जा रहे हैं इसका मुझे पता न लग सका क्योंकि मेरे होशहवास पूरी तरह दुरुस्त न हुए थे और न आंख खोलने या बदन हिलाने की सामर्थ्य लौटी थी। मैं किसी मकान के अन्दर लाई गई जहाँ एक कम्बल पर मुझे लेटा वे लोग बाहर निकल गए। थोड़ी देर बाद कोई आदमी वहाँ आया और उसने मुझे कोई चीज सुंघाई तथा कोई दवा खिलाई जिससे मेरे होश लौटने लगे और कुछ ही देर बाद भला-बुरा समझने लायक हो गई। तब कई बार आंखें खोलकर मैंने देखा और पहचाना कि वह आदमी गदाधरसिंह था।

प्रभाकरसिंह यह सुन चौंके और उन्होंने पूछा, ‘‘तुमने पहचाना कि वह गदाधरसिंह था?’’ भुवनमोहिनी ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, अच्छी तरह क्योंकि अपने मामा के यहाँ बराबर ही उसे देखा करती थी।’’ प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘अच्छा तब?’’

भुवन० : मुझे सगबगाता और होश में आता पा किसी दवा से तर एक रूमाल मेरी नाक पर रख गदाधरसिंह बाहर चला गया और थोड़ी ही देर बाद उसकी यह बात मैंने सुनी। लीजिए, महाराज मैंने अपना काम पूरा कर दिया! जिसे आप मुर्दा समझ रहे थे वह देख लीजिए कि जीती-जागती और पूरे होश-हवास में है। जाइए, अपनी प्यारी को काबू में कीजिए और उसके आंचल में गुलामी की दस्तावेज लिखिये!’’ और इसके बाद ही मैंने राजा शिवदत्त को वहाँ आते पाया। एक निगाह उस कमीनी सूरत पर डालते ही कांप गई। क्योंकि मुझे विश्वास हो गया कि यह सब हरकत इसी की है। और अपनी लालसा पूरी करने के लिए ही इसने मेरे साथ इस तरह की कार्रवाई की है।

अब उस वक्त की शिवदत्त की बातों का क्या जिक्र मैं आपसे करूं? मुख्तसर यह कि उसने तरह-तरह के सब्जबाग मुझे दिखलाये और हजारों तरह की बातें कहकर मुझे बहकाना चाहा मगर मैं किस तरह उसकी बात मंजूर कर सकती थी! उसकी लानत-मलामत करके उसे गालियां देने लगी। आखिरकार उसे क्रोध चढ़ आया और वह खंजर खींच मेरी छाती पर सवार हो गया।मुझे खुशी हुई कि अब सब किस्सा खतम हो जाएगा और मैं मरकर ठंडे-ठंडे स्वर्गलोक को चली जाऊंगी मगर फूटी किस्मत में यह सुख भी नहीं बदा था। नजदीक ही था कि खंजर मेरी छाती में घुस जाता और मेरा काम तमाम हो जाता कि कोठरी के बाहर कहीं से किसी औरत के चिल्लाने की आवाज आई जिसे सुन शिवदत्त चौंक पड़ा और मुझे छोड़ दरवाजे पर जा पूछने लगा, ‘‘कौन है? कौन चिल्लाया?’’ कुछ आदमियों के बातचीत की आवाज आई और तब एक आदमी बोला, ‘‘महाराज, यह कम्बख्त मालती है!’’

इतना सुनते ही मैं ताज्जुब में आकर सोचने लगी कि यह कौन मालती हो सकती है कि इसी समय शिवदत्त फिर मेरे पास आया और बोला, ‘‘देख री कमबख्त मैं तुझे आधी घड़ी की मोहलत देता हूँ! इसी बीच में तू सब कुछ सोच-समझ ले और अपना भला-बुरा विचार ले। आधी घड़ी के बाद मैं फिर आऊंगा! अगर तूने मेरी बात मान ली और मेरे महल में रहना मंजूर कर लिया तो ठीक ही है नहीं तो याद रख बोटी-बोटी काटकर मैं कुत्तों को खिला दूँगा!’’ इतना कह वह बाहर निकल गया और मैं उसी जगह पड़ी किस्मत पर आंसू गिराने लगी। आधी घड़ी बल्कि इससे भी ज्यादा बीत गया और शिवदत्त लौटकर न आया तब मुझे कुछ आशा का संचार हुआ। मैं सोचने लगी कि शायद वह कहीं चला गया या किसी मुसीबत में पड़ गया हो और मुझे इस मकान के बाहर जाने का मौका मिल सके। उस कोठरी का दरवाजा तो वह कम्बख्त जाते वक्त बाहर से बन्द करता गया था मगर वहाँ और भी कई दर्वाजे दिखाई पड़ रहे थे। मैं हिम्मत करके उठी और सब दरवाजों को जांचने पर एक मुझे भीतर ही की तरफ से बन्द मिला अर्थात् उसकी सांकल उसकी कोठरी में से लगी हुई थी। मैंने आहिस्ते से सांकल खोली और पल्ला खोले दूसरी तरफ देखने लगी। जो कुछ मैंने देखा उसने मुझे चौंका दिया अर्थात् उस जगह जमीन ही पर एक बेहोश औरत पड़ी हुई थी। मैं कोठरी में घुस गई और झुककर देखने पर पहचाना कि वह अहिल्या थी।

इतना सुनते ही प्रभाकरसिंह चौंके और बोल उठे, ‘‘अहिल्या! कौन अहिल्या?’’

भुवन० : आप उसे जरूर जानते होंगे वह मेरे पति की प्यारी बहिन जिसका विवाह....

प्रभाकर० : ठीक-ठीक, मैं समझ गया! वही जो भूतनाथ के हाथों मारी गई।

भुवन० : जी, इस बारे में तो....

प्रभाकर० : खैर, तुम आगे का हाल कहो!

भुवन० : जो आज्ञा! अहिल्या को देख मैं चौंक पड़ी और उसे होश में लाने की कोशिश करने लगी पर मैं कुछ कर न पाई क्योंकि उसी समय पहली कोठरी (जिसमें से मैं आई थी) का दरवाजा खुलने की आहट सुनाई पड़ी और मैंने देखा कि शिवदत्त और उसके साथ-साथ गदाधरसिंह उनके अन्दर आए। मुझे उस कोठरी में न पा शिवदत्त चौंका और इधर-उधर देखने लगा मगर उसी समय गदाधरसिंह हंस पड़ा और जिस कोठरी में मैं थी उसकी तरफ बताकर कहने लगा, ‘‘जरूर वह उस कोठरी में गई होगी।’’ मैंने यह सुनते ही इस कोठरी का दरावाजा बन्द कर लेना चाहा मगर वह झपट पड़ा और दरवाजा ढकेल करके अन्दर घुस आया।उसके पीछे शिवदत्त भी वहाँ आ गया और मुझे डर के मारे दीवार से चिपकता देख दोनों शैतान हंसने लगे। इसके बाद भूतनाथ ने शिवदत्त से कहा, ‘‘अच्छा महाराज शिवदत्त, अब मैं आपका हुक्म पूरी तौर पर बजा चुका अब लाइए मेरी चीज मेरे हवाले कीजिए।’’ यह सुन शिवदत्त बोला, ‘‘हाँ, मैं आपकी कार्रवाई से बहुत ही खुश हूँ और खुशी के साथ आपकी चीज आपको देने को तैयार हूँ। आपने जो कुछ किया वह आपके सिवाय और किसी के लिए होना नामुमकिन था। यह लीजिए अपनी चीज!’’ शिवदत्त ने अपनी कमर में कोई चीज निकालकर गदाधरसिंह को दी जिसने उसे एक दफे गौर से देख और तब खुश होकर अपनी जेब में रख लिया!

प्रभाकर० : वह कौन-सी चीज थी क्या तुम कह सकती हो?

भुवन० : नहीं, मैं इस कदर डरी और घबराई हुई थी कि उन लोगों की तरफ देखने में कांप उठती थी और फिर उस जगह कुछ अन्धकार भी था।

प्रभाकर० : खैर, तब।

भुवन० : गदाधरसिंह उस चीज को ले शिवदत्त को सलाम कर पीछे को मुड़ा मगर शिवदत्त ने रोककर कहा, ‘‘गदाधरसिंह तुम जा ही रहे तो अहिल्या को भी लेते जाओ क्योंकि यह कम्बख्त मेरे काबू में किसी तरह नहीं आती और जब तुमने (मेरी तरफ बताकर) इसे मेरे हवाले कर दिया है तो मुझे उसकी जरूरत भी नहीं रही। तुम उसे ले जाओ और जो चाहो सो करो।’’

शिवदत्त की बात सुनते ही गदाधरसिंह की बाछें खिल गईं। खुशी-खुशी शिवदत्त को सलाम कर अहिल्या की तरफ झुका गठरी बनाई और तब अपनी पीठ पर लाद कोठरी के बाहर निकल गया। अब शिवदत्त मेरी तरफ झुका और एक कदम आगे बढ़कर पूछने लगा, ‘‘बता तूने क्या सोचा! मेरी बात मंजूर है या अपनी जान देना!’’

उसको अपनी तरफ बढ़ते देख मैं डरकर दूसरी तरफ हटी। उस कोठरी के एक तरफ एक छोटा-सा चबूतरा बना था जिसके ऊपर लाल रंग की कोई मूरत बैठी हुई थी। इस चबूतरे और उस कोठरी की दीवार के बीच हाथ डेढ़ हाथ के करीब जमीन छूटी हुई थी और वहाँ दीवार में एक अलमारी बनी थी जिसमें पल्ले तो थे मगर खाने अर्थात् दर बने हुए न थे। शिवदत्त के हाथ से बचने की नीयत से मैं इसी चबूतरे के पीछे भागी और उस मूरत को मैंने कसकर पकड़ लिया जो मेरा हाथ पड़ते ही कुछ घूम-सी गई, जब शिवदत्त वहाँ पहुंचे तो मैं उस अलमारी के अन्दर घुस गई जो काफ़ी लम्बी-चौड़ी और ऊंची थी तथा उसके पल्ले भीतर से बंद कर लिए।

पल्लों का बन्द करना ही था कि एक खटके की आवाज हुई और उस आलमारी के पीछे की तरफ एक छोटा-सा रास्ता निकल आया। मैंने गनीमत समझा और उसी रास्ते के अन्दर घुसने के साथ ही मुंह के बल नीचे जा गिरी क्योंकि भागने की जल्दी में मैंने इस बात पर गौर न किया कि उस रास्ते के अंदर की सतह बराबर नहीं है बल्कि वहाँ कई डण्डा सीढ़ियां हैं। मुझे बहुत सख्त चोट आई थी मगर साथ ही यह देखकर कि वह रास्ता जो जरूर तिलिस्मी होगा इस तरह से बन्द हो गया था कि इस बात का कुछ पता ही नहीं लगता था कि यहाँ कोई रास्ता कभी था भी। प्रसन्नता भी हुई कि मैं हत्यारे शिवदत्त के हाथों से बच गई। बहुत देर तक जमीन पर बैठी रही और जब मेरे होश-हवास ठिकाने हुए तो उठ कर एक तरफ को रवाना हुई क्योंकि मैंने अपने को एक लम्बी सुरंग में पाया।

इधर-उधर घूमती और विचित्र ढंग में ऊपर-नीचे मुड़ती हुई वह सुरंग न-जाने कितनी दूर चली गई थी कि चलते-चलते मैं एकदम थक गई। आखिर किसी तरह उस सुरंग का खातमा हुआ और कुछ डण्डा सीढ़िया तय कर मैं एक दालान में पहुंची! मेरे यहाँ पहुंचते ही सुरंग का मुंह इस तरह बन्द हो गया कि उसका नाम निशान भी बाकी न रह गया मगर इस बात पर गौर करने का मुझे मौका न मिला क्योंकि अपने सामने जो कुछ मैंने देखा उसने मुझे घबरा दिया।

एक लम्बा-चौड़ा आंगन पत्थरों से पटा हुआ मेरे सामने था जिसके बीचोंबीच में लाल पत्थर की एक भयंकर आकृति की मूरत बनी हुई थी। काले कपड़े से अपना तमाम बदन ढांके और अपने मुंह को भी काली नकाब से छिपाये एक आदमी उस मूरत के सामने खड़ा था और उसके पैरों के पास एक बेहोश औरत पड़ी हुई थी। मूरत के मुंह से कुछ शब्द निकल रहे थे जिसे मैंने सुना, ‘‘मेरा नाम भूतनाथ है, मैं रोहतासगढ़ का पुजारी हूँ और यहाँ पर उस खज़ाने की हिफाजत करने के लिए बैठाया गया हूँ जो शिवगढ़ी में बन्द है।’’ (१. नोट-ये ही शब्द प्रभाकरसिंह ने सुने थे जब भूतनाथ की मूरत ने उन्हें पकड़ा था- देखिए भूतनाथ सत्रहवाँ भाग, तीसरा बयान।)

वह नकाबपोश उस मूरत की यह बात सुनकर बोला, ‘‘मगर मैंने तो अब सारी शर्तें पूरी कर दी हैं अब वह खजाना मुझे मिल जाना चाहिए।’’ जिसे सुन मूरत विकराल हंसी हंस कर बोली, ‘‘मैं बहुत दिनों का प्यासा हूँ और मेरी प्यास रक्त से ही मिट सकती है। तुम्हारे साथ एक औरत है। उसका सिर काटकर ताजा लहू अगर मुझे पिला दो तो मैं अपना खजाना तुम्हें दे दूँगा!’’

नकाबपोश यह सुनकर बोला, ‘‘मैं इसके लिए भी तैयार हूँ।’’ वह मूरत यह सुन खिलखिला कर हंसी और बड़े ही डरावने ढंग से उसने अपनी जबान निकालकर ओठ चाटे, इधर नकाबपोश ने अपनी कमर से तलवार निकाली और उस औरत की तरफ झुका।

उस समय ज़रा देर के लिए नकाब उसके चेहरे पर से हट गई और मैंने पहिचाना कि वह गदाधरसिंह है।

प्रभाकर० : कौन, गदाधरसिंह! और वह औरत कौन थी?

भुवन० : जी हाँ वह गदाधरसिंह ही था, और वह औरत अहिल्या थी क्योंकि उसी समय एक हाथ से गदाधरसिंह ने उसके बाल पकड़कर उसका सिर सीधा किया तब उसकी भी सूरत मैंने देखी, मगर इसके पहिले कि मैं कुछ कर सकूं, दूसरे हाथ से तलवार निकालकर गदाधरसिंह ने उस बेचारी की गरदन पर मारी। खून का फव्वारा चल पड़ा और सिर कटकर गदाधरसिंह के हाथ में आ गया जिसे ऊंचा कर उसने मूरत की जुबान पर लहू टपकाना शुरू किया। ओह! यह ऐसा दृश्य था जिसे मैं देख न सकी और एक चीख मारकर बेहोश हो गई।

इस भयानक घटना की याद ने इतने दिन बाद भी बेचारी भुवनमोहिनी का शरीर कंपा दिया और उसने कांप कर आंखें बन्द कर लीं, प्रभाकरसिंह ने उसे बहुत कुछ दम-दिलासा देकर शान्त किया और तब कहा, ‘‘तू बाकी हाल कह मगर जल्दी कर क्योंकि समय बीतता जाता है और मुझे आगे का काम शीघ्र निपटा डालना जरूरी है, नहीं तो हम लोग मुसीबत में पड़ सकते हैं। तिलिस्म का बाकी हिस्सा तोड़ते हुए मैं जल्दी बाहर निकल जाना चाहता हूँ!’’

भुवनमोहिनी ने जवाब के लिए मुंह खोला ही था कि यकायक प्रभाकरसिंह के पीछे से किसी के हंसने की डरावनी आवाज सुनकर रुक गई। प्रभाकरसिंह ने चौंककर पीछे घूम के देखा और जब किसी पर निगाह न पड़ी तो ताज्जुब के साथ पूछा, ‘‘यह कौन हंसा?’’

एक डरावनी आवाज आई ‘‘मैं!’’

प्रभाकरसिंह चौंक गए। यह आवाज उन्हें पहचानी हुई-सी जान पड़ी। उन्होंने पूछा, ‘‘तुम कौन?’’

जवाब मिला, ‘‘मैं वही तिलिस्मी शैतान!’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘तुम कहाँ हो और क्यों हंस रहे हो?’’

जवाब मिला, ‘‘मैं यही हूँ और तुम्हारी बात पर हंस रहा हूँ! क्या तुम समझते हो कि अब जीते-जी इस तिलिस्म के बाहर निकल सकोगे!’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘क्या इसमें भी कोई शक है।’’

जवाब आया, ‘‘जरूर।’’

प्रभाकरसिंह ने कुछ सोचकर जवाब दिया, ‘‘खैर फिर देखा जाएगा मगर इस समय तो तुम्हारी कहीं सूरत भी नहीं दिखाई पड़ती जो मैं कुछ बातें करूं और पूछूं कि ऐसा क्यों।’’

इसके जवाब में फिर वही डरावनी हंसी सुनाई दी और तब आवाज आई, ‘‘अच्छा तो मैं प्रकट होता हूँ। तुम्हें जो कुछ पूछना हो पूछो मगर होशियार रहना, डरना नहीं।’’

इसके साथ ही एक पटाखे का शब्द हुआ और बहुत ढेर-सा धूंआ दिखाई पड़ने लगा। इस धुएं ने हल्का होकर मनुष्य की हड्डियों के एक ढांचे का रूप धारण किया और जब निगाह जमी तो प्रभाकरसिंह ने उसी भयानक तिलिस्मी शैतान को अपने सामने पाया जिसे पहले भी कई बार देख चुके थे।

प्रभाकरसिंह तो बहादुर और दिलेर थे साथ ही इस आसेब को कई बार देख भी चुके थे जिससे उन्होंने अपने होश-हवास कायम रखे मगर बेचारी भुवनमोहिनी इसे देखते ही इतना घबराई और डरी कि उसने बेतहाशा एक चीख मारी और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।

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